Chapter 10 of the Bhagavad Gita is titled "Vibhuti Yoga" or the "Yoga of Divine Glories." In this chapter, Lord Krishna reveals his divine manifestations and demonstrates his omnipresence in various aspects of the universe. Here's a brief summary:
1. **Krishna's Divine Manifestations**: Krishna begins by explaining to Arjuna that He is the source of all existence and the ultimate cause of creation, preservation, and destruction. He reveals his divine glories and extraordinary manifestations that showcase his omnipotence and omniscience.
2. **The Essence of All Beings**: Krishna explains that all beings emanate from Him and exist within Him, like beads strung on a thread. He is the essence of everything and the source of all life.
3. **Examples of Divine Manifestations**: Krishna provides examples of his divine manifestations, including his presence as the radiant sun, the moon, the Himalayas among mountains, and the mighty ocean among bodies of water. He also mentions his manifestation as the sound in the ether and the consciousness in living beings.
4. **The Power of Devotion**: Krishna emphasizes the importance of devotion (bhakti) as the most effective means to realize the divine. He assures Arjuna that those who worship Him with unwavering faith and love attain spiritual wisdom and eternal liberation.
5. **Arjuna's Marvel and Doubt**: Arjuna marvels at Krishna's divine manifestations but expresses doubt about whether he can truly comprehend the extent of Krishna's greatness. Krishna encourages Arjuna to continue his devotion and assures him that through divine grace, he will understand.
6. **Krishna's Supreme Manifestation**: Krishna reveals his most exalted manifestation as the ultimate reality (paramatma) dwelling within the hearts of all beings. He is the eternal witness, the sustainer, and the source of all existence.
7. **Krishna's Relationship with Devotees**: Krishna declares his intimate relationship with his devotees, assuring them of his protection, guidance, and love. He states that those who surrender to him with devotion are always cherished and supported by him.
8. **The Importance of Knowing Krishna**: Krishna concludes by stating that those who understand and recognize his divine manifestations with faith and devotion attain liberation from the cycle of birth and death. He encourages Arjuna to reflect on his teachings and continue his spiritual journey with dedication.
In summary, Chapter 10 of the Bhagavad Gita reveals Krishna's divine manifestations and emphasizes the importance of devotion and faith in realizing the ultimate truth. It showcases Krishna's omnipresence, omniscience, and omnipotence, highlighting his role as the supreme source of all existence and the object of worship for his devotees.
अध्याय 10 का श्लोक 1
(भगवान उवाच)
भूयः, एव, महाबाहो, श्रृृणु, मे, परमम्, वचः,
यत्, ते, अहम्, प्रीयमाणाय, वक्ष्यामि, हितकाम्यया।।1।।
हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचनको सुन जिसे मैं तुझ अतिशय प्रेम रखनेवालेके लिये हितकी इच्छासे कहूँगा।
अध्याय 10 का श्लोक 2
न, मे, विदुः, सुरगणाः, प्रभवम्, न, महर्षयः,
अहम्, आदिः, हि, देवानाम्, महर्षीणाम्, च, सर्वश्ः।।2।।
मेरी उत्पतिको न देवतालोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओंका और महर्षियोंका भी आदि कारण हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 3
यः, माम्, अजम्, अनादिम्, च, वेत्ति, लोकमहेश्वरम्,
असम्मूढः, सः, मत्र्येषु, सर्वपापैः,प्रमुच्यते।।3।।
जो विद्धान व्यक्ति मुझको तथा सदा रहने वाले अर्थात् पुरातन जन्म न लेने वाले सर्व लोकों के महान ईश्वर अर्थात् सर्वोंच्च परमेश्वर को जानता है वह शास्त्रों को सही जानने वाला अर्थात् वेदों के अनुसार ज्ञान रखने वाला मनुष्यों में ज्ञानवान अर्थात् तत्वदर्शी विद्वान् तत्वज्ञान के आधार से सत्य साधना करके सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है वही व्यक्ति पापों के विषय में विस्तृत वर्णन के साथ कहता है अर्थात् वही सृष्टि ज्ञान व कर्मों का सही वर्णन करता है अर्थात् अज्ञान से पूर्ण रूप से मुक्त कर देता है।
अध्याय 10 का श्लोक 4-5
बुद्धिः, ज्ञानम्, असम्मोहः, क्षमा, सत्यम्, दमः, शमः,
सुखम्, दुःखम्, भवः, अभावः, भयम्, च, अभयम्, एव, च।।
अहिंसा, समता, तुष्टिः, तपः, दानम्, यशः, अयशः,
भवन्ति, भावाः, भूतानाम्, मत्तः, एव, पृथग्विधाः।।4, 5।।
निश्चय करनेकी शक्ति यथार्थ ज्ञान असंमूढता अर्थात् अज्ञान रूप मोह से रहित क्षमा सत्य इन्द्रियोंका वशमें करना, मनका निग्रह तथा सुख-दुःख उत्पति प्रलय और भय-अभय तथा अहिंसा समता संतोष तप दान कीर्ति और अपकीर्ति प्राणियोंके नाना प्रकारके भाव नियमानुसार ही होते हैं।
अध्याय 10 का श्लोक 6
महर्षयः, सप्त, पूर्वे, चत्वारः, मनवः, तथा,
मद्भावाः, मानसाः, जाताः, येषाम्, लोके,इमाः,प्रजाः।।6।।
सात महर्षिजन चार उनसे भी पूर्व होनेवाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चैदह मनु ये मुझमें भाववाले सब के सब मेरे संकल्पसे उत्पन्न हुए हैं जिनकी संसारमें यह सम्पूर्ण प्रजा है।
अध्याय 10 का श्लोक 7
एताम्, विभूतिम्, योगम्, च, मम, यः, वेत्ति, तत्त्वतः,
सः, अविकम्पेन, योगेन, युज्यते, न, अत्र, संशयः।।7।।
जो प्राणी मेरी इस प्रकार विभूतिको और योगशक्तिको तत्वसे जानता है वह निश्चल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है इसमें संशय नहीं है।
अध्याय 10 का श्लोक 8
अहम्, सर्वस्य, प्रभवः, मत्तः, सर्वम्, प्रवर्तते,
इति, मत्वा, भजन्ते, माम्, बुधाः, भावसमन्विताः।।8।।
मैं ही सबका उत्पतिका कारण हूँ मेरे ज्ञान अनुसार सब जगत चेष्टा करता है इस प्रकार समझकर श्रद्धा और भक्तिसे युक्त ज्ञानी भक्तजन जिनको तत्वदर्शी संत नहीं मिला वे मुझे ही निरन्तर भजते हैं।
अध्याय 10 का श्लोक 9
मच्चित्ताः, म०तप्राणाः, बोधयन्तः, परस्परम्,
कथयन्तः, च, माम्, नित्यम्, तुष्यन्ति, च, रमन्ति, च।।9।।
मेरे पर आधारित प्राणी इसीको जानने वाले और मेरे में लीन मन वाले आपसमें विचार विमर्श करते हुए और नित्य संतुष्ट होते हैं तथा मुझमें लीन रहते हैं।
अध्याय 10 का श्लोक 10
तेषाम्, सततयुक्तानाम्, भजताम्, प्रीतिपूर्वकम्,
ददामि, बुद्धियोगम्, तम्, येन, माम्, उपयान्ति, ते।।10।।
उन निरन्तर ज्ञान पर विचार विमर्श में लगे हुओं तथा प्रेमपूर्वक भजनेवालों को उसी सत्र का ज्ञान योग देता हूँ जिससे वे मुझको प्राप्त होते हैं।
अध्याय 10 का श्लोक 11
तेषाम्, एव, अनुकम्पार्थम्, अहम्, अज्ञानजम्, तमः,
नाशयामि, आत्मभावस्थः, ज्ञानदीपेन, भास्वता।।11।।
मैं ही उनके ऊपर कृप्या करनेके लिये अज्ञानसे उत्पन्न अन्धकारको नष्ट करता हूँ। प्रेतवत् प्रवेश करके आत्मा की तरह शरीर में स्थापित होकर जैसे जीवात्मा बोलती है। उसी भाव से अर्थात् आत्म भाव से आत्मा में स्थित होकर ज्ञानरूप दीपक प्रकाशमय करता हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 12-13 (अर्जुन उवाच)
परम्, ब्रह्म परम्, धाम, पवित्रम्, परमम्, भवान्,
पुरुषम्, शाश्वतम्, दिव्यम्, आदिदेवम्, अजम्, विभुम्,
आहुः, त्वाम्, ऋषयः, सर्वे, देवर्षिः, नारदः, तथा,
असितः, देवलः, व्यासः, स्वयम्, च, एव, ब्रवीषि, मे।।12 - 13।।
आप परम ब्रह्म परम धाम और परम पवित्र हैं क्योंकि आपको सब ऋषिगण सनातन दिव्य पुरुष एवं देवोंका भी आदिदेव अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं वैसे ही देवर्षि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास भी कहते हैं और स्वयं आप ही मेरे लिए कहते हैं।
अध्याय 10 का श्लोक 14
सर्वम्, एतत्, ऋतम्, मन्ये, यत्, माम्, वदसि, केशव,
न, हि, ते, भगवन्, व्यक्तिम्, विदुः, देवाः, न, दानवाः।।14।।
हे केशव! जो कुछ भी मुझको आप कहते हैं इस सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्! आपके मनुष्य जैसे साकार स्वरूपको न तो दानव जानते हैं और न देवता ही।
अध्याय 10 का श्लोक 15
स्वयम्, एव, आत्मना, आत्मानम्, वेत्थ, त्वम्,
पुरुषोत्तम, भूतभावन, भूतेश, देवदेव, जगत्पते।।15।।
हे प्राणियों को उत्पन्न करनेवाले! हे प्राणियों के प्रभु! हे देवोंके देव! हे जगत्के स्वामी! हे पुरुषोतम! आप स्वयं ही अपनेसे अपनेको जानते हैं।
अध्याय 10 का श्लोक 16
वक्तुम्, अर्हसि, अशेषेण, दिव्याः, हि, आत्मविभूतयः,
याभिः, विभूतिभिः, लोकान्, इमान्,त्वम्, व्याप्य, तिष्ठसि।।16।।
क्योंकि आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियोंको सम्पूर्णतासे कहनेमें समर्थ हैं जिन विभूतियोंक द्वारा आप इन सब लोकोंको व्याप्त करके स्थित हैं।
अध्याय 10 का श्लोक 17
कथम्, विद्याम्, अहम्, योगिन्, त्वाम्, सदा, परिचिन्तयन्,
केषु, केषु, च, भावेषु, चिन्त्यः, असि, भगवन्, मया।।17।।
हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरन्तर चिन्तन करता हुआ आपको जानूँ और हे भगवन्! आप किन-किन भावोंमें मेरे द्वारा चिन्तन करनेयोग्य हैं।
अध्याय 10 का श्लोक 18
विस्तरेण, आत्मनः, योगम्, विभूतिम्, च, जनार्दन,
भूयः, कथय, तृप्तिः, हि, श्रृण्वतः, न, अस्ति, मे, अमृृतम्।।18।।
हे जनार्दन! अपनी योगशक्तिको और विभूतिको फिर भी विस्तारपूर्वक कहिये क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृृप्ति नहीं होती अर्थात् सुननेकी उत्कण्ठा बनी ही रहती है।
अध्याय 10 का श्लोक 19
(भगवान उवाच)
हन्त, ते, कथयिष्यामि, दिव्याः, हि, आत्मविभूतयः,
प्राधान्यतः, कुरुश्रेष्ठ, न, अस्ति, अन्तः, विस्तरस्य, मे।।19।।
हे कुरुश्रेष्ठ! अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियाँ हैं तेरे लिये प्रधानतासे कहूँगा क्योंकि मेरे विस्तारका अन्त नहीं है।
अध्याय 10 का श्लोक 20
अहम्, आत्मा, गुडाकेश, सर्वभूताशयस्थितः,
अहम्, आदिः, च, मध्यम्, च, भूतानाम्, अन्तः, एव, च।।20।।
हे अर्जुन! मैं सब प्राणियों में स्थित आत्मा हूँ अर्थात् आत्मा काल इशारे पर नाचती है इसलिए कहा है तथा सम्पूर्ण प्राणियों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 21
आदित्यानाम्, अहम्, विष्णुः, ज्योतिषाम्, रविः, अंशुमान्,
मरीचिः, मरुताम्, अस्मि, नक्षत्राणाम्, अहम्, शशी।।21।।
मैं अदितिके बारह पुत्रोंमें विष्णु और ज्योतियोंमें किरणोंवाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास वायुदेवताओंका तेज और नक्षत्रोंका अधिपति चन्द्रमा।
अध्याय 10 का श्लोक 22
वेदानाम्, सामवेदः, अस्मि, देवानाम्, अस्मि, वासवः,
इन्द्रियाणाम्, मनः, च, अस्मि, भूतानाम्, अस्मि, चेतना।।22।।
वेदोंमें सामवेद हूँ देवोंमें इन्द्र हूँ, इन्द्रियोंमें मन हूँ, और भूतप्राणियोंकी चेतना अर्थात् जीवनीशक्ति हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 23
रुद्राणाम्, शंकरः, च, अस्मि, वित्तेशः, यक्षरक्षसाम्,
वसूनाम्, पावकः, च, अस्मि, मेरुः, शिखरिणाम्, अहम्।।23।।
एकादश रुद्रोंमें शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसोंमें धनका स्वामी कुबेर हूँ मैं आठ वसुओंमें अग्नि हूँ और शिखरवाले पर्वतोंमें सुमेरु पर्वत।
अध्याय 10 का श्लोक 24
पुरोधसाम्, च, मुख्यम्, माम्, विद्धि, पार्थ, बृहस्पतिम्,
सेनानीनाम्, अहम्, स्कन्दः, सरसाम्, अस्मि, सागरः।।24।।
पुरोहितोंमें मुखिया बृहस्पति मुझको जान। हे पार्थ! मैं सेनापतियोंमें स्कन्द और जलाशयोंमें समुद्र हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 25
महर्षीणाम्, भृृगुः, अहम्, गिराम्, अस्मि, एकम्, अक्षरम्,
यज्ञानाम्, जपयज्ञः, अस्मि, स्थावराणाम्, हिमालयः।।25।।
मैं महर्षियोंमें भृगु और शब्दोंमें एक अक्षर अर्थात् ओंकार हूँ। सब प्रकारके यज्ञोंमें जपयज्ञ और स्थिर रहनेवालोंमें हिमालय पहाड़ हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 26
अश्वत्थः, सर्ववृृक्षाणाम्, देवर्षीणाम्, च, नारदः,
गन्धर्वाणाम्, चित्रारथः, सिद्धानाम्,कपिलः,मुनिः।।26।।
सब वृक्षोंमें पीपलका वृक्ष देवर्षियोंमें नारद मुनि, गन्धर्वोंमें चित्रारथ और सिद्धोंमें कपिल मुनि।
अध्याय 10 का श्लोक 27
उच्चैः, श्रवसम्, अश्वानाम्, विद्धि, माम्, अमृतोद्भवम्,
ऐरावतम्, गजेन्द्राणाम्, नराणाम्, च, नराधिपम्।।27।।
घोड़ोंमें अमृतके साथ उत्पन्न होनेवाला उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा, श्रेष्ठ हाथियोंमें ऐरावत नामक हाथी और मनुष्योंमें राजा मुझको जान।
अध्याय 10 का श्लोक 28
आयुधानाम्, अहम्, वज्रम्, धेनूनाम्, अस्मि, कामधुक्,
प्रजनः, च, अस्मि, कन्दर्पः, सर्पाणाम्, अस्मि, वासुकिः।।28।।
मैं शस्त्रोंमें वज्र और गौओंमें कामधेनु हूँ। शास्त्रोक्त रीतिसे सन्तानकी उत्पतिका हेतु कामदेव हूँ और सर्पोंमें सर्पराज वासुकि हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 29
अनन्तः, च, अस्मि, नागानाम्, वरुणः, यादसाम्, अहम्,
पित¤णाम्, अर्यमा, च, अस्मि, यमः, संयमताम्, अहम्।।29।।
मैं नागोंमें शेषनाग और जलचरोंका अधिपति वरुण देवता हूँ और पितरोंमें अर्यमा नामक पितर तथा शासन करनेवालोंमें यमराज मैं हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 30
प्रहलादः, च, अस्मि, दैत्यानाम्, कालः, कलयताम्, अहम्,
मृगाणाम्, च, मृगेन्द्रः, अहम्, वैनतेयः, च, पक्षिणाम्।।30।।
मैं दैत्योंमें प्रहलाद और गणना करनेवालोंका समय हूँ तथा पशुओंमें मृगराज सिंह और पक्षियोंमें मैं गरुड़।
अध्याय 10 का श्लोक 31
पवनः, पवताम्, अस्मि, रामः, शस्त्राभृताम्, अहम्,
झषाणाम्, मकरः, च, अस्मि, स्त्रोतसाम्, अस्मि, जाह्नवी।।31।।
मैं पवित्र करनेवालोंमें वायु और शस्त्रधारियोंमें श्रीराम हूँ तथा मछलियोंमें मगर हूँ और नदियोंमें गंगा हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 32
सर्गाणाम्, आदिः, अन्तः, च, मध्यम्, च, एव, अहम्, अर्जुन,
अध्यात्मविद्या, विद्यानाम्, वादः, प्रवदताम्, अहम्।।32।।
हे अर्जुन! सृष्टियोंका आदि और अन्त तथा मध्य भी मैं ही हूँ। मैं विद्याओंमें अध्यात्मविद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या और परस्पर विवाद करनेवालोंका तत्व-निर्णयके लिये किया जानेवाला वाद हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 33
अक्षराणाम्, अकारः, अस्मि, द्वन्द्वः, सामासिकस्य, च,
अहम्, एव, अक्षयः, कालः, धाता, अहम्, विश्वतोमुखः।।33।।
मैं अक्षरोंमें ओंकार हूँ और समासोंमें द्वन्द्व नाम समास हूँ, समाप्त न होने वाला काल तथा सब ओर मुखवाला विराट्स्वरूप धारण करनेवाला भी मैं ही।
अध्याय 10 का श्लोक 34
मृृत्युः, सर्वहरः, च, अहम्, उद्भवः, च, भविष्यताम्,
कीर्तिः, श्रीः, वाक्, च, नारीणाम्, स्मृृतिः, मेधा, धृृतिः, क्षमा।।34।।
मैं सबका नाश करनेवाला मृत्यु और उत्पन्न होनेवालोंका उत्पत्ति-हेतु हूँ तथा स्त्रिायोंमें कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 35
बृहत्साम, तथा, साम्नाम्, गायत्री, छन्दसाम्, अहम्,
मासानाम्, मार्गशीर्षः, अहम्, ऋतूनाम्, कुसुमाकरः।।35।।
तथा गायन करनेयोग्य श्रूतियोंमें मैं बृहत्साम और छन्दोंमें गायत्री छन्द हूँ तथा महीनोंमें मार्गशीर्ष और ऋतुओंमें वसन्त मैं।
अध्याय 10 का श्लोक 36
द्यूतम्, छलयताम्, अस्मि, तेजः, तेजस्विनाम्, अहम्,
जयः, अस्मि, व्यवसायः, अस्मि, सत्वम्, सत्ववताम्, अहम्।।36।।
मैं छल करनेवालोंमें जूआ और प्रभावशाली पुरुषोंका प्रभाव हूँ। मैं विजय हूँ। निश्चय और सात्त्विक पुरुषोंका सात्त्विक भाव हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 37
वृष्णीनाम्, वासुदेवः, अस्मि, पाण्डवानाम्, धनजयः,
मुनीनाम्, अपि, अहम्, व्यासः, कवीनाम्, उशना, कविः।।37।।
वृृष्णिवंशियोंमें वासुदेव अर्थात् मैं स्वयं तेरा सखा पाण्डवोंमें धन×जय अर्थात् तू, मुनियोंमें वेदव्यास और कवियोंमें शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूँ।
अध्याय 10 का श्लोक 38
दण्डः, दमयताम्, अस्मि, नीतिः, अस्मि, जिगीषताम्,
मौनम्, च, एव, अस्मि, गुह्यानाम्, ज्ञानम्, ज्ञानवताम्, अहम्।।38।।
दमन करनेवालोंका दण्ड अर्थात् दमन करनेकी शक्ति हूँ, जीतनेकी इच्छावालोंकी नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य भावोंका रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानोंका ज्ञान मैं ही।
अध्याय 10 का श्लोक 39
यत्, च, अपि, सर्वभूतानाम्, बीजम्, तत्, अहम्, अर्जुन,
न, तत्, अस्ति, विना, यत्, स्यात्, मया भूतम्, चराचरम्।।39।।
और हे अर्जुन! जो सब प्राणियोंकी उत्पत्तिका कारण है, वह भी मैं ही हूँ क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी प्राणी नहीं है, जो मुझसे रहित हो।
अध्याय 10 का श्लोक 40
न, अन्तः, अस्ति, मम, दिव्यानाम्, विभूतीनाम्, परन्तप,
एषः, तु, उद्देशतः, प्रोक्तः, विभूतेः, विस्तरः, मया।।40।।
हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है मैंने अपनी विभूतियोंका यह विस्तार तो तेरे लिये एकदेशसे अर्थात् संक्षेपसे कहा है।
अध्याय 10 का श्लोक 41
यत्, यत्, विभूतिमत्, सत्वम्, श्रीमत्, ऊर्जितम्, एव, वा,
तत्, तत्, एव अवगच्छ, त्वम्, मम्, तेजोंऽशसम्भवम्।। 41।।
जो जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त उच्च नियमित विचार और शक्तियुक्त वस्तु है उस उसको तू मेरे तेजके अंशकी ही अभिव्यक्ति जान।
अध्याय 10 का श्लोक 42
अथवा, बहुना, एतेन, किम्, ज्ञातेन्, तव, अर्जुन,
विष्टभ्य, अहम्, इदम्, कृृत्स्न्नम्, एकांशेन, स्थितः, जगत्।।42।।
अथवा हे अर्जुन! इसे बहुत जाननेसे तेरा क्या प्रयोजन है मैं इस सम्पूर्ण जगतको अपनी योगशक्तिके एक अंशमात्रसे धारण करके स्थित हूँ।
Chapter 10 Of Bhagwat Geeta