Chapter 12 of the Bhagavad Gita is titled "Bhakti Yog" or the "Yoga of Devotion." In this chapter, Lord Krishna elaborates on the path of devotion and its various aspects. Here's an overview:
1. **Types of Devotion**: Krishna begins by discussing the different types of devotees who worship him. He describes four types: those who seek the personal form of God, those who worship the formless aspect of God, those who worship through rituals and ceremonies, and those who serve all beings as a form of worship.
2. **The Superiority of Devotion**: Krishna explains that the path of devotion is superior to other paths like meditation and knowledge. Devotees who offer love and surrender to God find his grace and attain liberation.
3. **Qualities of Devotees**: Krishna describes the qualities of true devotees, including humility, patience, forgiveness, non-enmity, compassion, and freedom from possessiveness. He assures that those who possess these qualities are dear to him.
4. **The Need for Surrender**: Krishna emphasizes the importance of surrendering all actions and desires to God. He assures Arjuna that those who surrender to him with unwavering faith are protected by his divine grace.
5. **The Nature of God**: Krishna describes his attributes as the supreme being, who is impartial, compassionate, and present in all beings. He explains that those who realize his divine nature attain liberation from the cycle of birth and death.
6. **The Practice of Devotion**: Krishna advises Arjuna to practice devotion with dedication and consistency, focusing his mind and heart on God. He assures Arjuna that even those who are unable to meditate or perform rituals can attain liberation through sincere devotion.
7. **The Benefits of Devotion**: Krishna explains the benefits of devotion, including inner peace, divine grace, and eventual liberation. He assures Arjuna that those who worship him with love and devotion are always protected and guided by him.
8. **Krishna's Assurance**: Krishna concludes by reassuring Arjuna of his divine presence and support. He encourages Arjuna to surrender to him completely and promises to guide him on the path of righteousness and liberation.
In summary, Chapter 12 of the Bhagavad Gita elaborates on the path of devotion (bhakti yoga) as a means to attain spiritual growth and liberation. It emphasizes the qualities of true devotees, the need for surrender to God, and the benefits of practicing devotion with sincerity and dedication.
अध्याय 12 का श्लोक 1
(अर्जुन उवाच)
एवम्, सततयुक्ताः, ये, भक्ताः, त्वाम्, पर्युपासते,
ये, च, अपि, अक्षरम्, अव्यक्तम्, तेषाम्, के, योगवित्तमाः।।1।।
जो भक्तजन पूर्र्वोंक्त प्रकारसे निरंन्तर आपके भजन-ध्यानमें लगे रहकर आप और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन अदृश को भी अतिश्रेष्ठ भावसे भजते हैं उन दोनों प्रकारके उपासकोंमें अति उत्तम योगवेता अर्थात् यथार्थ रूप से भक्ति विधि को जानने वाला कौन हैं?
अध्याय 12 का श्लोक 2
(भगवान उवाच)
मयि, आवेश्य, मनः, ये, माम्, नित्ययुक्ताः, उपासते,
श्रद्धया, परया, उपेताः, ते, मे, युक्ततमाः, मताः।।2।।
मुझमें मनको एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन ध्यानमें लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे युक्त होकर मुझे भजते हैं, वे मुझको साधकों में अति उत्तम मान्य है ये मेरे विचार हैं।
अध्याय 12 का श्लोक 3-4
ये, तु, अक्षरम्, अनिर्देश्यम्, अव्यक्तम्, पर्युपासते,
सर्वत्रगम्, अचिन्त्यम्, च, कूटस्थम्, अचलम्, ध्रुवम्।।3।।
सन्नियम्य, इन्द्रियग्रामम्, सर्वत्र, समबुद्धयः,
ते, प्राप्नुवन्ति, माम्, एव, सर्वभूतहिते, रताः।।4।।
परंतु जो इन्द्रियोंके समुदायको भली प्रकारसे वशमें करके मन-बुद्धिसे परे, अर्थात् तत्वज्ञान के अभाव से सर्वव्यापी और सदा एकरस रहनेवाले नित्य अचल अदृश अविनाशी परमात्मा को शास्त्रों के निर्देश के विपरीत अर्थात् शास्त्रविधि त्यागकर निरंतर एकीभावसे ध्यान करते हुए भजते हैं वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत और सबमें समानभाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।
अध्याय 12 का श्लोक 5
क्लेशः, अधिकतरः, तेषाम्, अव्यक्तासक्तचेतसाम्,
अव्यक्ता, हि, गतिः, दुःखम्, देहवद्भिः, अवाप्यते।।5।।
उन अदृश ब्रह्म में आसक्तचित्तवाले पुरुषोंके साधनमें वाद-विवाद रूपी क्लेश अर्थात् कष्ट विशेष है क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है।
विशेष:-- इस श्लोक 5 में क्लेश अर्थात् कष्ट का भार्वाथ है कि पूर्ण परमात्मा की साधना मन के आनन्द से विपरित चल कर की जाती है। मन चाहता है शराब पीना, तम्बाखु पीना, मांस खाना, नाचना, गाना आदि इन को त्यागना ही क्लेश कहा है। परमेश्वर की भक्ति विधि का यथार्थ ज्ञान न होने के कारण आपस में वाद-विवाद करके दुःखी रहते हैं। एक दूसरे से अपने ज्ञान को श्रेष्ठ मानकर अन्य से इर्षा करते है जिस कारण से क्लेश होता है।
अध्याय 12 का श्लोक 6
ये, तु, सर्वाणि, कर्माणि, मयि, सóयस्य, मत्पराः,
अनन्येन, एव, योगेन, माम्, ध्यायन्तः, उपासते।।6।।
परंतु जो मतावलम्बी मेरे परायण रहनेवाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मोंको मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वरको ही अनन्य भक्तियोगसे निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं।
अध्याय 12 का श्लोक 7
तेषाम्, अहम्, समुद्धत्र्ता, मृत्युसंसारसागरात्,
भवामि, नचिरात्, पार्थ, मयि, आवेशितचेतसाम्।।7।।
हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसारसमुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ।
अध्याय 12 का श्लोक 8
मयि, एव, मनः, आधत्स्व, मयि, बुद्धिम् निवेशय,
निवसिष्यसि, मयि, एव, अतः, ऊध्र्वम्, न, संशयः।।8।।
मुझमें मनको लगा और मुझमें ही बुद्धिको लगा इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा इसमें कुछ भी संश्य नहीं है।
अध्याय 12 का श्लोक 9
अथ, चित्तम्, समाधातुम्, न, शक्नोषि, मयि, स्थिरम्,
अभ्यासयोगेन, ततः, माम्, इच्छ, आप्तुम्, धनंजय।। 9।।
यदि तू मनको मुझमें अचल स्थापन करनेके लिये समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप योगके द्वारा मुझको प्राप्त होनेके लिए इच्छा कर।
अध्याय 12 का श्लोक 10
अभ्यासे, अपि, असमर्थः, असि, मत्कर्मपरमः, भव,
मदर्थम्, अपि, कर्माणि, कुर्वन्, सिद्धिम्, अवाप्स्यसि।।10।।
अभ्यासमें भी असमर्थ है तो केवल मेरे प्रति शास्त्रानुकूल शुभ कर्म करने वाला हो मेरे लिए कर्मोंको करता हुआ भी सिद्धि अर्थात् उद्देश्यको प्राप्त होगा।
अध्याय 12 का श्लोक 11
अथ, एतत्, अपि, अशक्तः, असि, कर्तुम्, मद्योगम्, आश्रितः,
सर्वकर्मफलत्यागम्, ततः, कुरु, यतात्मवान्।।11।।
यदि मेरे मतानुसार कर्म योगके आश्रित होकर उपर्युक्त साधनको करनेमें भी तू असमर्थ है तो प्रयत्नशील हो कर सब कर्मोंके फलका त्याग कर।
अध्याय 12 का श्लोक 12
श्रेयः, हि, ज्ञानम्, अभ्यासात्, ज्ञानात्, ध्यानम्, विशिष्यते,
ध्यानात्, कर्मफलत्यागः, त्यागात्, शान्तिः, अनन्तरम्।।12।।
तत्वज्ञान के अभाव से शास्त्रविधि को त्याग कर मनमाने अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है शास्त्रों में वर्णित साधना न करके केवल ज्ञान ही ग्रहण करके विद्वान प्रसिद्ध होने वाले के ज्ञानसे सहज ध्यान अर्थात् सहज समाधि श्रेष्ठ है और ध्यानसे भी कर्मोंके फल का त्याग करके नाम जाप करना श्रेष्ठ है क्योंकि कर्म फल त्याग कर भक्ति करने के कारण उस त्याग से तत्काल ही शान्ति होती है।
अध्याय 12 का श्लोक 13-14
अद्वेष्टा, सर्वभूतानाम्, मैत्रः, करुणः, एव, च,
निर्ममः, निरहंकारः, समदुःखसुखः, क्षमी।।13।।
सन्तुष्टः, सततम्, योगी, यतात्मा, दृढनिश्चयः,
मयि, अर्पितमनोबुद्धिः, यः, मद्भक्तः, सः, मे, प्रियः।।14।।
जो सब प्राणियों में द्वेष-भावसे रहित प्रेमी और दयालु है तथा ममतासे रहित अहंकारसे रहित सुख दुःख में सम और क्षमावान् हैं वह योगी निरन्तर संतुष्ट है। निर्विकारी अर्थात् मन-इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें किये हुए है दृढ़ निश्चयवाला है वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला नियमानुसार भक्ति करने वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।
अध्याय 12 का श्लोक 15
यस्मात्, न, उद्विजते, लोकः, लोकात्, न, उद्विजते, च, यः,
हर्षामर्षभयोद्वेगैः, मुक्तः, यः, सः, च, मे, प्रियः।।15।।
जिससे कोई भी जीव उद्वेगको प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीवसे उद्वेगको प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष भय और उद्वेगादिसे रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है।
अध्याय 12 का श्लोक 16
अनपेक्षः, शुचिः, दक्षः, उदासीनः, गतव्यथः,
सर्वारम्भपरित्यागी, यः, मद्भक्तः, सः, मे, प्रियः।।16।।
जो आकांक्षासे रहित बाहर-भीतरसे शुद्ध चतुर पक्षपातसे रहित और दुःखोंसे छूटा हुआ है वह सब आरम्भोंका त्यागी अर्थात् जिसने शास्त्रविधि विरूद्ध भक्ति कर्म आरम्भ कर रखे थे। उनको त्यागकर शास्त्रविधि अनुसार करने वाला मतानुसार मेरा भक्त मुझको प्रिय है।
अध्याय 12 का श्लोक 17
यः, न, हृष्यति, न, द्वेष्टि, न, शोचति, न, काङ्क्षति,
शुभाशुभपरित्यागी, भक्तिमान्, यः, सः, मे, प्रियः।।17।।
जो न हर्षित होता है न द्वेष करता है न शोक करता है न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मोंका त्यागी है वह भक्तियुक्त मुझको प्रिय है।
अध्याय 12 का श्लोक 18
समः, शत्रौ, च, मित्रो, च, तथा, मानापमानयोः,
शीतोष्णसुखदुःखेषु, समः, संगविवर्जितः।।18।।
शत्रु-मित्रमें और मान-अपमानमें सम है तथा सर्दी गर्मी और सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंमें सम है और आसक्तिसे रहित है।
अध्याय 12 का श्लोक 19
तुल्यनिन्दास्तुतिः, मौनी, सन्तुष्टः, येन, केनचित्,
अनिकेतः, स्थिरमतिः, भक्तिमान्, मे, प्रियः, नरः।।19।।
निन्दा स्तुति को समान समझनेवाला मननशील और जिस किसी प्रकारसे संतुष्ट है और ममता और आसक्तिसे रहित है वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान् मनुष्य मुझको प्रिय है।
अध्याय 12 का श्लोक 20
ये, तु, धम्र्यामृतम्, इदम्, यथा, उक्तम्, पर्युपासते,
श्रद्दधानाः, मत्परमाः, भक्ताः, ते, अतीव, मे, प्रियाः।।20।।
परंतु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे से उत्तम परमात्मा को शास्त्रानुकूल साधना के परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृतको पूर्ण श्रद्धा से पूजा अर्थात् उपासना करते हैं वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं।
Chapter 12 Of Bhagwat Geeta