Chapter 16 of the Bhagavad Gita is titled "Daivasura Sampad Vibhaga Yoga" or "The Yoga of the Division between the Divine and the Non-Divine." In this chapter, Lord Krishna describes the characteristics of divine and demonic natures, outlining the qualities that lead to spiritual elevation and those that lead to degradation. Here is a summary of the key teachings from Bhagavad Gita Chapter 16:
1. **Divine Qualities:** Lord Krishna lists several virtuous qualities that characterize divine beings. These include fearlessness, purity of heart, self-restraint, charity, truthfulness, absence of anger, renunciation, tranquility, absence of malice, compassion, and absence of covetousness.
2. **Demonic Qualities:** Krishna also describes the traits of demonic beings, which are antithetical to the divine qualities. These include hypocrisy, arrogance, self-conceit, harshness, anger, ignorance, and attachment to worldly desires. Those possessing these qualities are deluded and lead themselves to destruction.
3. **Importance of Virtuous Conduct:** Krishna emphasizes the importance of cultivating divine qualities and avoiding demonic traits. By adhering to virtuous conduct and righteous behavior, individuals elevate themselves spiritually and progress towards liberation.
4. **Consequences of Actions:** Lord Krishna explains that individuals are responsible for their actions and their consequences. Those who engage in virtuous deeds attain happiness and liberation, while those who follow the path of unrighteousness face suffering and bondage.
5. **Discriminating between Divine and Demonic:** Krishna advises Arjuna to discern between the divine and demonic qualities and to strive for spiritual growth by cultivating virtuous traits. By aligning oneself with divine qualities and renouncing demonic tendencies, one can attain spiritual enlightenment and liberation.
Bhagavad Gita Chapter 16 provides valuable insights into the nature of virtue and vice, outlining the qualities that lead to spiritual evolution and those that lead to degradation. It underscores the importance of self-awareness, righteous conduct, and discrimination in the pursuit of spiritual growth and liberation.
वशेष:- श्लोक 1 से 3 तक में उन पुण्यात्माओं का विवरण है जो पिछले मानव जन्मों में वेदों अनुसार अर्थात् शास्त्र अनुकूल साधना करते हुए आ रहे हैं, जो अपनी साधना ब्रह्म के ओ3म् मंत्र से ही करते थे, आन उपासना नहीं करते थे। फिर भी तत्वदर्शी संत (जो गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है) के अभाव से यह भी व्यर्थ है।
अध्याय 16 का श्लोक 1
अभयम्, सत्त्वसंशुद्धिः, ज्ञानयोगव्यवस्थितिः,
दानम्, दमः, च, यज्ञः, च, स्वाध्यायः, तपः, आर्जवम्।।1।।
निर्भय अन्तःकरणकी पूर्ण निर्मलता ज्ञानी और दान संयम यज्ञ करनेसे धार्मिक शास्त्रों पठन पाठन भक्ति मार्ग में कष्ट सहना रूपी तप और आधीनता।
अध्याय 16 का श्लोक 2
अहिंसा, सत्यम्, अक्रोधः, त्यागः, शान्तिः, अपैशुनम्,
दया, भूतेषु, अलोलुप्त्वम्, मार्दवम्, ह्री, अचापलम्।।2।।
मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकार भी किसीको कष्ट न देना सत्यवादी अपना अपकार करनेवालेपर भी क्रोधका न होना परमात्मा के लिए सिर भी सौंप दे अन्तःकरणकी उपरति अर्थात् चितकी चंचलताका अभाव निन्दादि न करना प्राणियोंमें दया निर्विकार कोमलता बुरे कर्मों में लज्जा चापलूसी रहित।
अध्याय 16 का श्लोक 3
तेजः, क्षमा, धृतिः, शौचम्, अद्रोहः, नातिमानिता,
भवन्ति, सम्पदम्, दैवीम्, अभिजातस्य, भारत।।3।।
तेज क्षमा धैर्य शुद्धि निर्वैरी और अपनेआप को नहीं पूजवावै हे अर्जुन! भक्ति भावको लेकर उत्पन्न हुए पुरुषके लक्षण होते हैं।
विशेष:- श्लोक 4 से 20 तक उन व्यक्तियों के लक्षणों का वर्णन है जो पहले कभी मानव शरीर में थे तब भी शास्त्र विधि अनुसार साधना नहीं की। फिर अन्य योनियों व नरक आदि में तथा क्षणिक सुख स्वर्ग आदि का भोग कर फिर मानव शरीर में आते हैं तो भी स्वभाववश वैसी ही साधना व विकारों में आरुढ़ रहते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 4
दम्भः, दर्पः, अभिमानः, च, क्रोधः, पारुष्यम्, एव, च,
अज्ञानम्, च, अभिजातस्य, पार्थ, सम्पदम्, आसुरीम्,।।4।।
हे पार्थ! पााखण्ड घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध कठोरता और अज्ञान वास्तव में ये सब राक्षसी सम्पदाके सहित उत्पन्न हुए पुरुषके लक्षण हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 5
दैवी, सम्पत्, विमोक्षाय, निबन्धाय, आसुरी, मता,
मा, शुचः, सम्पदम्, दैवीम्, अभिजातः, असि, पाण्डव।।5।।
संत लक्षण मुक्ति के लिये और आसुरी सम्पदा बाँधनेके लिये मानी गयी है। इसलिये हे अर्जुन! तू शोक मत कर क्योंकि तू भक्तिभावको लेकर उत्पन्न हुआ है।
अध्याय 16 का श्लोक 6
द्वौ, भूतसर्गौ, लोके, अस्मिन्, दैवः, आसुरः, एव, च,
दैवः, विस्तरशः, प्रोक्तः, आसुरम्, पार्थ, मे, श्रृणु।।6।।
हे अर्जुन! इस लोकमें प्राणियोंकी सृष्टि दो ही प्रकारकी है एक तो संत-स्वभाव वाला और दूसरा राक्षसी-स्वभाव वाला उनमेंसे संत स्वभाव वालों का विस्तारपूर्वक विवरण पहले कहा गया अब तू राक्षसी-स्वभाव वाले मुझसे सुन।
अध्याय 16 का श्लोक 7
प्रवृत्तिम्, च, निवृत्तिम्, च, जनाः, न, विदुः, आसुराः,
न, शौचम्, न, अपि, च, आचारः, न, सत्यम्, तेषु, विद्यते।।7।।
आसुर-स्वभाववाले मनुष्य अर्थात् चाहे वे संत कहलाते हैं, चाहे उनके शिष्य या स्वयं शास्त्र विधि रहित साधना करने वाले व्यक्ति प्रवृति और निवृति इन दोनांेको भी नहीं जानते इसलिये उनमें न तो अंतर भीतरकी शुद्धि है न श्रेष्ठ आचरण है और सच्चाई भी नहीं जानी जाती है।
विशेष:- गीता अध्याय 15 श्लोक 15 तथा अध्याय 9 श्लोक 17 में वेद्यः या वेद्यम् का अर्थ जानना किया है।
अध्याय 16 का श्लोक 8
असत्यम्, अप्रतिष्ठम्, ते, जगत्, आहुः, अनीश्वरम्,
अपरस्परसम्भूतम्, किम्, अन्यत्, कामहैतुकम्।।8।।
वे आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत् अवस्थारहित सर्वथा असत्य और बिना ईश्वरके अपने-आप केवल नर-मादाके संयोगसे उत्पन्न है केवल काम अर्थात् सैक्स ही इसका कारण है इसके सिवा और क्या है। ऐसी धारणा वाले प्राणी राक्षस स्वभाव के होते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 9
एताम्, दृष्टिम्, अवष्टभ्य, नष्टात्मानः, अल्पबुद्धयः,
प्रभवन्ति, उग्रकर्माणः, क्षयाय, जगतः, अहिताः।।9।।
इस अपने दृष्टि कोण से मिथ्या ज्ञानको अवलम्बन करके नाशात्मा जिनकी बुद्धि मन्द है वे सबका अपकार करनेवाले भयंकर कर्म करने वाले क्रूरकर्मी जगत्के नाशके लिये ही उत्पन्न होते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 10
कामम्, आश्रित्य, दुष्पूरम्, दम्भमानमदान्विताः,
मोहात्, गृहीत्वा, असद्ग्राहान्, प्रवर्तन्ते, अशुचिव्रताः।।10।।
दम्भ, मान और मदसे युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होनेवाली कामनाओंका आश्रय लेकर अज्ञानसे मिथ्या शास्त्र विरुद्ध सिद्धान्तोंको ग्रहण करके और भ्रष्ट आचरणोंको धारण करके संसार में विचरते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 11
चिन्ताम्, अपरिमेयाम्, च, प्रलयान्ताम्, उपाश्रिताः,
कामोपभोगपरमाः, एतावत्, इति, निश्चिताः।।11।।
मृत्युपर्यन्त रहनेवाली असंख्य चिन्ताओंका आश्रय लेनेवाले विषयभोगोंके भोगनेमें तत्पर रहनेवाले और इतना ही सुख है इस प्रकार माननेवाले होते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 12
आशापाशशतैः, बद्धाः, कामक्रोधपरायणाः,
ईहन्ते, कामभोगार्थम्, अन्यायेन, अर्थस×चयान्।। 12।।
आशाकी सैकड़ों फाँसियोंसे बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोधके परायण होकर विषय-भोगोंके लिये अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थाेको संग्रह करनेकी चेष्टा करते रहते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 13
इदम्, अद्य, मया, लब्धम्, इमम्, प्राप्स्ये, मनोरथम्,
इदम्, अस्ति, इदम्, अपि, मे, भविष्यति, पुनः, धनम्।।13।।
मैंने आज यह प्राप्त कर लिया और अब इस मनोरथको प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जाऐगा।
अध्याय 16 का श्लोक 14
असौ, मया, हतः, शत्रुः, हनिष्ये, च, अपरान्, अपि,
ईश्वरः, अहम्, अहम्, भोगी, सिद्धः, अहम्, बलवान्, सुखी।।14।।
वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओंको भी मैं मार डालूँगा। मैं ईश्वर हूँ ऐश्वर्यको भोगनेवाला हूँ। मैं सब सिद्धियोंसे युक्त हूँ और बलवान् तथा सुखी हूँ।
अध्याय 16 का श्लोक 15-16
आढ्यः, अभिजनवान्, अस्मि, कः, अन्यः, अस्ति, सदृशः, मया,
यक्ष्ये, दास्यामि, मोदिष्ये, इति, अज्ञानविमोहिताः।।15।।
अनेकचितविभ्रान्ताः, मोहजालसमावृताः,
प्रसक्ताः, कामभोगेषु, पतन्ति, नरके, अशुचै।।16।।
बड़ा धनी और बड़े कुटुम्बवाला या अधिक शिष्यों वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है मैं यज्ञ करूँगा दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञानसे मोहित रहनेवाले तथा अनेक प्रकारसे भ्रमित चितवाले मोहरूप जालसे समावृत और विषयभोगोंमें अत्यन्त आसक्त आसुरलोग महान् अपवित्र नरकमें गिरते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 17
आत्सम्भाविताः, स्तब्धाः, धनमानमदान्विताः,
यजन्ते, नामयज्ञैः, ते, दम्भेन, अविधिपूर्वकम्।।17।।
वे अपनेआपको ही श्रेष्ठ माननेवाले गंदे स्वभाव पर अडिग धन और मानके मदसे युक्त होकर नाममात्रके यज्ञोंद्वारा अर्थात् मनमानी भक्ति द्वारा पाखण्डसे शास्त्र विधि रहित पूजन करते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 18
अहंकारम्, बलम्, दर्पम्, कामम्, क्रोधम्, च, संश्रिताः,
माम्, आत्मपरदेहेषु, प्रद्विषन्तः, अभ्यसूयकाः।।18।।
अहंकार बल घमण्ड कामना और क्रोधादिके परायण और दूसरोंकी निन्दा करनेवाले प्रत्येक शरीर में परमात्मा आत्मा सहित तथा मुझसे द्वेष करनेवाले होते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 19
तान् अहम्, द्विषतः, क्रूरान्, संसारेषु, नराधमान्,
क्षिपामि, अजस्त्राम्, अशुभान्, आसुरीषु, एव, योनिषु।।19।।
मैं उन द्वेष करनेवाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमोंको वास्तव में संसारमें बार-बार आसुरी योनियोंमें डालता हूँ।
अध्याय 16 का श्लोक 20
आसुरीम्, योनिम्, आपन्नाः, मूढाः, जन्मनि, जन्मनि,
माम् अप्राप्य, एव, कौन्तेय, ततः, यान्ति, अधमाम्, गतिम्।।20।।
हे अर्जुन! वे मुर्ख मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म जन्ममें आसुरी योनिको प्राप्त होते हैं फिर उससे भी अति नीच गतिको प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकोंमें पड़ते हैं।
विशेष:- उपरोक्त मंत्र 6 से 20 तक का विवरण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 तक तथा अध्याय 9 श्लोक 21 से 25 में भी है।
अध्याय 16 का श्लोक 21
त्रिविधम्, नरकस्य, इदम्, द्वारम्, नाशनम्, आत्मनः,
कामः क्रोधः, तथा, लोभः, तस्मात्, एतत्, त्रयम्, त्यजेत्।।21।।
काम क्रोध तथा लोभ ये तीन प्रकारके नरकके द्वार आत्माका नाश करनेवाले अर्थात् आत्मघाती हैं। अतएव इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।
अध्याय 16 का श्लोक 22
एतैः, विमुक्तः, कौन्तेय, तमोद्वारैः, त्रिभिः, नरः,
आचरति, आत्मनः, श्रेयः, ततः, याति, पराम्, गतिम्।।22।।
हे अर्जुन! इन तीनों नरकके द्वारोंसे मुक्त पुरुष आत्मा के कल्याणका आचरण करता है इससे वह परम गतिको जाता है अर्थात् पूर्ण परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
अध्याय 16 का श्लोक 23
यः, शास्त्रविधिम्, उत्सृज्य, वर्तते, कामकारतः,
न, सः, सिद्धिम्, अवाप्नोति, न, सुखम्, न, पराम्, गतिम्।।23।।
जो पुरुष शास्त्रविधिको त्यागकर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है वह न सिद्धिका प्राप्त होता है न परम गतिको और न सुखको ही।
अध्याय 16 का श्लोक 24
तस्मात्, शास्त्राम्, प्रमाणम्, ते, कार्याकार्यव्यवस्थितौ,
ज्ञात्वा, शास्त्रविधानोक्तम्, कर्म, कर्तुम्, इह, अर्हसि।।24।।
इससे तेरे लिये कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है इसे जानकर शास्त्रविधिसे नियत कर्म ही करने योग्य है।
Chapter 16 Of Bhagwat Geeta