Chapter 6 of the Bhagavad Gita is titled "Dhyana Yoga" or the "Yoga of Meditation." In this chapter, Lord Krishna imparts teachings to Arjuna about the practice of meditation and the disciplines required to attain spiritual enlightenment. Here's a brief summary of Chapter 6:
1. **Introduction to Meditation**: Krishna introduces the practice of meditation to Arjuna, explaining that it is the means to control the mind and attain union with the divine.
2. **The Importance of Self-Discipline**: Krishna emphasizes the importance of self-discipline in the practice of meditation. He explains that one must control the mind and senses through consistent practice and detachment from worldly distractions.
3. **The Qualities of a True Yogi**: Krishna describes the qualities of a true yogi, including equanimity, self-control, and unwavering devotion to the divine. Such a yogi remains unaffected by the dualities of pleasure and pain, success and failure.
4. **The Practice of Ashtanga Yoga**: Krishna outlines the eight-fold path of yoga, known as Ashtanga Yoga, which includes moral principles (yamas and niyamas), physical postures (asanas), breath control (pranayama), sense withdrawal (pratyahara), concentration (dharana), meditation (dhyana), and absorption (samadhi).
5. **The Role of the Mind**: Krishna explains that the mind can be both a friend and an enemy. When disciplined through meditation, the mind becomes a powerful tool for self-realization. However, if left uncontrolled, it can lead to bondage and suffering.
6. **The Practice of Meditation**: Krishna describes the process of meditation, advising Arjuna to find a quiet place, sit in a comfortable posture, and focus the mind on a single point, such as the breath or the divine. Through consistent practice and detachment, one can attain inner peace and realization of the true self.
7. **The Supreme Goal of Yoga**: Krishna reveals that the ultimate goal of yoga is to attain union with the divine, known as samadhi. In this state of profound meditation, the individual consciousness merges with the universal consciousness, leading to liberation from the cycle of birth and death.
In summary, Chapter 6 of the Bhagavad Gita provides guidance on the practice of meditation and the disciplines required to attain spiritual enlightenment. It emphasizes the importance of self-discipline, control of the mind and senses, and unwavering devotion to the divine on the path to self-realization and liberation.
अध्याय 6 का श्लोक 1
अनाश्रितः, कर्मफलम्, कार्यम्, कर्म, करोति, यः,
सः, सन्यासी, च, योगी, च, न, निरग्निः, न, च, अक्रियः।।1।।
हिन्दी: जो साधक कर्मफलका आश्रय न लेकर शास्त्र विधि अनुसार करनेयोग्य भक्ति कर्म करता है वह सन्यासी अर्थात् शास्त्र विरुद्ध साधना कर्मों को त्यागा हुआ व्यक्ति तथा योगी अर्थात् भक्त है और वासना रहित नहीं है तथा केवल एक स्थान पर बैठ कर विशेष आसन आदि लगा कर लोक दिखावा करके क्रियाओंका त्याग करने वाला भी योगी नहीं है। भावार्थ है कि जो हठ योग करके दम्भ करता है मन में विकार है, ऊपर से निष्क्रिय दिखता है वह न सन्यासी है, न ही कर्मयोगी अर्थात् भक्त है।
अध्याय 6 का श्लोक 2
यम्, सन्यासम्, इति, प्राहुः, योगम्, तम्, विद्धि पाण्डव,
न, हि, असन्यस्तसङ्कल्पः, योगी, भवति, कश्चन।।2।।
हिन्दी: हे अर्जुन! जिसको सन्यास ऐसा कहते हैं उस भक्ति ज्ञान योग को जान क्योंकि संकल्पोंका त्याग न करनेवाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।
गरीब, एक नारी त्याग दीन्हीं, पाँच नारी गैल बे।
पाया न द्वारा मुक्ति का, सुखदेव करी बहु सैल बे।।
भावार्थ है कि एक पत्नी को त्याग कर सन्यास प्रस्त हो गए परंतु पाँच विकार(काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) रूपी पत्नियाँ साथ ही हैं अर्थात् संकल्प अभी भी रहे, ये त्यागो, तब सन्यासी होवोगे। जैसे सुखदेव जी सन्यासी बन कर बहुत फिरा परंतु मान-बड़ाई नहीं त्यागी जिसके कारण विफल रहा।
अध्याय 6 का श्लोक 3
आरुरुक्षोः, मुनेः, योगम्, कर्म, कारणम्, उच्यते,
योगारूढस्य, तस्य, एव, शमः, कारणम्, उच्यते।।3।।
हिन्दी: योग अर्थात् भक्ति में आरूढ़ होनेकी इच्छावाले मननशील साधकके लिये शास्त्र अनुकूल भक्ति कर्म करना ही हेतु अर्थात् भक्ति का उद्देश्य कहा जाता है उस भक्ति में संलग्न साधकका जो सर्वसंकल्पोंका अभाव है वही वास्तव में भक्ति करने का कारण अर्थात् हेतु कहा जाता है।
अध्याय 6 का श्लोक 4
यदा, हि, न, इन्द्रियार्थेषु, न, कर्मसु, अनुषज्जते,
सर्वसङ्कल्पसन्यासी, योगारूढः, तदा, उच्यते।।4।।
हिन्दी: जिस समयमें न तो इन्द्रियोंके भोगोंमें और न कर्मोंमें ही आसक्त होता है उस स्थितिमें सर्वसंकल्पोंका त्यागी पुरुष वास्तव में भक्ति में दृढ़ निश्चय से संलग्न कहा जाता है।
अध्याय 6 का श्लोक 5
उद्धरेत्, आत्मना, आत्मानम्, न, आत्मानम्, अवसादयेत्,
आत्मा, एव, हि, आत्मनः, बन्धुः, आत्मा, एव, रिपुः, आत्मनः।।5।।
हिन्दी: पूर्ण परमात्मा जो आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है के तत्वज्ञान को ध्यान में रखते हुए शास्त्र अनुकूल साधना से अपने द्वारा अपनी आत्माका उद्धार करे और अपनेको बर्बाद न करे क्योंकि शास्त्र अनुकूल साधक को पूर्ण परमात्मा विशेष लाभ प्रदान करता है वही प्रभु आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है, इसलिए वह आत्म रूप परमात्मा वास्तव में आत्माका मित्र है और शास्त्र विधि को त्याग कर मनमाना आचरण करने से जीवात्मा वास्तव में स्वयं का शत्रु है।
अध्याय 6 का श्लोक 6
बन्धुः, आत्मा, आत्मनः, तस्य, येन, आत्मा, एव, आत्मना, जितः,
अनात्मनः, तु, शत्रुत्वे, वर्तेत, आत्मा, एव, शत्रुवत्।।6।।
हिन्दी: जो आत्मा शास्त्रानुकूल साधना करता है उसका पूर्ण परमात्मा ही साथी है जिस कारण से वास्तव में शास्त्र अनुकूल साधक की आत्मा के साथ पूर्ण परमात्मा की शक्ति विशेष कार्य करती है जैसे बिजली का कनेक्शन लेने पर मानव शक्ति से न होने वाले कार्य भी आसानी से हो जाते हैं। ऐसे पूर्ण परमात्मा से जीवात्मा की विजय होती है अर्थात् सर्व कार्य सिद्ध तथा सर्व सुख प्राप्त होता है तथा परमगति को अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है तथा मन व इन्द्रियों पर भी वही विजय प्राप्त करता है। परन्तु इसके विपरीत जो शास्त्र अनुकूल साधना नहीं करते उनकी आत्मा को पूर्ण प्रभु का विशेष सहयोग प्राप्त नहीं होता, वह केवल कर्म संस्कार ही प्राप्त करता रहता है इसलिए पूर्ण प्रभु के सहयोग रहित जीवात्मा स्वयं दुश्मन जैसा व्यवहार करता है वास्तव में वह साधक अपना ही शत्रु तुल्य है अर्थात् शास्त्र विधि को त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् मनमुखी पूजायें करने वाले को न तो सुख प्राप्त होता है न ही कार्य सिद्ध होता है, न परमगति ही प्राप्त होती है, प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 16 मंत्र 23-24।
अध्याय 6 का श्लोक 7
जितात्मनः, प्रशान्तस्य, परमात्मा, समाहितः,
शीतोष्णसुखदुःखेषु, तथा, मानापमानयोः।।7।।
अनुवाद: उपरोक्त श्लोक 6 में जिस विजयी आत्मा का विवरण है उसी से सम्बन्धित है कि वह परमात्मा के कृप्या पात्र विजयी आत्मा अर्थात् शास्त्र अनुकूल साधना करने से प्रभु से सर्व सुख व कार्य सिद्धि प्राप्त हो रही है वह पूर्ण संतुष्ट साधक पूर्ण प्रभु के ऊपर पूर्ण रूपेण आश्रित है अर्थात् उसको किसी अन्य से लाभ की चाह नहीं रहती। वह तो सर्दी व गर्मी अर्थात् सुख व दुःख में तथा मान व अपमान में भी प्रभु की इच्छा जान कर ही निश्चिंत रहता है।
अध्याय 6 का श्लोक 8
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा, कूटस्थः, विजितेन्द्रियः,
युक्तः, इति, उच्यते, योगी, समलोष्टाश्मका×चनः।। 8।।
हिन्दी: जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान अर्थात् तत्वज्ञान से तृप्त है जिसकी जीवात्मा की स्थिति विकाररहित है प्रभु के सहयोग से जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिये मिट्टी पत्थर और सुवर्ण समान हैं वह शास्त्र अनुकूल साधक युक्त अर्थात् भगवत्प्राप्त है यह अन्तिम ठीक सही भक्ति करने वाला कहा जाता है।
अध्याय 6 का श्लोक 9
सुहृद् मित्र अरि उदासीन मध्यस्थ द्वेष्य बन्धुषु,
साधुषु, अपि, च, पापेषु, समबुद्धिः, विशिष्यते।।9।।
हिन्दी: सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और बन्धुगणोंमें धर्मात्माओंमें और पापियों में भी समान भाव रखनेवाला अत्यन्त श्रेष्ठ है।
(श्लोक 10 से 15 में ब्रह्म ने अपनी पूजा के ज्ञान की अटकल लगाई है)
अध्याय 6 का श्लोक 10
योगी, यु×जीत, सततम्, आत्मानम्, रहसि, स्थितः,
एकाकी, यतचित्तात्मा, निराशीः, अपरिग्रहः।।10।।
हिन्दी: मन और इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें रखनेवाला आशारहित और संग्रहरहित साधक अकेला ही एकान्त स्थानमें रहता है तथा स्थित होकर आत्माको निरन्तर परमात्मामें लगावे।
अध्याय 6 का श्लोक 11
शुचै, देशे, प्रतिष्ठाप्य, स्थिरम्, आसनम्, आत्मनः,
न, अत्युच्छ्रितम्, न, अतिनीचम्, चैलाजिनकुशोत्तरम्।।11।।
हिन्दी: शुद्ध स्थान में जिसके ऊपर क्रमशः कुशा मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा ऐसे अपने आसनको स्थिर स्थापन करके।
अध्याय 6 का श्लोक 12
तत्र, एकाग्रम्, मनः, कृत्वा, यतचितेन्द्रियक्रियः,
उपविश्य, आसने, युज्यात्, योगम्, आत्मविशुद्धये।। 12।।
हिन्दी: उस आसनपर बैठकर चित और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको वशमें रखते हुए मनको एकाग्र करके अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये साधना का अभ्यास करे।
अध्याय 6 का श्लोक 13
समम्, कायशिरोग्रीवम्, धारयन्, अचलम्, स्थिरः,
सम्प्रेक्ष्य, नासिकाग्रम्, स्वम्, दिशः, च, अनवलोकयन्।।13।।
हिन्दी: काया सिर और गर्दन को समान एवम् स्थिर धारण करके और स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्रभागपर दृष्टि जमाकर अन्य दिशाओंको न देखता हुआ।
अध्याय 6 का श्लोक 14
प्रशान्तात्मा, विगतभीः, ब्रह्मचारिव्रते, स्थितः,
मनः, संयम्य, मच्चितः, युक्तः, आसीत, मत्परः।।14।।
हिन्दी: ब्रह्मचारीके व्रतमें स्थित भयरहित तथा भलीभाँति शान्त अन्तःकरणवाला मनको रोककर लीन चितवाला मतावलम्बी मत् अनुसार अर्थात् जो काल विचार दे रहा है ऐसे करता हुआ साधना में संलग्न स्थित होवे।
अध्याय 6 का श्लोक 15
यु×जन्, एवम्, सदा, आत्मानम्, योगी, नियतमानसः,
शान्तिम्, निर्वाणपरमाम्, मत्संस्थाम्, अधिगच्छति।।15।।
हिन्दी: इस प्रकार निरन्तर मेरे द्वारा उपरोक्त हठयोग बताया गया है उस के अनुसार मन को वश में करके स्वयं को परमात्मा के साधना में लगाता हुआ जैसे कर्म करेगा वैसा ही फल प्राप्त होने वाले नियमित सिद्धांत के आधार से मेरे ही ऊपर आश्रित रहने वाला साधक अति शान्त अर्थात् समाप्त प्रायः शान्ति को प्राप्त होता है अर्थात् मेरे से मिलने वाली नाम मात्र मुक्ति को प्राप्त होता है। अपनी मुक्ति को गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में स्वयं ही अति अश्रेष्ठ कहा है। गीता अध्याय 6 श्लोक 23 में अनिर्वणम् का अर्थात् न उकताए अर्थात् न मुर्झाए किया है इसलिए निर्वाणम् का अर्थ मुर्झायी हुई अर्थात् मरी हुई नाम मात्र की शान्ति हुई।
विशेष:- उपरोक्त गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में एक स्थान पर विशेष आसन पर विराजमान होकर हठ करके ध्यान व दृृष्टि नाक के अग्र भाग पर लगाने आदि की सलाह दी है तथा गीता अध्याय 3 श्लोक 5 से 9 तक इसी को मना किया है।
(श्लोक 16 से 30 तक पूर्ण परमात्मा के विषय में ज्ञान है)
अध्याय 6 का श्लोक 16
न, अति, अश्नतः, तु, योगः, अस्ति, न, च, एकान्तम्, अनश्नतः,
न, च, अति, स्वप्नशीलस्य, जाग्रतः, न, एव, च, अर्जुन।।16।।
हिन्दी: उपरोक्त श्लोक 10 से 15 में वर्णित विधि वाली एकान्त में बैठ कर विशेष आसन आदि लगा कर साधना करना तो मेरे तक का लाभ प्राप्ति मात्र है, यह वास्तव में श्रेष्ठ नहीं है। गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अपने द्वारा दिए जाने वाले लाभ को अश्रेष्ठ बताया है। इसलिए हे अर्जुन इसके विपरीत उस पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने वाली भक्ति न तो एकान्त स्थान पर विशेष आसन या मुद्रा में बैठने से तथा न ही अत्यधिक खाने वाले की और न बिल्कुल न खाने वाले अर्थात् व्रत रखने वाले की तथा न ही बहुत शयन करने वाले की तथा न ही हठ करके अधिक जागने वाले की सिद्ध होती है अर्थात् उपरोक्त श्लोक 10 से 15 में वर्णित विधि व्यर्थ है।
अध्याय 6 का श्लोक 17
युक्ताहारविहारस्य, युक्तचेष्टस्य, कर्मसु,
युक्तस्वप्नावबोधस्य, योगः, भवति, दुःखहा।।17।।
हिन्दी: दुःखोंका नाश करनेवाला भक्ति तो यथायोग्य आहार-विहार करनेवालेका शास्त्र अनुसार कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका और यथायोग्य सोने तथा जागने वालेका ही सिद्ध होता है।
अध्याय 6 का श्लोक 18
यदा, विनियतम्, चित्तम्, आत्मनि, एव, अवतिष्ठते,
निःस्पृहः, सर्वकामेभ्यः, युक्तः, इति, उच्यते, तदा।।18।।
हिन्दी: एक पूर्ण परमात्मा की शास्त्र अनुकूल भक्ति में अत्यन्त नियमित किया हुआ चित जिस स्थितिमें परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है उस कालमें सम्पूर्ण मनोकामनाओंसे मुक्त भक्तियुक्त अर्थात् भक्ति में संलग्न है ऐसा कहा जाता है।
अध्याय 6 का श्लोक 19
यथा, दीपः, निवातस्थः, न, इंगते, सा, उपमा, स्मृता,
योगिनः, यतचित्तस्य, युज्तः, योगम्, आत्मनः।।19।।
हिन्दी: जिस प्रकार वायुरहित स्थानमें स्थित दीपक चलायमान नहीं होता वैसी ही उपमा शास्त्र अनुकूल साधक आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा अर्थात् पूर्ण ब्रह्म की साधना में लगे हुए प्रयत्न शील साधक के चितकी सुमरण स्थिति कही गयी है।
अध्याय 6 का श्लोक 20
यत्र, उपरमते, चित्तम्, निरुद्धम्, योगसेवया,
यत्र, च, एव, आत्मना, आत्मानम्, पश्यन्, आत्मनि, तुष्यति।।20।।
हिन्दी: चित निरुद्ध योगके अभ्याससे जिस अवस्थामें ऊपर बताए मत - विचारों पर आधारित हो कर उपराम हो जाता है और जिस अवस्थामें शास्त्र अनुकूल साधक जीवात्मा द्वारा आत्मा के साथ रहने वाले पूर्ण परमात्मा को सर्वत्र देखकर ही वास्तव में आत्मा से अभेद पूर्ण परमात्मा में संतुष्ट रहता है अर्थात् वह डगमग नहीं रहता।
अध्याय 6 का श्लोक 21
सुखम् आत्यन्तिकम्, यत्, तत्, बुद्धिग्राह्यम्, अतीन्द्रियम्,
वेत्ति, यत्र, न, च, एव, अयम्, स्थितः, चलति, तत्त्वतः।।21।।
हिन्दी: इन्द्रियोंसे अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है। कभी न समाप्त होने वाला सुख अर्थात् पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति पूर्ण मुक्ति के लिए प्रयत्न करता हुआ उसको जिस अवस्थामें अनुभव करता है और वास्तव में इस प्रकार स्थित यह योगी तत्वज्ञानी विचलित नहीं होता।
अध्याय 6 का श्लोक 22
यम्, लब्ध्वा, च, अपरम्, लाभम्, मन्यते, न, अधिकम्, ततः,
यस्मिन्, स्थितः, न, दुःखेन, गुरुणा, अपि, विचाल्यते।।22।।
हिन्दी: केवल एक पूर्ण परमात्मा की शास्त्र अनुकूल साधना से एक ही प्रभु पर मन को रोकने वाले साधक जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और जिस कारण से सत्य भक्ति पर अडिग साधक बड़े भारी दुःखसे भी चलायमान नहीं होता।
अध्याय 6 का श्लोक 23
तम्, विद्यात्, दुःखसंयोगवियोगम्, योगसज्ञितम्,
सः, निश्चयेन, योक्तव्यः, योगः, अनिर्विण्णचेतसा।।23।।
हिन्दी: अज्ञान अंधकार से अज्ञात पूर्ण परमात्मा के वास्तविक भक्ति ज्ञान को जानना चाहिए। जो पापकर्मों के संयोग से उत्पन्न दुःख का अन्त अर्थात् छूटकारा करता है वह भक्ति न उकताये अर्थात् न मुर्झाए् हुए चितसे निश्चयपूर्वक करना कत्र्तव्य है अर्थात् करनी चाहिए।
अध्याय 6 का श्लोक 24
संकल्पप्रभवान्, कामान्, त्यक्त्वा, सर्वान्, अशेषतः,
मनसा, एव, इन्द्रियग्रामम्, विनियम्य, समन्ततः।।24।।
हिन्दी: संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंको वास्तव में जड़ामूल से अर्थात् समूल त्यागकर और मनके द्वारा इन्द्रियोंके सभी ओरसे भलीभाँति रोककर।
अध्याय 6 का श्लोक 25
शनैः, शनैः, उपरमेत्, बुद्धया, धृतिगृृहीतया,
आत्मसंस्थम्, मनः, कृत्वा, न, किंचित्, अपि, चिन्तयेत्।।25।।
हिन्दी: धीरे-धीरे अभ्यास करता हुआ उपरोक्त दिए गए मत अर्थात् ज्ञान विचार द्वारा धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा मनको पूर्ण परमात्मा में टिका कर अर्थात् स्थित करके कुछ भी चिन्तन न करे।
अध्याय 6 का श्लोक 26
यतः, यतः, निश्चरति, मनः, चंचलम्, अस्थिरम्,
ततः, ततः, नियम्य, एतत्, आत्मनि, एव, वशम्, नयेत्।।26।।
हिन्दी: यह स्थिर न रहनेवाला और चंचल मन जहाँ-जहाँ विचरता है उस उससे हटाकर शास्त्र अनुकूल साधक पूर्ण परमात्मा की कृप्या पात्र आत्मा अपने पूर्ण प्रभु के सहयोग से ही मनवश करे।
अध्याय 6 का श्लोक 27
प्रशान्तमनसम्, हि, एनम्, योगिनम्, सुखम्, उत्तमम्,
उपैति, शान्तरजसम्, ब्रह्मभूतम्, अकल्मषम्।।27।।
हिन्दी: शास्त्र विधि त्यागकर साधना करना पाप है इसलिए इस पाप को निश्चय ही त्याग कर जिस शास्त्र अनुकूल साधक का मन भली प्रकार एक पूर्ण परमात्मा में शांत है जो पापसे रहित है, जो भौतिक सुख नहीं चाहता परमात्मा के हंस विधिवत् साधक को उत्तम आनन्द प्राप्त होता है अर्थात् पूर्ण मुक्ति प्राप्त होती है।
अध्याय 6 का श्लोक 28
युज्न्, एवम्, सदा, आत्मानम्, योगी, विगतकल्मषः,
सुखेन, ब्रह्मसंस्पर्शम्, अत्यन्तम्, सुखम्, अश्नुते।।28।।
हिन्दी: पापरहित साधक इस प्रकार निरन्तर साधना करता हुआ अपने समर्पण भाव से सुखपूर्वक पूर्ण परमात्मा के मिलन रूप कभी समाप्त न होने वाले आनन्दका अनुभव करता है अर्थात् पूर्ण मुक्त हो जाता है।
अध्याय 6 का श्लोक 29
सर्वभूतस्थम्, आत्मानम्, सर्वभूतानि, च, आत्मनि,
ईक्षते, योगयुक्तात्मा, सर्वत्र, समदर्शनः।।29।।
हिन्दी: भक्तियुक्त आत्मावाला सबमें समभावसे देखनेवाला पूर्ण परमात्मा जो आत्मा के साथ अभेद रूप में है उसको सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित और सम्पूर्ण प्राणियों को अपने समान अर्थात् जैसा दुःख व सुख अपने होता है इस दृष्टिकोण से देखता है।
(श्लोक नं 30-31 में अपनी भक्ति वाले साधक की स्थिति बताई है)
अध्याय 6 का श्लोक 30
यः, माम्, पश्यति, सर्वत्र, सर्वम्, च, मयि, पश्यति,
तस्य, अहम्, न, प्रणश्यामि, सः, च, मे, न, प्रणश्यति।।30।।
हिन्दी: जो सब जगह मुझे देखता है और सर्व को मुझमें देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे से अदृश्य नहीं होता अर्थात् वह तो मेरे ही जाल में मेरी दृष्टि है उसको पूर्ण ज्ञान नहीं
अध्याय 6 का श्लोक 31
सर्वभूतस्थितम्, यः, माम्, भजति, एकत्वम्, आस्थितः,
सर्वथा, वर्तमानः, अपि, सः, योगी, मयि, वर्तते।।31।।
हिन्दी: जो एकीभावमें स्थित होकर सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित मुझे भजता है वह योगी सब प्रकारसे इस समय भी मुझमें ही बरतता है।
(श्लोक नं 32 में पूर्ण परमात्मा की भक्ति तत्व दर्शी संत से प्राप्त करके करता है वही सर्व श्रेष्ठ है)
अध्याय 6 का श्लोक 32
आत्मौपम्येन, सर्वत्र, समम्, पश्यति, यः, अर्जुन,
सुखम्, वा, यदि, वा, दुःखम्, सः, योगी, परमः, मतः।।32।।
हिन्दी: हे अर्जुन! जो योगी शास्त्र अनुकूल साधना से आत्मा पूर्ण परमात्मा की कृृप्या पात्र हो जाती है उस पर प्रभु की विशेष कृृपा होने से वह स्वयं भी परमात्मा की उपमा जैसा हो जाता है, इसलिए आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा को सब जगह तथा सर्व प्राणियों में सम देखता है और सुख अथवा दुःखको भी सबमें सम देखता है वह शास्त्रानुकूल आचरण वाला योगी श्रेष्ठ है।
(अर्जुन उवाच)
अध्याय 6 का श्लोक 33
यः, अयम्, योगः, त्वया, प्रोक्तः, साम्येन, मधुसूदन,
एतस्य, अहम्, न, पश्यामि, चंचलत्वात्, स्थितिम्, स्थिराम्।।33।।
हिन्दी: हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभावसे कहा है मनके चंचल होनेसे मैं इसकी नित्य स्थितिको नहीं देखता हूँ।
अध्याय 6 का श्लोक 34
चंचलम्, हि, मनः, कृष्ण, प्रमाथि, बलवत्, दृढम्,
तस्य, अहम्, निग्रहम्, मन्ये, वायोः, इव, सुदुष्करम्।।34।।
हिन्दी: क्योंकि हे श्रीकृृष्ण! यह मन बड़ा चंचल प्रमथन स्वभाववाला बड़ा दृढ़ और बलवान् है। इसलिये उसका वशमें करना मैं वायुको रोकनेकी भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ।
(भगवान उवाच)
अध्याय 6 का श्लोक 35
असंशयम्, महाबाहो, मनः, दुर्निग्रहम्, चलम्,
अभ्यासेन, तु, कौन्तेय, वैराग्येण, च, गृह्यते।।35।।
हिन्दी: हे महाबाहो! निःसन्देह मन चंचल और कठिनतासे वशमें होनेवाला है परंतु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्यसे वशमें होता है।
अध्याय 6 का श्लोक 36
असंयतात्मना, योगः, दुष्प्रापः, इति, मे, मतिः,
वश्यात्मना, तु, यतता, शक्यः, अवाप्तुम्, उपायतः।।36।।
हिन्दी: जिसका मन वशमें किया हुआ नहीं है अर्थात् जो संयमी नहीं ऐसे पुरुषद्वारा भक्ति दुष्प्राप्य है परन्तु शास्त्र विधि अनुसार साधना करने वाले अर्थात् मनमानी पूजा न करके वशमें किये हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुषद्वारा साधनसे उसका प्राप्त होना सम्भव है यह मेरा मत अर्थात् विचार है।
(अर्जुन उवाच)
अध्याय 6 का श्लोक 37
अयतिः, श्रद्धया, उपेतः, योगात्, चलितमानसः,
अप्राप्य, योगसंसिद्धिम्, काम्, गतिम्, कृष्ण, गच्छति।।37।।
हिन्दी: हे श्रीकृृष्ण! जो योगमें श्रद्धा रखनेवाला है, किंतु जो संयमी नहीं है जिसका मन योगसे विचलित हो गया है, ऐसा साधक योगी योगकी सिद्धिको अर्थात् न प्राप्त होकर किस गतिको प्राप्त होता है।
अध्याय 6 का श्लोक 38
कच्चित्, न, उभयविभ्रष्टः, छिन्नाभ्रम्, इव, नश्यति,
अप्रतिष्ठः, महाबाहो, विमूढः, ब्रह्मणः, पथि।।38।।
हिन्दी: हे महाबाहो! क्या वह पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग से भटका हुआ मूर्ख शास्त्र विधि त्याग कर साधना करने वाले साधक को प्रभु का आश्रय प्राप्त नहीं होता ऐसा आश्रयरहित पुरुष छिन्न भिन्न बादलकी भाँति दोनों ओरसे भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता? दुष्प्राय है अर्थात् भक्ति लाभ नहीं है। वह योग तो मनवश किए हुए को ही शक्य है। विचार करें फिर श्लोक 40 का यह अर्थ करना कि वह योग भ्रष्ट व्यक्ति न तो इस लोक में नष्ट होता है न परलोक में, न्याय संगत नहीं है। क्योंकि अध्याय 6 श्लोक 42 से 44 में भी यही प्रमाण है कहा है योग भ्रष्ट व्यक्ति योग भ्रष्ट होने से पूर्व के भक्ति संस्कार से कुछ दिन स्वर्ग में जाता है फिर अच्छे कुल में जन्म प्राप्त करता है परन्तु पुनः वह मानव जन्म इस लोक में अत्यन्त दुर्लभ है। यदि मानव जन्म प्राप्त हो जाता है तो पूर्व के स्वभाववश मनमाना आचरण करके तत्वज्ञान का उल्लंघन कर जाता है। अर्थात् नष्ट हो जाता है। इसलिए श्लोक 40 का अनुवाद उपरोक्त सही है। अध्याय 6 श्लोक 45 में भी स्पष्ट है।
अध्याय 6 का श्लोक 39
एतत्, मे, संशयम्, कृष्ण, छेत्तुम्, अर्हसि, अशेषतः,
त्वदन्यः, संशयस्य, अस्य, छेत्ता, न, हि, उपपद्यते।।39।।
हिन्दी: हे श्री कृष्ण! मेरे इस संशयको सम्पूर्णरूपसे छेदन करनेके लिये आपही योग्य हैं क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशयका छेदन करनेवाला मिलना सम्भव नहीं है।
भावार्थ:- श्लोक 40 से 44 का भावार्थ है कि पहले वाले सर्व शुभ व अशुभ कर्मों का भोग स्वर्ग-नरक में भोग कर पिछले भक्ति स्वभाव के अनुसार तो भक्ति की तड़फ बन जाती है तथा पिछले स्वभाव से ही फिर पथ भ्रष्ट हो जाता है अर्थात् पूर्ण संत न मिलने के कारण कभी मुक्त नहीं होता।
(भगवान उवाच)
अध्याय 6 का श्लोक 40
पार्थ, न, एव, इह, न, अमुत्र, विनाशः, तस्य, विद्यते,
न, हि, कल्याणकृत्, कश्चित्, दुर्गतिम्, तात, गच्छति।।40।।
हिन्दी: हे पार्थ! वास्तव में पथ भ्रष्ट साधक न तो यहाँ का रहता है न वहाँ का रहता है। उसका विनाश ही जाना जाता है निसंदेह कोई भी व्यक्ति जो अन्तिम स्वांस तक मर्यादा से आत्म कल्याण के लिए कर्म करने वाला नहीं है अर्थात् जो योग भ्रष्ट हो जाता है हे प्रिय वह तो दुर्गति को चला जाता है अर्थात् प्राप्त होता है। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 40 में भी है।
भावार्थ:- गीता जी अन्य अनुवाद कर्ताओं ने इस श्लोक 40 में लिखा है कि योग भ्रष्ट अर्थात् जिसका मन वश नहीं है वह साधक इस लोक में भी नष्ट नहीं होता तथा परलोक में भी नष्ट नहीं होता। जबकि अध्याय 6 श्लोक 36 में लिखा है कि मेरे मत (विचार) अनुसार जिसका मन वश नहीं है उस को भक्ति (योग) का लाभ मिलना दुष्प्राप्य है अर्थात् भक्ति लाभ नहीं है। वह योग तो मन वश किए हुए को ही शक्य है।
विचार करें फिर श्लोक 40 का यह अर्थ करना कि वह योग भ्रष्ट व्यक्ति न तो इस लोक में नष्ट होता है न परलोक में न्याय संगत नहीं है। क्योंकि अध्याय 6 श्लोक 42 से 44 तक में भी यही प्रमाण है कहा है योग भ्रष्ट व्यक्ति योग भ्रष्ट होने से पूर्व के भक्ति संस्कार से कुछ दिन स्वर्ग में जाता है फिर अच्छे कुल में मानव जन्म प्राप्त करता है। परन्तु पुनः वह मानव जन्म इस लोक मे अत्यन्त दुर्लभ है। यदि मानव जन्म प्राप्त हो जाता है तो पूर्व के स्वभाव वश मनमाना आचरण करके तत्वज्ञान का उल्लंघन कर जाता है अर्थात् नष्ट हो जाता है। इसलिए श्लोक 40 का अनुवाद उपरोक्त सही है अध्याय 6 श्लोक 45 में भी स्पष्ट है।
उदाहरण:- जड़भरत नाम के योगी का एक हिरण के बच्चे में मोह हो जाने से भक्ति मार्ग से भ्रष्ट होने से हिरण का ही जन्म प्राप्त हुआ तथा दुर्गति को प्राप्त हुआ।
अध्याय 6 का श्लोक 41
प्राप्य, पुण्यकृताम्, लोकान्, उषित्वा, शाश्वतीः, समाः,
शुचीनाम्, श्रीमताम्, गेहे, योगभ्रष्टः, अभिजायते।।41।।
हिन्दी: योगभ्रष्ट पुरुष चैरासी लाख योनियों के कष्ट के बाद पुण्य कर्मों के आधार पर पुण्यवानोंके लोकोंको अर्थात् स्वर्गादि लोकोंको प्राप्त होकर उनमें वेद वाणी के आधार से नियत समय तक निवास करके फिर शुद्ध आचरणवाले अच्छे विचारों वाले अर्थात् श्रेष्ठ व्यक्तियों के घरमें जन्म लेता है, नीचे वाले श्लोक 43 में कहा है कि ऐसा जन्म दुर्लभ है।
अध्याय 6 का श्लोक 42
अथवा, योगिनाम्, एव, कुले, भवति, धीमताम्,
एतत्, हि, दुर्लभतरम्, लोके, जन्म, यत्, ईदृृशम्।।42।।
हिन्दी: अथवा ज्ञानवान् योगियोंके कुलमें जन्म लेता है। वास्तव में इस प्रकारका जो यह जन्म है सो संसारमें निःसन्देह अत्यन्त दुर्लभ है।
अध्याय 6 का श्लोक 43
तत्र, तम्, बुद्धिसंयोगम्, लभते, पौर्वदेहिकम्,
यतते, च, ततः, भूयः, संसिद्धौ, कुरुनन्दन।।43।।
हिन्दी: यदि वहाँ वह पहले शरीरमें संग्रह किये हुए बुद्धिके संयोगको अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! उसके पश्चात् फिर परमात्माकी प्राप्तिरूप सिद्धिके लिये प्रयत्न करता है।
अध्याय 6 का श्लोक 44
पूर्वाभ्यासेन, तेन, एव, ह्रियते, हि, अवशः, अपि, सः,
जिज्ञासुः, अपि, योगस्य, शब्दब्रह्म, अतिवर्तते।।44।।
हिन्दी: वह पथभ्रष्ट साधक स्वभाव वश विवश हुआ भी उस पहलेके अभ्याससे ही वास्तव में आकर्षित किया जाता है क्योंकि परमात्मा की भक्ति का जिज्ञासु भी परमात्मा की भक्ति विधि जो सद्ग्रन्थों में वर्णित है उस विधि अनुसार साधना न करके पूर्व के स्वभाव वश विचलित होकर उस वास्तविक नाम का जाप न करके प्रभु की वाणी रूपी आदेश का उल्लंघन कर जाता है। क्योंकि पूर्व स्वभाववश फिर विचलित हो जाता है। इसीलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 16-17 में जिज्ञासु को अच्छा नहीं कहा है केवल ज्ञानी भक्त जो एक परमात्मा की भक्ति करता है वह श्रेष्ठ कहा है। गीता अध्याय 18 श्लोक 58 में भी प्रमाण है।
अध्याय 6 का श्लोक 45
प्रयत्नात्, यतमानः, तु, योगी, संशुद्धकिल्बिषः,
अनेकजन्मसंसिद्धः, ततः, याति, पराम्, गतिम्।।45।।
हिन्दी: इसके विपरीत शास्त्र अनुकुल साधक जिसे पूर्ण प्रभु का आश्रय प्राप्त है वह संयमी अर्थात् मन वश किया हुआ प्रयत्नशील सत्यभक्ति के प्रयत्न से अनेक जन्मों की भक्ति की कमाई से भक्त पाप रहित होकर तत्काल उसी जन्म में श्रेष्ठ मुक्ति को प्राप्त हो जाता है।
अध्याय 6 का श्लोक 46
तपस्विभ्यः, अधिकः, योगी, ज्ञानिभ्यः, अपि, मतः, अधिकः,
कर्मिभ्यः, च, अधिकः, योगी, तस्मात्, योगी, भव, अर्जुन।।46।।
अनुवाद: भगवान कह रहे है कि तत्वदर्शी संत से ज्ञान प्राप्त करके साधना करने वाला नाम साधक मेरे द्वारा दिया अटकल लगाया साधना का मत अर्थात् पूजा विधि के ज्ञान अनुसार जो श्लोक 10 से 15 तक में हठ योग का विवरण दिया है उनमें जो हठ करके भक्ति कर्म से जो साधना करते हैं उन तपस्वियों से गीता अध्याय 7 श्लोक 16-17 में वर्णित ज्ञानियों से तथा कर्म करने वाले से अर्थात् शास्त्रविरूद्ध साधना करने वालों से भी श्रेष्ठ है। इसलिए हे अर्जुन गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहे तत्वदर्शी संत की खोज करके उस से उपदेश प्राप्त करके शास्त्र अनुकूल भक्त हो। गीता अध्याय 2 श्लोक 39 से 53 तक में कहा है कि हे अर्जुन! जिस समय तेरा मन भाँति-भाँति के ज्ञान वचनों से हट कर एक तत्वज्ञान पर स्थित हो जाएगा तब तो तू योग को प्राप्त होगा अर्थात् योगी बनेगा।
अध्याय 6 का श्लोक 47
योगिनाम्, अपि, सर्वेषाम्, मद्गतेन, अन्तरात्मना,
श्रद्धावान्, भजते, यः, माम्, सः, मे, युक्ततमः, मतः।।47।।
हिन्दी: सर्व योगियों में भी जो श्रद्धावान साधक मेरे द्वारा दिए भक्ति मत अनुसार अन्तरात्मा से मुझको भजता है वह योगी मेरे मत अनुसार यथार्थ विधि से भक्ति में लीन है।
भावार्थ:- तत्वज्ञान प्राप्त साधक वास्तव में शास्त्रअनुकूल साधक अर्थात् योगी है। वह ब्रह्म काल का ओं (ॐ) नाम का जाप विधिवत् करता है ओं नाम का जाप विधिवत् करना है मेरे नाम की जाप कमाई ब्रह्म को त्याग देता है तथा फिर पूर्ण परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
Chapter 6 Of Bhagwat Geeta