Chapter 13 of the Bhagavad Gita is titled "Kshetra-Kshetrajna Vibhaga Yoga" or the "Yoga of the Field and the Knower of the Field." In this chapter, Lord Krishna explains the distinction between the physical body (kshetra) and the conscious observer within the body (kshetrajna), delving into the nature of the self and the process of spiritual realization. Here's an overview:
1. **The Field and the Knower of the Field**: Krishna begins by describing the concept of the field (kshetra), which refers to the physical body and the material world, and the knower of the field (kshetrajna), which represents the conscious self or soul residing within the body.
2. **Knowledge of the Field**: Krishna explains that true knowledge involves understanding the nature of the field (body) and the knower of the field (soul). Those who possess this knowledge attain liberation from the cycle of birth and death.
3. **The Characteristics of the Field**: Krishna elaborates on the characteristics of the field, including the physical body, the five elements, the senses, the mind, intellect, and the ego. He explains that the field is subject to change and is perishable.
4. **The Nature of the Knower of the Field**: Krishna describes the knower of the field (soul) as eternal, immutable, and beyond the realm of material nature. It is the witness of all experiences and actions within the body but remains untouched by them.
5. **Discrimination Between the Field and the Knower**: Krishna advises Arjuna to discern between the field (body) and the knower of the field (soul) through spiritual wisdom. By realizing the eternal nature of the self, one can transcend material attachments and attain liberation.
6. **The Goal of Knowledge**: Krishna explains that the ultimate goal of knowledge is to realize the distinction between the field and the knower of the field and to attain self-realization. Those who attain this knowledge see the same divine essence in all beings and achieve liberation.
7. **The Path of Devotion**: Krishna concludes by emphasizing the importance of devotion and surrender to God as the highest path to spiritual realization. He assures Arjuna that those who worship him with love and devotion attain eternal peace and liberation.
In summary, Chapter 13 of the Bhagavad Gita explores the distinction between the physical body (kshetra) and the conscious observer within the body (kshetrajna), highlighting the eternal nature of the soul and the perishable nature of the material world. It emphasizes the importance of discernment, spiritual knowledge, and devotion in attaining self-realization and liberation.
अध्याय 13 का श्लोक 1
(‘‘भगवान उवाच’’)
इदम्, शरीरम्, कौन्तेय, क्षेत्रम्, इति, अभिधीयते,
एतत्, यः, वेत्ति, तम्, प्राहुः, क्षेत्रज्ञः, इति, तद्विदः।।1।।
हे अर्जुन! यह शरीर क्षेत्र इस नामसे कहा जाता है और इसको जो जानता है उसे क्षेत्रज्ञ इस नामसे तत्वको जाननेवाले ज्ञानीजन कहते हैं।
अध्याय 13 का श्लोक 2
क्षेत्रज्ञम्, च, अपि, माम्, विद्धि, सर्वक्षेत्रोषु, भारत,
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः, ज्ञानम्, यत्, तत्, ज्ञानम्, मतम्, मम।।2।।
हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में अर्थात् शरीरों में जानने वाला भी मुझे ही जान ओर क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका जो तत्वसे जानना है वह ज्ञान है मेरा मत अर्थात् विचार है।
अध्याय 13 का श्लोक 3
तत्, क्षेत्रम्, यत्, च, यादृक्, च, यद्विकारि, यतः, च, यत्,
सः, च, यः, यत्प्रभावः, च, तत्, समासेन, मे, श्रृणु।।3।।
वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारोंवाला है ओर जिस कारणसे जो हुआ है तथा वह जो और जिस प्रभाववाला है वह सब संक्षेपमें मुझसे सुन।
अध्याय 13 का श्लोक 4
ऋषिभिः, बहुधा, गीतम्, छन्दोभिः, विविधैः, पृथक्,
ब्रह्मसूत्रपदैः, च, एव, हेतुमद्भिः, विनिश्चितैः।।4।।
ऋषियोंद्वारा बहुत प्रकारसे कहा गया है और विविध वेदमन्त्रोंद्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किये हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्रके पदों द्वारा भी कहा गया है।
अध्याय 13 का श्लोक 5
महाभूतानि, अहंकारः, बुद्धिः, अव्यक्तम्, एव, च,
इन्द्रियाणि, दश, एकम्, च, पॅंच, च, इन्द्रियगोचराः।। 5।।
पाँच महाभूत अंहकार बुद्धि और अप्रत्यक्ष भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियोंके विषय अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध।
अध्याय 13 का श्लोक 6
इच्छा, द्वेषः, सुखम्, दुःखम्, सङ्घातः, चेतना, धृतिः,
एतत्, क्षेत्रम्, समासेन, सविकारम्, उदाहृतम्।।6।।
इच्छा द्वेष सुख दुःख स्थूल देहका पिण्ड चेतना और धृृति इस प्रकार विकारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेपमें कहा गया है।
अध्याय 13 का श्लोक 7
अमानित्वम्, अदम्भित्वम्, अहिंसा, क्षान्तिः, आर्जवम्,
आचार्योपासनम्, शौचम्, स्थैर्यम्, आत्मविनिग्रहः।।7।।
अभिमानका अभाव दम्भाचरणका अभाव किसी भी प्राणीको किसी प्रकार भी न सताना क्षमाभाव सरलता श्रद्धाभक्तिसहित गुरुकी सेवा बाहर-भीतरकी शुद्धि अन्तःकरणकी स्थिरता और आत्मशोध।
अध्याय 13 का श्लोक 8
इन्द्रियार्थेषु, वैराग्यम्, अनहंकारः, एव, च,
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।8।।
इन्द्रियों के आनन्दके भोगोंमें आसक्तिका अभाव और अहंकारका भी अभाव जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदिमें दुःख और दोषोंका बार-बार विचार करना।
अध्याय 13 का श्लोक 9
असक्तिः, अनभिष्वङ्गः, पुत्रदारगृहादिषु,
नित्यम्, च, समचित्तत्वम्, इष्टानिष्टोपपत्तिषु।।9।।
पुत्र-स्त्री-घर और धन आदिमें आसक्तिका अभाव ममताका न होना तथा उपास्य देव-इष्ट या अन्य अनउपास्य देव की प्राप्ति या अप्राप्ति में अर्थात् इष्टवादिता को भूलकर सदा ही चितका सम रहना।
अध्याय 13 का श्लोक 10
मयि, च, अनन्ययोगेन, भक्तिः, अव्यभिचारिणी,
विविक्तदेशसेवित्वम्, अरतिः, जनसंसदि।।10।।
मुझे अनन्य भक्ति के द्वारा केवल एक इष्ट पर आधारित भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देशमें रहनेका स्वभाव और विकारी मनुष्योंके समुदायमें प्रेमका न होना।
अध्याय 13 का श्लोक 11
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम्, तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्,
एतत्, ज्ञानम्, इति, प्रोक्तम्, अज्ञानम्, यत्, अतः, अन्यथा।।11।।
अध्यात्मज्ञानमें नित्य स्थिति और तत्वज्ञानके हेतु देखना यहसब ज्ञान है और जो इससे विपरीत है वह अज्ञान है ऐसा कहा है।
अध्याय 13 का श्लोक 12
ज्ञेयम्, यत्, तत्, प्रवक्ष्यामि, यत्, ज्ञात्वा, अमृतम्, अश्नुते।
अनादिमत्, परम्, ब्रह्म, न, सत्, तत्, न, असत्, उच्यते।।12।।
जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्दको प्राप्त हेाता है उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परम ब्रह्म न सत् ही कहा जाता है न असत् ही।
अध्याय 13 का श्लोक 13
सर्वतः पाणिपादम्, तत्, सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतःश्रुतिमत्, लोके, सर्वम्, आवृत्य, तिष्ठति।।13।।
वह सब ओर हाथ-पैरवाला सब ओर नेत्र सिर और मुखवाला तथा सब ओर कानवाला है। क्योंकि वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है।
अध्याय 13 का श्लोक 14
सर्वेन्द्रियगुणाभासम्, सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तम्, सर्वभृत्, च, एव, निर्गुणम्, गुणभोक्तृृ, च।।14।।
सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाला है परंतु वास्तवमें सब इन्द्रियोंसे रहित है तथा आसक्तिरहित होनेपर भी सबका धारण-पोषण करनेवाला और निर्गुण होनेपर भी गुणोंको भोगनेवाला है।
अध्याय 13 का श्लोक 15
बहिः, अन्तः, च, भूतानाम्, अचरम्, चरम्, एव, च।
सूक्ष्मत्वात्, तत्, अविज्ञेयम्, दूरस्थम्, च, अन्तिके, च, तत्।।15।।
चराचर सब भूतोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचररूप भी वही है और वह सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय है अर्थात् जिसकी सही स्थिति न जानी जाए। तथा अति समीपमें और दूरमें भी स्थित वही है।
अध्याय 13 का श्लोक 16
अविभक्तम्, च, भूतेषु, विभक्तम्, इव, च, स्थितम्।
भूतभर्तृ, च, तत्, ज्ञेयम्, ग्रसिष्णु, प्रभविष्णु, च।।16।।
विभागरहित होनेपर भी प्राणियों में विभक्त-सा स्थित है तथा वह जाननेयोग्य परमात्मा विष्णुरूपसे भूतों को धारण-पोषण करनेवाला और संहार करनेवाला तथा सबको उत्पन्न करनेवाला है।
अध्याय 13 का श्लोक 17
ज्योतिषाम्, अपि, तत्, ज्योतिः, तमसः, परम्, उच्यते।
ज्ञानम्, ज्ञेयम्, ज्ञानगम्यम्, हृदि, सर्वस्य, विष्ठितम्।।17।।
वह पूर्णब्रह्म ज्योतियोंका भी ज्योति एवं मायाधारी काल से अन्य कहा जाता है वह परमात्मा बोधस्वरूप जाननेके योग्य एवं तत्त्वज्ञानसे प्राप्त करनेयोग्य है और सबकेहृदयमें विशेषरूपसे स्थित है।
अध्याय 13 का श्लोक 18
इति, क्षेत्रम् तथा, ज्ञानम्, ज्ञेयम्, च, उक्तम्, समासतः।
मद्भक्तः, एतत्, विज्ञाय, मद्भावाय, उपपद्यते।।18।।
इस प्रकार शरीर तथा जानने योग्य परमात्मा का ज्ञान संक्षेपसे कहा है और मत् भक्त अर्थात् इस मत् अर्थात् विचार को जानने वाला जिज्ञासु को मद्भक्त कहा है अर्थात् मेरे मत् को जानने वाला मेरा भक्त इसको तत्त्वसे जानकर मतावलम्बी अर्थात् मेरे उसी विचार भाव को प्राप्त हो जाता है काल अर्थात् मेरे ब्रह्म साधना त्याग कर पूर्णब्रह्म अर्थात् सतपुरुष की साधना करके जन्म-मरण से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है।
विशेष:-- यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 9 में कहा है कि जो साधक पूर्व जन्मों में ब्रह्म साधना करता था। वह वर्तमान जन्म में भी उसी भाव से भावित रहता है। वह ब्रह्म साधना ही करता है। जब उसे तत्वदर्शी सन्त जो ब्रह्म व पूर्ण ब्रह्म की भक्ति की भिन्नता बताता है, मिल जाता है तो तुरन्त सत्य साधना पर लग जाता है।
अध्याय 13 का श्लोक 19
प्रकृतिम्, पुरुषम्, च, एव, विद्धि, अनादी, उभौ, अपि।
विकारान्, च, गुणान्, च, एव, विद्धि, प्रकृतिसम्भवान्।।19।।
प्रकृति अर्थात् प्रथम माया जिसे पराशक्ति भी कहते हैं और पूर्ण परमात्मा इन दोनोंको ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारोंको तथा त्रिगुणात्मक तीनों गुणों अर्थात् रजगुण ब्रह्मा,सतगुण विष्णु तथा तम्गुण शिव जी को भी प्रकृतिसे ही उत्पन्न जान। यही प्रमाण गीता अध्याय 14 श्लोक 5 में भी है कि तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव जी प्रकृृति से उत्पन्न हैं।
अध्याय 13 का श्लोक 20
कार्यकरणकतृर्त्वे, हेतुः, प्रकृतिः, उच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानाम्, भोक्तृृत्वे, हेतुः, उच्यते।।20।।
कार्य और करणको उत्पन्न करनेमें हेतु प्रकृति कही जाती है और सतपुरुष सुख-दुःखोंके जीवात्मा को भोग भोगवाने के कारण भोगनेमें हेतु कहा जाता है। गीता अध्याय 18 श्लोक 16 में कहा है कि परमेश्वर सर्व प्राणियों को यन्त्र की तरह कर्मानुसार भ्रमण कराता हुआ सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा तो गीता ज्ञान दाता से अन्य है। वही अविनाशी परमात्मा तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण पोषण करता है।
अध्याय 13 का श्लोक 21
पुरुषः, प्रकृृतिस्थः, हि, भुङ्क्ते, प्रकृृतिजान्, गुणान्।
कारणम्, गुणसंगः, अस्य, सदसद्योनिजन्मसु।।21।।
प्रकृतिमें स्थित ही पुरुष अर्थात् परमात्मा प्रकृतिसे उत्पन्न त्रिगुणात्मक जीवात्मा को कर्मानुसार भोग भोगवाने के कारण भोगता है और इन गुणोंका संग ही इस जीवात्माके अच्छी-बुरी योनियोंमें जन्म लेनेकाकारण है। यही प्रमाण गीता अध्याय 14 श्लोक 5 में भी है तथा अध्याय 18 श्लोक 16 में भी है।
अध्याय 13 का श्लोक 22
उपद्रष्टा, अनुमन्ता, च, भर्ता, भोक्ता, महेश्वरः।
परमात्मा, इति, च, अपि, उक्तः, देहे, अस्मिन्, पुरुषः, परः।।22।।
इस देहमें भी स्थित यह सतपुरुष अर्थात् पूर्ण ब्रह्म वास्तव में सर्वोपरि प्रभु तो गीता ज्ञान दाता से दूसरा अर्थात् अन्य ही है। वही साक्षी होनेसे उपद्रष्टा और यथार्थ सम्ति देनेवाला होनेसे अनुमन्ता सबका धारण-पोषण करनेवाला होनेसे भर्ता जीवात्मा को भोग भोगवाने के कारण भोक्ता, ब्रह्म व परब्रह्म आदिका भी स्वामी होनेसे महेश्वर और परमात्मा ऐसा कहा गया है। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में है।
अध्याय 13 का श्लोक 23
यः, एवम्, वेत्ति, पुरुषम्, प्रकृृतिम्, च, गुणैः, सह,
सर्वथा, वर्तमानः, अपि, न, सः, भूयः, अभिजायते।।23।।
इस प्रकार सतपुरुषको और गुणों अर्थात् रजगुण ब्रह्म, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव जी के सहित माया अर्थात् दुर्गा को जो तत्त्वसे जानता है वह सब प्रकारसे वर्तमान में शास्त्र विरुद्ध भक्ति साधना से मुड़ जाता है अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्मों को वर्तमान में ही करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता।
अध्याय 13 का श्लोक 24
ध्यानेन, आत्मनि, पश्यन्ति, केचित्, आत्मानम्, आत्मना।
अन्ये, साङ्ख्येन, योगेन, कर्मयोगेन, च, अपरे।।24।।
परमात्माको कितने ही मनुष्य तो अपनीदिव्य दृृष्टि से ध्यानके द्वारा अपने शरीर में अपने अन्तःकरण में देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञानयोग के द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोगके द्वारा देखते हैं अर्थात् अनुभव करते हैं। गीता अध्याय 5 श्लोक 4-5 में भी प्रमाण है।
अध्याय 13 का श्लोक 25
अन्ये, तु, एवम्, अजानन्तः, श्रुत्वा, अन्येभ्यः, उपासते।
ते, अपि, च, अतितरन्ति, एव, मृत्युम्, श्रुतिपरायणाः।।25।।
इसके विपरित इनसे दूसरे इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे अर्थात् तत्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे कही सुनी मानने वाले भी मृत्युरूप संसारसागरको निःसन्देह तर जाते हैं। गीता अध्याय 5 श्लोक 4-5 में भी प्रमाण है।
अध्याय 13 का श्लोक 26
यावत्, संजायते , किंचित, सत्त्वम्, स्थावरजंगमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्, तत्, विद्धि, भरतर्षभ।।26।।
हे भरतर्षभ अर्जुन! यावन्मात्र जितने भी स्थावरजंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगसे ही उत्पन्न जान।
अध्याय 13 का श्लोक 27
समम्, सर्वेषु, भूतेषु, तिष्ठन्तम्, परमेश्वरम्।
विनश्यत्सु, अविनश्यन्तम्, यः, पश्यति, सः, पश्यति।।27।।
जो नष्ट होते हुए सब चराचर भूतोंमें परमेश्वरको नाशरहित और समभावसे स्थित देखता है वही यथार्थ देखता है अर्थात् वह पूर्णज्ञानी है।
अध्याय 13 का श्लोक 28
समम्, पश्यन्, हि, सर्वत्र, समवस्थितम्, ईश्वरम्।
न, हिनस्ति, आत्मना, आत्मानम्, ततः, याति, पराम्, गतिम्।।28।।
क्योंकि सबमें सर्वव्यापक उत्तम पुरूष अर्थात् परमेश्वरको समान देखता हुआ अपनेद्वारा अपनेको नष्ट नहीं करता अर्थात् आत्मघात नहीं करता इससे वह परम गतिको प्राप्त होता है।
अध्याय 13 का श्लोक 29
प्रकृत्या, एव, च, कर्माणि, क्रियमाणानि, सर्वशः।
यः, पश्यति, तथा, आत्मानम्, अकर्तारम्, सः, पश्यति।।29।।
और जो साधक सम्पूर्ण कर्मोंको सब प्रकारसे प्रकृतिके द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और परमात्माको अकत्र्ता देखता है वही यथार्थ देखता है।
अध्याय 13 का श्लोक 30
यदा, भूतपृथग्भावम्, एकस्थम्, अनुपश्यति।
ततः, एव, च, विस्तारम्, ब्रह्म, सम्पद्यते तदा।।30।।
जब कोई साधक प्राणियों के भिन्न-2 भावको तथा विस्तार को देखता है अर्थात् जान लेता है तब वह भक्त एक परमात्मा में स्थित उस पूर्ण परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है।
अध्याय 13 का श्लोक 31
अनादित्वात्, निर्गुणत्वात्, परमात्मा, अयम्, अव्ययः।
शरीरस्थः, अपि, कौन्तेय, न, करोति, न, लिप्यते।।31।।
हे अर्जुन! अनादि होनेसे और उसकी शक्ति निर्गुण होनेसे यह अविनाशी परमात्मा शरीरमें रहता हुआ भी वास्तवमें न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है।
भावार्थ - श्लोक 31 का भाव है कि जैसे सूर्य दूरस्थ होने से भी जल के घड़े में दृृष्टिगोचर होता है तथा निर्गुण शक्ति अर्थात् ताप प्रभावित करता रहता है, इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा अपने सत्यलोक में रहते हुए भी प्रत्येक आत्मा में प्रतिबिम्ब रूप से रहता है। जैसे अवतल लैंस पर सूर्य की किरणें अधिक ताप पैदा कर देती हैं तथा उत्तल लैंस पर अपना स्वाभाविक प्रभाव ही रखती हैं। इसी प्रकार शास्त्र विधि अनुसार साधक अवतल लैंस बन जाता है। जिससे ईश्वरीय शक्ति का अधिक लाभ प्राप्त करता है तथा शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने वाला साधक केवल कर्म संस्कार ही प्राप्त करता है। उसे उत्तल लैंस जानो।
अध्याय 13 का श्लोक 32
यथा, सर्वगतम्, सौक्ष्म्यात्, आकाशम्, न, उपलिप्यते।
सर्वत्र, अवस्थितः, देहे, तथा, आत्मा, न, उपलिप्यते।।32।।
जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता वैसे ही देहमें घड़े में सूर्य सदृश सर्वत्र स्थित आत्मा सहित परमात्मा देहके गुणोंसे लिप्त नहीं होता।
अध्याय 13 का श्लोक 33
यथा, प्रकाशयति, एकः, कृत्स्न्नम्, लोकम्, इमम्, रविः।
क्षेत्रम्, क्षेत्री, तथा, कृत्स्न्नम्, प्रकाशयति, भारत।।33।।
हे अर्जुन! जिस प्रकार एक सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्मण्डको प्रकाशित करता है उसी प्रकार पूर्ण ब्रह्म सम्पूर्ण शरीर अर्थात् ब्रह्मण्डको प्रकाशित करता है।
अध्याय 13 का श्लोक 34
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः, एवम्, अन्तरम्, ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षम्, च, ये, विदुः, यान्ति, ते, परम्।।34।।
इस प्रकार शरीर तथा ब्रह्म कालके भेदको जो ज्ञान रूपी नेत्रों से अर्थात् तत्वज्ञान से अच्छी तरह जान लेता है, वे प्राणी प्रकृति से अर्थात् काल की छोड़ी हुई शक्ति माया अष्टंगी से मुक्त हो कर गीता ज्ञान दाता से दूसरे पूर्णपरमात्माको प्राप्त होते हैं। गीता अध्याय 13 श्लोक 1-2 में कहा है कि क्षेत्रज्ञ अर्थात् शरीर को जानने वाला क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। इसलिए क्षेत्रज्ञ भी मुझे ही जान। इससे सिद्ध हो कि क्षेत्रज्ञ ज्ञान दाता काल अर्थात् ब्रह्म है।
Chapter 13 Of Bhagwat Geeta