Chapter 17 of the Bhagavad Gita is titled "Shraddhatraya Vibhaga Yoga" or "The Yoga of the Threefold Division of Faith." In this chapter, Lord Krishna discusses the significance of faith and devotion in spiritual practices. Here's a summary of the key teachings from Bhagavad Gita Chapter 17:
1. **Three Types of Faith (Shraddha):** Lord Krishna explains that faith is an essential aspect of any action. He categorizes faith into three types based on the predominance of the modes of material nature (gunas):
- **Sattvic Faith:** This faith is characterized by purity, clarity, and goodness. It arises from a sense of duty and is dedicated to the pursuit of knowledge and righteousness.
- **Rajasic Faith:** Rajasic faith is driven by desire, attachment, and ambition. It is motivated by personal gain, power, and ego, and it often leads to unrest and dissatisfaction.
- **Tamasic Faith:** Tamasic faith is characterized by ignorance, delusion, and laziness. It is rooted in darkness and leads to lethargy, superstition, and harmful practices.
2. **Offerings and Austerity:** Krishna describes the offerings, austerity, and sacrifices performed by individuals based on their faith. He explains that these practices should be performed according to scriptural guidelines, with the right intention, and without attachment to the results.
3. **Dietary Practices:** Lord Krishna discusses dietary practices and their relation to the three modes of material nature. He explains that food offerings, sacrifices, and dietary habits can either promote spiritual elevation or hinder it, depending on their quality and intention.
4. **Recitation of Sacred Texts:** Krishna emphasizes the importance of reciting sacred texts and prayers with devotion and understanding. He explains that such recitations should be performed as an offering to the divine and with faith in the scriptural teachings.
5. **Importance of Faith:** Throughout the chapter, Krishna underscores the significance of faith in spiritual practices. He advises Arjuna to cultivate sattvic faith, which leads to purity, knowledge, and spiritual evolution, while transcending the influence of the modes of material nature.
Bhagavad Gita Chapter 17 highlights the role of faith and devotion in spiritual life and emphasizes the importance of performing actions with the right intention, according to scriptural guidelines, and with unwavering faith in the divine.
विशेष:- अर्जुन ने पूछा कि हे भगवन! शास्त्र विधि को त्याग कर साधना करने वालों अर्थात् तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) तथा इनसे भी नीचे भूत-पितर, यज्ञ, भैरव आदि की साधना करने वालों का स्वभाव कैसा होता है?
अध्याय 17 का श्लोक 1
(अर्जुन उवाच)
ये, शास्त्रविधिम्, उत्सृृज्य, यजन्ते, श्रद्धया, अन्विताः,
तेषाम्, निष्ठा, तु, का, कृष्ण, सत्त्वम्, आहो, रजः, तमः।।1।।
हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रविधिको त्यागकर श्रद्धासे युक्त हुए देवादिका पूजन करते है उनकी स्थिति फिर कौन-सी सात्विकी है अथवा राजसी तामसी? (1)
विशेष:- अध्याय 17 श्लोक 2 से 22 तक उन शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् अपने-अपने स्वभाववश साधना करने वाले साधकों द्वारा किए जाने वाले धार्मिक पूजाओं का वर्णन है जिसको गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में व्यर्थ कहा है। इसी लिए अर्जुन ने उपरोक्त इसी अध्याय 17 के श्लोक 1 में पूछा है, उसी का उत्तर देते हुए प्रभु ने कहा है कि जिस साधक का पिछले मनुष्य जीवन में जैसा स्वभाव था उसी का प्रभाव कभी फिर मनुष्य जन्म प्राप्त होता है वह उसी भाव में भावित रहता है। समझाने से भी नहीं मानता, उसे राक्षस स्वभाव के जान। ऐसे साधकों का विवरण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तक पूर्ण व्याख्या के साथ कहा है। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 5-6 में स्पष्ट किया है। इस अध्याय 17 के श्लोक 2 से 22 तक भले ही एक-दूसरे की तुलना का विवरण कहा है फिर भी शास्त्र विधि रहित ही है। जिस कारण श्रेयकर नहीं है। इस अध्याय 17 श्लोक 23 से अन्तिम 28 तक पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का विवरण है, जिसके लिए गीता अध्याय 4 श्लोक 34 व अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में विशेष प्रमाण है।
अध्याय 17 का श्लोक 2
(भगवान उवाच)
त्रिविधा, भवति, श्रद्धा, देहिनाम्, सा, स्वभावजा,
सात्त्विकी, राजसी, च, एव, तामसी, च, इति, ताम्, श्रृृणु।।2।।
मनुष्योंकी वह स्वभावसे उत्पन्न श्रद्धा सात्विकी और राजसी तथा तामसी ऐसे तीनों प्रकारकी ही होती है। उस अज्ञान अंधकार रूप जंजाल को सुन। (2)
अध्याय 17 का श्लोक 3
सत्त्वानुरूपा, सर्वस्य, श्रद्धा, भवति, भारत्,
श्रद्धामयः, अयम्, पुरुषः, यः, यच्छ्रद्धः, सः, एव, सः।।3।।
हे भारत! सभी की श्रद्धा उनके अन्तःकरणके अनुरूप होती है। यह व्यक्ति श्रद्धामय है इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं वास्तव में वही है। (3)
अध्याय 17 का श्लोक 4
यजन्ते, सात्त्विकाः, देवान्, यक्षरक्षांसि, राजसाः,
प्रेतान्, भूतगणान्, च, अन्ये, यजन्ते, तामसाः, जनाः।।4।।
सात्विक पुरुष श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी आदि देवताओं को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसोंको तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं वे प्रेत और भूतगणोंको पूजते हैं तथा मुख्य रूप से श्री शिव जी को भी इष्ट मानते हैं। (4)
अध्याय 17 का श्लोक 5
अशास्त्रविहितम्, घोरम्, तप्यन्ते, ये, तपः, जनाः,
दम्भाहंकारसंयुक्ताः, कामरागबलान्विताः।।5।।
जो मनुष्य शास्त्रविधिसे रहित केवल मन माना घोर तपको तपते हैं तथा पाखण्ड और अहंकारसे युक्त एवं कामना के आसक्ति और भक्ति बलके अभिमानसे भी युक्त हैं। (5)
अध्याय 17 का श्लोक 6
कर्शयन्तः, शरीरस्थम्, भूतग्रामम्, अचेतसः, माम्,
च, एव, अन्तःशरीरस्थम्, तान्, विद्धि, आसुरनिश्चयान्।।6।।
शरीर में रहने वाले प्राणियों के मुखिया - ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा गणेश व प्रकृृति को व मुझे तथा इसी प्रकार शरीर के हृदय कमल में जीव के साथ रहने वाले पूर्ण परमात्मा को परेशान करने वाले उनको अज्ञानियोंको राक्षसस्वभाववाले ही जान। गीता अध्याय 13 श्लोक 17 तथा अध्याय 18 श्लोक 61 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा विशेष रूप से सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है। (6)
अध्याय 17 का श्लोक 7
आहारः, तु, अपि, सर्वस्य, त्रिविधः, भवति, प्रियः,
यज्ञः, तपः, तथा, दानम्, तेषाम्, भेदम्, इमम्, श्रृणु।।7।।
भोजन भी सबको अपनी अपनी प्रकृतिके अनुसार तीन प्रकारका प्रिय होता है इसलिए वैसे ही यज्ञ तप और दान भी तीन-तीन प्रकारके होते हैं उनके इस भेदको तू मुझसे सुन। (7)
अध्याय 17 का श्लोक 8
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः, रस्याः,
स्निग्धाः, स्थिराः, हृद्याः, आहाराः, सात्त्विकप्रियाः।।8।।
आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीतिको बढ़ानेवाले रसयुक्त चिकने और स्थिर रहनेवाले तथा स्वभावसेही मनको प्रिय ऐसे आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ सतोगुण प्रधान अर्थात् विष्णु के उपासक को जिनका विष्णु उपास्य देव है। उनको ऊपर लिखे आहार करना पसंद होते हैं। (8)
अध्याय 17 का श्लोक 9
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः,
आहाराः, राजसस्य, इष्टाः, दुःखशोकामयप्रदाः।।9।।
कडुवे, खट्टे, लवणयुक्त बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख चिन्ता तथा रोगोंको उत्पन्न करनेवाले आहार राजस पुरुषको रजोगुण प्रधान अर्थात् जिनका ब्रह्मा उपास्य देव है उनको ऊपर लिखे आहार स्वीकार होते हैं। क्योंकि हिरणाकशिपु राक्षस ने ब्रह्मा की उपासना की थी। (9)
अध्याय 17 का श्लोक 10
यातयामम्, गतरसम्, पूति, पर्युषितम्, च, यत्,
उच्छिष्टम्, अपि, च अमेध्यम्, भोजनम्, तामसप्रियम्।।10।।
जो भोजन अधपका रसरहित दुर्गन्धयुक्त बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है वह भोजन तामस पुरुषको प्रिय होता है। तमोगुण प्रधान व्यक्तियों का उपास्य देव शिव है तथा वे उनसे निम्न स्तर के भूत प्रेतों को पूजते हैं उनको आहार ऊपर लिखित पसंद होता है। (10)
इस श्लोक 11 में शास्त्र विधि अनुसार पूर्ण संत से तीन मंत्र का जाप (जिनमें एक ओ3म नाम है तथा तत् - सत् सांकेतिक हैं) प्राप्त करके पाँचों यज्ञादि भी प्रतिफल इच्छा न करके करनी चाहियें, अन्यथा इच्छा रूपी की गई यज्ञ का फल पूर्ण नहीं है।
अध्याय 17 का श्लोक 11
अफलाकाङ्क्षिभिः, यज्ञः, विधिदृष्टः, यः, इज्यते,
यष्टव्यम्, एव, इति, मनः, समाधाय, सः, सात्त्विकः।।11।।
भले ही उपरोक्त श्लोक 11 में सात्विक यज्ञ का वर्णन भेद विधान अनुसार कहा है परन्तु गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में वर्णित तत्वदर्शी संत मिले बिना यह सात्विक साधना भी व्यर्थ है क्योंकि अध्याय 17 श्लोक 1 में अर्जुन ने शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने वालों के विषय में पूछा है जिसको गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में व्यर्थ बताया है। इसलिए यहाँ केवल स्वभाववश मनमाना आचरण करने वालों का ही विवरण चल रहा है। यह साधना भी व्यर्थ है।
अध्याय 17 का श्लोक 12
अभिसन्धाय, तु, फलम्, दम्भार्थम्, अपि, च, एव, यत्,
इज्यते, भरतश्रेष्ठ, तम्, यज्ञम्, विद्धि, राजसम्।।12।।
परंतु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के ही लिये अथवा फलको भी दृष्टिमें रखकर जो यज्ञ किया जाता है अंधेरे वाले नरक में ले जाने वाली यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान को राजस जान। (12)
अध्याय 17 का श्लोक 13
विधिहीनम्, असृृष्टान्नम्, मन्त्रहीनम्, अदक्षिणम्,
श्रद्धाविरहितम्, यज्ञम्, तामसम्, परिचक्षते।।13।।
शास्त्रविधिसे रहित अन्नदानसे रहित बिना वास्तवकि मन्त्रोंके बिना दक्षिणा के, बिना दीक्षा-उपदेश लिए और बिना श्रद्धाके किये जानेवाले अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान को तामस यज्ञ कहते हैं। (13)
अध्याय 17 का श्लोक 14
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्, शौचम्, आर्जवम्,
ब्रह्मचर्यम्, अहिंसा, च, शारीरम्, तपः, उच्यते।।14।।
दैवी वृति वाले व्यक्ति अर्थात संत, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनोंका आदर पवित्रता आधीनी ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह शरीरसम्बन्धी तप कहा जाता है। परन्तु सर्व शास्त्र विधि रहित है जिस कारण से व्यर्थ साधना है। क्योंकि गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने को व्यर्थ बताया है। (14)
अध्याय 17 का श्लोक 15
अनुद्वेगकरम्, वाक्यम्, सत्यम्, प्रियहितम्, च, यत्,
स्वाध्यायाभ्यसनम्, च, एव, वाङ्मयम्, तपः, उच्यते।।15।।
जो उद्वेग न करनेवाला प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो धार्मिक-शास्त्रोंके पठनका एवं परमेश्वरके नाम जापका अभ्यास ही वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है। (15)
अध्याय 17 का श्लोक 16
मनः प्रसादः, सौम्यत्वम्, मौनम्, आत्मविनिग्रहः,
भावसंशुद्धिः, इति, एतत्, तपः, मानसम्, उच्यते।।16।।
मनकी प्रसन्नता शान्तभाव भगवान की चर्चा के ईलावा अन्य सांसारिक बातों में चुपी प्रत्येक विचार का निग्रह और भावोंकी भलीभाँति पवित्रता इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है। (16)
अध्याय 17 का श्लोक 17
श्रद्धया, परया, तप्तम्, तपः, तत्, त्रिविधम्, नरैः,
अफलाकाङ्क्षिभिः, युक्तैः, सात्त्विकम्, परिचक्षते।।17।।
फलको न चाहनेवाले शास्त्रविधि अनुसार भक्ति में लीन पुरुषोंद्वारा परम श्रद्धासे तपे हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकारके तपको सात्विक कहते हैं। (17)
अध्याय 17 का श्लोक 18
सत्कारमानपूजार्थम्, तपः, दम्भेन, च, एव, यत्,
क्रियते, तत्, इह, प्रोक्तम्, राजसम्, चलम्, अध्रुवम्।।18।।
जो तप सत्कार मान रूपी पूजाके लिये ही और पाखण्ड से किया जाता है वह अस्थाई नाशवान तप यहाँ राजस कहा गया है। (18)
अध्याय 17 का श्लोक 19
मूढग्राहेण, आत्मनः, यत्, पीडया, क्रियते, तपः,
परस्य, उत्सादनार्थम्, वा, तत्, तामसम्, उदाहृतम्।।19।।
जो तप मूढतापूर्वक हठसे अपने मन, वाणी और शरीरकी पीड़ाके सहित अथवा दूसरेका अनिष्ट करनेके लिये किया जाता है वह तप तामस कहा गया है। (इसी का प्रमाण गीता अध्याय 3 श्लोक 6 में भी है।) (19)
अध्याय 17 का श्लोक 20
दातव्यम्, इति, यत्, दानम्, दीयते, अनुपकारिणे,
देशे, काले, च, पात्रो, च, तत्, दानम्, सात्त्विकम्, स्मृतम्।।20।।
दान देना ही कर्तव्य है ऐसे भावसे जो दान समय और स्थिति और दान देने योग्य व्यक्ति के प्राप्त होने पर उसके बदले में अपनी भलाई अर्थात् फल की इच्छा न रखते हुए दिया जाता है वह दान सात्विक कहा गया है। (20)
अध्याय 17 का श्लोक 21
यत्, तु, प्रत्युपकारार्थम्, फलम्, उद्दिश्य, वा, पुनः,
दीयते, च, परिक्लिष्टम्, तत्, दानम्, राजसम्, स्मृतम्।।21।।
किंतु जो दान बदले में लाभ के लिए अथवा फिर फलके उदे्श्य दिया जाता है तथा क्लेशपूर्वक अर्थात् न चाहते हुए पर्ची काटने पर दुःखी मन से दिया जाता है वह दान राजस कहा गया है। (21)
अध्याय 17 का श्लोक 22
अदेशकाले, यत्, दानम्, अपात्रोभ्यः, च, दीयते,
असत्कृतम्, अवज्ञातम्, तत्, तामसम्, उदाहृतम्।।22।।
जो दान गुरु की आज्ञा का उलंघन करके अनादर करके और अनुचित समय स्थिति में पूर्ण गुरु के बिना कुपात्र को दिया जाता है वह दान तामस कहा गया है। (22) विशेष:- निम्न श्लोक 23 से 28 तक पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का विवरण कहा है तथा उसके लिए विशेष विवरण गीता अध्याय 8 श्लोक 5 से 10 व 12-13 अध्याय 4 श्लोक 34 व अध्याय 15 श्लोक1 से 4 व अध्याय 18 श्लोक 61, 62, 64, 66 में विस्तृत कहा है।
अध्याय 17 का श्लोक 23
ॐ, तत्, सत्, इति, निर्देशः, ब्रह्मणः, त्रिविधः, स्मृृतः,
ब्राह्मणाः, तेन, वेदाः, च, यज्ञाः, च, विहिताः, पुरा।।23।।
ॐ मन्त्र ब्रह्म का, तत् यह सांकेतिक मंत्र परब्रह्म का, सत् यह सांकेतिक मन्त्र पूर्णब्रह्म का है, ऐसे यह तीन प्रकार के पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरण का आदेश कहा है और सृष्टिके आदिकाल में विद्वानों ने उसी तत्वज्ञान के आधार से वेद तथा यज्ञादि रचे। उसी आधार से साधना करते थे। (23)
अध्याय 17 का श्लोक 24
तस्मात्, ओम्, इति, उदाहृत्य, यज्ञदानतपःक्रियाः,
प्रवर्तन्ते, विधानोक्ताः, सततम्, ब्रह्मवादिनाम्।।24।।
इसलिये भगवान की स्तुति करनेवालों तथा शास्त्रविधिसे नियत क्रियाऐं बताने वालों की यज्ञ, दान और तप व स्मरण क्रियाएँ सदा ‘ऊँ‘ इस नामको उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं अर्थात् तीनों नामों के जाप में ओं से ही स्वांस द्वारा प्रारम्भ किया जाता है। (24)
अध्याय 17 का श्लोक 25
तत्, इति, अनभिसन्धाय, फलम्, यज्ञतपःक्रियाः,
दानक्रियाः, च, विविधाः, क्रियन्ते, मोक्षकाङ्क्षिभिः।।25।।
अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म के तत् मन्त्र के जाप पर स्वांस इति अर्थात् अन्त होता है तथा फलको न चाहकर नाना प्रकारकी यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छावाले अर्थात् केवल जन्म-मृत्यु से पूर्ण छुटकारा चाहने वाले पुरुषोंद्वारा की जाती हैं अर्थात् यह तत जाप ‘‘सोहं‘‘ मन्त्र है जो परब्रह्म का जाप मन्त्र है और सतनाम के स्वांस द्वारा जाप में तत् मन्त्र पर स्वांस का इति अर्थात् अन्त होता है। (25)
अध्याय 17 का श्लोक 26
सद्भावे, साधुभावे, च, सत्, इति, एतत्, प्रयुज्यते,
प्रशस्ते, कर्मणि, तथा, सत्, शब्दः, पार्थ, युज्यते।।26।।
‘सत्‘ यह सारनाम तत् मन्त्र के अन्त में इसी पूर्ण परमात्मा के नाम के साथ सत्यभावमें और श्रेष्ठभावमें प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्ममें ही सत् शब्द अर्थात् सारनाम का प्रयोग किया जाता है अर्थात् पूर्वोक्त दोनों मन्त्रों ओं व तत् के अन्त में जोड़ा जाता है। (26)
अध्याय 17 का श्लोक 27
यज्ञे, तपसि, दाने, च, स्थितिः, सत्, इति, च, उच्यते,
कर्म, च, एव, तदर्थीयम्, सत्, इति, एव, अभिधीयते।।27।।
तथा यज्ञ तप और दानमें जो स्थिति है भी ‘सत्‘ इस प्रकार कही जाती हे और उस परमात्माके लिये किए हुए शास्त्र अनुकूल किया भक्ति कर्म में ही वास्तव में सत् शब्द के अन्त में कोई अन्य शब्द तत्वदर्शी संत द्वारा कहा जाता है। जैसे सत् साहेब, सतगुरू, सत् पुरूष, सतलोक, सतनाम आदि शब्द बोले जाते हैं। (27)
अध्याय 17 का श्लोक 28
अश्रद्धया, हुतम्, दत्तम्, तपः, तप्तम्, कृतम्, च, यत्,
असत्, इति, उच्यते, पार्थ, न, च, तत्, प्रेत्य, नो, इह।।28।।
हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है वह समस्त ‘असत्‘ अर्थात् व्यर्थ है इस प्रकार कहा जाता है इसलिये वह हमारे लिए न तो इस लोकमें लाभदायक है और न मरनेके बाद ही। (28)
Chapter 17 Of Bhagwat Geeta