Chapter 18 of the Bhagavad Gita is titled "Moksha Sannyasa Yoga" or "The Yoga of Liberation and Renunciation." This final chapter concludes Lord Krishna's teachings to Arjuna on the battlefield of Kurukshetra. Here's a summary of the key teachings from Bhagavad Gita Chapter 18:
1. **Renunciation and Liberation:** Lord Krishna begins by explaining the nature of renunciation and liberation. He emphasizes that true renunciation is not merely abstaining from actions but performing one's duties without attachment to the results. Liberation (moksha) is attained by transcending the ego and realizing one's identity as the eternal soul (atman).
2. **The Threefold Division of Duty (Karma Yoga):** Krishna elaborates on the threefold division of duty based on an individual's innate qualities (guna) and tendencies (svabhava):
- **Duty of Knowledge (Jnana Yoga):** For those inclined towards knowledge and contemplation, the duty is to seek self-realization through study, reflection, and meditation.
- **Duty of Action (Karma Yoga):** For those inclined towards action and service, the duty is to perform one's prescribed duties selflessly, without attachment to the results, as an offering to the divine.
- **Duty of Devotion (Bhakti Yoga):** For those inclined towards devotion and worship, the duty is to surrender oneself completely to the divine, cultivate love and devotion, and engage in devotional practices.
3. **Qualities of the Intellect and Determination:** Lord Krishna describes the qualities of a pure and steady intellect, including tranquility, self-control, detachment, and unwavering determination. He explains that those endowed with such qualities are capable of achieving spiritual liberation.
4. **Types of Renunciation:** Krishna distinguishes between two types of renunciation: sannyasa (renunciation of actions) and tyaga (renunciation of the fruits of actions). He explains that true renunciation is renunciation of egoism and attachment, rather than simply giving up worldly possessions or duties.
5. **Conclusion of the Bhagavad Gita:** Lord Krishna concludes his teachings by urging Arjuna to reflect on what he has learned and to act according to his understanding. He emphasizes the importance of surrendering to the divine will and following one's dharma (duty) without attachment or aversion.
Bhagavad Gita Chapter 18 encapsulates the essence of the teachings presented throughout the scripture, emphasizing the paths of knowledge, action, and devotion, and guiding individuals towards spiritual liberation and self-realization. It serves as a comprehensive guide to living a life of righteousness, wisdom, and inner peace.
अध्याय 18 का श्लोक 1
(अर्जुन उवाच)
सóयासस्य, महाबाहो, तत्त्वम्, इच्छामि, वेदितुम्,
त्यागस्य, च, हृषीकेश, पृथक्, केशिनिषूदन।।1।।
हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन! केशिनाशक संन्यास और त्यागके तत्वको पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ।
अध्याय 18 का श्लोक 2
काम्यानाम्, कर्मणाम्, न्यासम्, सóयासम्, कवयः, विदुः,
सर्वकर्मफलत्यागम्, प्राहुः, त्यागम्, विचक्षणाः।।2।।
पण्डितजन तो मनोकामना के लिए किए धार्मिक कर्मोंके त्यागको संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मोंके फलके त्यागको त्याग कहते हैं।
अध्याय 18 का श्लोक 3
त्याज्यम्, दोषवत्, इति, एके, कर्म, प्राहुः, मनीषिणः,
यज्ञदानतपःकर्म, न, त्याज्यम्, इति, च, अपरे।।3।।
कई एक विद्वान् ऐसा कहते हैं कि शास्त्र विधि रहित भक्ति कर्म दोषयुक्त हैं इसलिये त्यागनेके योग्य हैं और दूसरे विद्वान् यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूपी कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं।
अध्याय 18 का श्लोक 4
(भगवान उवाच)
निश्चयम्, श्रृणु, मे, तत्र, त्यागे, भरतसत्तम,
त्यागः, हि, पुरुषव्याघ्र, त्रिविधः, सम्प्रकीर्तितः।।4।।
हे शेर पुरुष अर्जुन! संन्यास और त्याग इन दोनोंमेसे पहले त्यागके विषयमें तू मेरा निश्चय सुन क्योंकि त्याग तीन प्रकारका कहा गया है।
अध्याय 18 का श्लोक 5
यज्ञदानतपःकर्म, न, त्याज्यम्, कार्यम्, एव, तत्,
यज्ञः, दानम्, तपः, च, एव, पावनानि, मनीषिणाम्।।5।।
यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करनेके योग्य नहीं है बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है क्योंकि यज्ञ दान और तप ही कर्म बुद्धिमान् पुरुषोंको पवित्र करनेवाले हैं।
विशेष:- यहाँ पर हठयोग द्वारा किया जाने वाले तप के विषय में नहीं कहा है यहाँ पर गीता अध्याय 17 श्लोक 14 से 17 में कहे तप के विषय में कहा है।
अध्याय 18 का श्लोक 6
एतानि, अपि, तु, कर्माणि, संगम्, त्यक्त्वा, फलानि, च,
कर्तव्यानि, इति, मे, पार्थ निश्चितम्, मतम्, उत्तमम्।।6।।
हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मोंको तथा भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको आसक्ति और फलोंका त्याग करके करना चाहिए यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।
अध्याय 18 का श्लोक 7
नियतस्य, तु, सóयासः, कर्मणः, न, उपपद्यते,
मोहात्, तस्य, परित्यागः, तामसः, परिकीर्तितः।।7।।
परंतु नियत शास्त्रानुकूल कर्मका त्याग उचित नहीं है मोहके कारण अज्ञानता वश भाविक होकर उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है।
अध्याय 18 का श्लोक 8
दुःखम्, इति, एव, यत्, कर्म, कायक्लेशभयात्, त्यजेत्,
सः, कृत्वा, राजसम्, त्यागम्, न, एव, त्यागफलम्, लभेत्।।8।।
जो कुछ भक्ति साधना का व शरीर निर्वाह के लिए कर्म है दुःखरूप ही है ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेशके भयसे अर्थात् कार्य करने को कष्ट मानकर कर्तव्य कर्मोंका त्याग कर दे तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्यागके फलको किसी प्रकार भी नहीं पाता।
अध्याय 18 का श्लोक 9
कार्यम्, इति, एव, यत्, कर्म, नियतम्, क्रियते, अर्जुन,
संगम्, त्यक्त्वा, फलम्, च, एव, सः, त्यागः, सात्त्विकः, मतः।।9।।
हे अर्जुन! जो शास्त्रानुकूल कर्म करना कर्तव्य है इसी भावसे आसक्ति और फलका त्याग करके किया जाता है वही सात्विक त्याग माना गया है।
अध्याय 18 का श्लोक 10
न, द्वेष्टि, अकुशलम्, कर्म, कुशले, न, अनुषज्जते,
त्यागी, सत्त्वसमाविष्टः, मेधावी, छिन्नसंशयः।।10।।
अकुशल कर्मसे तो ) द्वेष नहीं करता और कुशल कर्ममें आसक्त नहीं होता वह सत्वगुणसे युक्त पुरुष संश्यरहित बुद्धिमान् और सच्चा त्यागी है।
अध्याय 18 का श्लोक 11
न, हि, देहभृता, शक्यम्, त्यक्तुम्, कर्माणि, अशेषतः,
यः, तु, कर्मफलत्यागी, सः, त्यागी, इति, अभिधीयते।।11।।
क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्यके द्वारा सम्पूर्णतासे सब कर्मोंका त्याग किया जाना शक्य नहीं है जो कर्मफलका त्यागी है वही त्यागी है यह कहा जाता है।
यही प्रमाण गीता अध्याय 3 श्लोक 4 से 8 व 19 से 21 में है।
अध्याय 18 का श्लोक 12
अनिष्टम्, इष्टम्, मिश्रम्, च, त्रिविधम्, कर्मणः, फलम्,
भवति, अत्यागिनाम्, प्रेत्य, न, तु, सóयासिनाम्, क्वचित्।।12।।
कर्मफलका त्याग न करनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका शुभ अशुभ और मिला हुआ तीन प्रकारका फल मरनेके पश्चात् होता है किंतु कर्मफलका त्याग कर देनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका फल किसी कालमें भी नहीं होता ।
अध्याय 18 का श्लोक 13
पंच, एतानि, महाबाहो, कारणानि, निबोध, मे,
साङ्ख्ये, कृतान्ते, प्रोक्तानि, सिद्धये, सर्वकर्मणाम्।।13।।
हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिके ये पाँच हेतु कर्मोंका अन्त करनेके लिये उपाय बतलानेवाले सांख्यशास्त्रमें कहे गये हैं उनको तू मुझसे भलीभाँति जान।
अध्याय 18 का श्लोक 14
अधिष्ठानम्, तथा, कर्ता, करणम्, च, पृथग्विधम्,
विविधाः, च, पृथक्, चेष्टाः, दैवम्, च, एव, अत्र, पंचमम्।। 14।।
इस विषयमें अर्थात् कर्मोंकी सिद्धिमें अधिष्ठान और कत्र्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकारके करण एवं नाना प्रकारकी अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव अर्थात् ईश्वरीय देन है।
अध्याय 18 का श्लोक 15
शरीरवाङ्मनोभिः, यत्, कर्म, प्रारभते, नरः,
न्याय्यम्, वा, विपरीतम्, वा, पंच, एते, तस्य, हेतवः।। 15।।
मनुष्य मन, वाणी और शरीरसे शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है उसके ये पाँचों कारण हैं।
अध्याय 18 का श्लोक 16
तत्र, एवम्, सति, कर्तारम्, आत्मानम्, केवलम्, तु, यः,
पश्यति, अकृतबुद्धित्वात्, न, सः, पश्यति, दुर्मतिः।।16।।
परंतु ऐसा होनेपर भी जो मनुष्य अशुद्धबुद्धि होने के कारण उस विषयमें यानी कर्मोंके होनेमें केवल जीवात्मा अर्थात् जीव को कत्र्ता समझता है वह दुर्बुद्धिवाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता।
अध्याय 18 का श्लोक 17
यस्य, न, अहङ्कृृतः, भावः, बुद्धिः, यस्य, न, लिप्यते,
हत्वा, अपि, सः, इमान्, लोकान्, न, हन्ति, न, निबध्यते।।17।।
जिसे ‘मैं कत्र्ता हूँ‘ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि लिपायमान नहीं होती वह इन सब लोकोंको मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है।
अध्याय 18 का श्लोक 18
ज्ञानम्, ज्ञेयम्, परिज्ञाता, त्रिविधा, कर्मचोदना,
करणम्, कर्म, कर्ता, इति, त्रिविधः, कर्मसंग्रहः।।18।।
ज्ञाता ज्ञान और ज्ञेय यह तीन प्रकारकी कर्म-प्रेरणा है और कत्र्ता करनी तथा क्रिया यह तीन प्रकारका कर्म-संग्रह है।
अध्याय 18 का श्लोक 19
ज्ञानम्, कर्म, च, कर्ता, च, त्रिधा, एव, गुणभेदतः,
प्रोच्यते, गुणसङ्ख्याने, यथावत्, श्रृणु, तानि, अपि।।19।।
गुणोंकी संख्या करनेवाले शास्त्रमें ज्ञान और कर्म तथा कत्र्ता गुणोंके भेदसे तीन-तीन प्रकारके ही कहे गए हैं। उनको भी तू मुझसे भलीभाँति सुन।
अध्याय 18 का श्लोक 20
सर्वभूतेषु, येन, एकम्, भावम्, अव्ययम्, ईक्षते,
अविभक्तम्, विभक्तेषु, तत्, ज्ञानम्, विद्धि, सात्त्विकम्।।20।।
जिस ज्ञानसे मनुष्य पृथक्-पृथक् सब प्राणियोंमंि एक अविनाशी परमात्मा भावको विभागरहित समभावसे स्थित देखता है उस ज्ञानको तो तू सात्विक जान।
अध्याय 18 का श्लोक 21
पृथक्त्वेन, तु, यत्, ज्ञानम्, नानाभावान्, पृथग्विधान्,
वेत्ति, सर्वेषु, भूतेषु, तत्, ज्ञानम्, विद्धि, राजसम्।।21।।
किंतु जो ज्ञान सम्पूर्ण प्राणियोंमें भिन्न-भिन्न प्रकारके नाना भावोंको अलग-अलग जानता है उस ज्ञानको तू राजस जान।
अध्याय 18 का श्लोक 22
यत्, तु, कृत्स्न्नवत्, एकस्मिन्, कार्ये, सक्तम्, अहैतुकम्,
अतत्त्वार्थवत्, अल्पम्, च, तत्, तामसम्, उदाहृतम्।।22।।
परंतु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीरमें ही सम्पूर्णके सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला बिना सोचे व बिना कारण के तुच्छ है वह तामस कहा गया है।
अध्याय 18 का श्लोक 23
नियतम्, संगरहितम्, अरागद्वेषतः, कृतम्,
अफलप्रेप्सुना, कर्म, यत्, तत्, सात्त्विकम्, उच्यते।।23।।
जो कर्म शास्त्रानुकूल कत्र्तापनके अभिमानसे रहित हो तथा फल न चाहनेवाले द्वारा बिना राग द्वेषके किया गया हो वह सात्विक कहा जाता है।
अध्याय 18 का श्लोक 24
यत्, तु, कामेप्सुना, कर्म, साहंकारेण, वा, पुनः,
क्रियते, बहुलायासम्, तत्, राजसम्, उदाहृतम्।।24।।
परंतु जो कर्म बहुत परिश्रमसे युक्त होता है तथा भोगोंको चाहनेवाले पुरुष या अहंकारयुक्त किया जाता है वह कर्म राजस कहा गया है।
अध्याय 18 का श्लोक 25
अनुबन्धम्, क्षयम्, हिंसाम् अनवेक्ष्य, च, पौरुषम्,
मोहात्, आरभ्यते, कर्म, यत्, तत्, तामसम्, उच्यते।।25।।
जो कर्म परिणाम हानि हिंसा और सामथ्र्यको न विचारकर केवल अज्ञानसे आरम्भ किया जाता है वह कर्म तामस कहा जाता है।
अध्याय 18 का श्लोक 26
मुक्तसंगः, अनहंवादी, धृत्युत्साहसमन्वितः,
सिद्धयसिद्धयोः, निर्विकारः, कर्ता, सात्त्विकः, उच्यते।।26।।
कत्र्ता संगरहित अहंकारके वचन न बोलनेवाला धैर्य और उत्साहसे युक्त तथा कार्यके सिद्ध होने और न होनेमें विकारोंसे रहित सात्विक कहा जाता है।
अध्याय 18 का श्लोक 27
रागी, कर्मफलप्रेप्सुः, लुब्धः, हिंसात्मकः, अशुचिः,
हर्षशोकान्वितः, कर्ता, राजसः, परिकीर्तितः।।27।।
कत्र्ता आसक्तिसे युक्त कर्मोंके फलको चाहनेवाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देनेके स्वभाववाला अशुद्धाचारी और हर्ष-शोकसे लिप्त है वह राजस कहा गया है।
अध्याय 18 का श्लोक 28
अयुक्तः, प्राकृतः, स्तब्धः, शठः, नैष्कृतिकः, अलसः,
विषादी, दीर्घसूत्री, च, कर्ता, तामसः, उच्यते।।28।।
कत्र्ता अयुक्त स्वभाविक घमण्डी धूर्त और दूसरों की जीविकाका नाश करनेवाला तथा शोक करनेवाला आलसी और आज के कार्य को कल पर छोड़ना तामस कहा जाता है।
अध्याय 18 का श्लोक 29
बुद्धेः, भेदम्, धृतेः, च, एव, गुणतः, त्रिविधम्, श्रृणु,
प्रोच्यमानम्, अशेषेण, पृृथक्त्वेन, धनंजय।। 29।।
हे धनंजय! अब तू बुद्धिका और धृतिका भी गुणोंके अनुसार तीन प्रकारका भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णतासे विभागपूर्वक कहा जानेवाला सुन।
अध्याय 18 का श्लोक 30
प्रवृत्तिम्, च, निवृत्तिम्, च, कार्याकार्ये, भयाभये,
बन्धम्, मोक्षम्, च, या, वेति, बुद्धिः, सा, पार्थ, सात्त्विकी।।30।।
हे पार्थ! जो बुद्धि प्रवृतिमार्ग और निवृतिमार्गको कर्तव्य और अकर्तव्यको भय और अभयको तथा बन्धन और मोक्षको यथार्थ जानती है वह बुद्धि सात्विकी है।
अध्याय 18 का श्लोक 31
यया, धर्मम्, अधर्मम्, च, कार्यम्, च, अकार्यम्, एव, च,
अयथावत्, प्रजानाति, बुद्धिः, सा, पार्थ, राजसी।।31।।
हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धिके द्वारा धर्म और अधर्मको तथा कर्तव्य और अकर्तव्यको भी यथार्थ नहीं जानता वह बुद्धि राजसी है।
अध्याय 18 का श्लोक 32
अधर्मम्, धर्मम्, इति, या, मन्यते, तमसा, आवृता,
सर्वार्थान्, विपरीतान्, च, बुद्धिः, सा, पार्थ, तामसी।।32।।
हे अर्जुन! जो तमोगण्ुासे घिरी हुई बुद्धि अर्धमको भी ‘यह धर्म है‘ ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य सम्पूर्ण पदार्थोको भी विपरीत मान लेती है वह बुद्धि तामसी है।
अध्याय 18 का श्लोक 33
धृृत्या, यया, धारयते, मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः,
योगेन, अव्यभिचारिण्या, धृतिः, सा, पार्थ, सात्त्विकी।।33।।
हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी एक इष्ट पर आधारित धारणशक्तिसे मनुष्य भक्तियोगके द्वारा मन, स्वांस और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको धारण करता है वह धृति सात्विकी है।
अध्याय 18 का श्लोक 34
यया, तु, धर्मकामार्थान्, धृत्या, धारयते, अर्जुन,
प्रसंगेन, फलाकाङ्क्षी, धृृतिः, सा, पार्थ, राजसी।।34।।
परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फलकी इच्छावाला मनुष्य जिस धारणशक्तिके द्वारा अत्यन्त आसक्तिसे धर्म, अर्थ और कामोंको धारण करता है वह धारणभक्ति राजसी है।
अध्याय 18 का श्लोक 35
यया, स्वप्नम्, भयम्, शोकम्, विषादम्, मदम् एव, च,
न, विमु×चति, दुर्मेधाः, ध ृृतिः, सा, पार्थ, तामसी।।35।।
हे पार्थ! नीच स्वभाव वाला जिस निंद्रा भय चिन्ता और दुःखको तथा नशे को भी नहीं छोड़ता वह भक्तिधारणा तामसी है।
अध्याय 18 का श्लोक 36-37
सुखम्, तु, इदानीम्, त्रिविधम्, श्रृणु, मे, भरतर्षभ,
अभ्यासात्, रमते, यत्र, दुःखान्तम्, च, निगच्छति।।36।।
यत्, तत्, अग्रे, विषम्, इव, परिणामे, अमृतोपमम्,
तत्, सुखम्, सात्त्विकम्, प्रोक्तम्, आत्मबुद्धिप्रसादजम्।।37।।
हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकारके सुखको भी तू मुझसे सुन। जिस भजन अभ्यासमें लीन रहता है और जिससे दुःखोंके अन्तको प्राप्त हो जाता है जो ऐसा सुख है वह आरम्भकालमें यद्यपि विषके तुल्य प्रतीत होता है परंतु परिणाममें अमृतके तुल्य है इसलिये वह परमात्मविषयक बुद्धिके प्रसादसे उत्पन्न होनेवाला सुख सात्विक कहा गया है।
अध्याय 18 का श्लोक 38
विषयेन्द्रियसंयोगात्, यत्, तत्, अगे्र, अमृतोपमम्,
परिणामे, विषम्, इव, तत्, सुखम्, राजसम्, स्मृतम्।।38।।
जो सुख विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे होता है वह पहले भोगकालमें अमृतके तुल्य प्रतीत होनेपर भी परिणाममें विषके तुल्य है इसलिये वह सुख राजस कहा गया है।
अध्याय 18 का श्लोक 39
यत्, अग्रे, च, अनुबन्धे, च, सुखम् मोहनम्, आत्मनः,
निद्रालस्यप्रमादोत्थम्, तत्, तामसम्, उदाहृतम्।।39।।
जो सुख तथा पहले भोगकालमें तथा परिणाममें आत्माको मोहित करनेवाला है वह निंद्रा आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है।
अध्याय 18 का श्लोक 40
न, तत्, अस्ति, पृथिव्याम्, वा, दिवि, देवेषु, वा, पुनः,
सत्त्वम्, प्रकृतिजैः, मुक्तम्, यत्, एभिः, स्यात्, त्रिभिः, गुणैः।।40।।
पृथ्वीमें या आकाशमें अथवा देवताओंमें फिर कहीं भी वह ऐसा कोई भी सत्व नहीं है जो प्रकृृतिसे उत्पन्न इन तीनों गुणोंसे रहित हो।
अध्याय 18 का श्लोक 41
ब्राह्मणक्षत्रियविशाम्, शूद्राणाम्, च, परन्तप,
कर्माणि, प्रविभक्तानि, स्वभावप्रभवैः, गुणैः।।41।।
हे परन्तप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके तथा शूद्रोंके कर्म स्वभावसे उत्पन्न गुणोंके द्वारा विभक्त किये गये हैं।
अध्याय 18 का श्लोक 42
शमः, दमः, तपः, शौचम्, क्षान्तिः, आर्जवम्, एव, च,
ज्ञानम्, विज्ञानम्, आस्तिक्यम्, ब्रह्मकर्म, स्वभावजम्।।42।।
छूआ छूत रहित तथा सुख दुःख को प्रभु कृप्या जानना इन्द्रियोंका दमन करना धार्मिंक नियमों के पालनके लिये कष्ट सहना बाहर-भीतरसे शुद्ध रहना अर्थात् छलकपट रहित रहना दूसरोंके अपराधोंको क्षमा करना मन, इन्द्रिय और शरीरको सरल रखना शास्त्र विधि अनुसार भक्ति से परमेश्वर तथा उसके सत्लोक में श्रद्धा रखना प्रभु भक्ति बहुत आवश्यक है। नहीं तो मानव जीवन व्यर्थ है, यह साधारण ज्ञान तथा पूर्ण परमात्मा कौन है, कैसा है? उसकी प्राप्ति की विधि क्या है इस प्रकार का ज्ञान और परमात्माके तत्वज्ञान को जानना तथा अन्य तीनों वर्णों को शास्त्र विधि अनुसार साधना समझाना ही ब्रह्म के विषय में कत्र्तव्य कर्म को जानने वाले ब्रह्मण के कर्म हैं। जो स्वभाव जनित होते हैं क्योंकि भगवान प्राप्ति के विषय में भक्त के स्वाभाविक कर्म हैं।
अध्याय 18 का श्लोक 43
शौर्यम्, तेजः, धृतिः, दाक्ष्यम्, युद्धे, च, अपि, अपलायनम्,
दानम्, ईश्वरभावः, च, क्षात्राम्, कर्म, स्वभावजम्।।43।।
शूर-वीरता तेज धैर्य चतुरता और युद्धमें भी न भागना दान देना और पूर्ण परमात्मामंे रूचि स्वामिभाव ये सब के सब ही क्षत्रियके स्वाभाविक कर्म हैं।
अध्याय 18 का श्लोक 44
कृृषिगौरक्ष्यवाणिज्यम्, वैश्यकर्म, स्वभावजम्,
परिचर्यात्मकम्, कर्म, शूद्रस्य, अपि, स्वभावजम्।।44।।
खेती, गऊ रक्षा और उदर के लिए परमात्मा प्राप्ति का सौदा करना ये वैश्यके स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णोंकी सेवा तथा पूर्ण प्रभु की भक्ति करना शूद्रका भी स्वाभाविक कर्म है।
अध्याय 18 का श्लोक 45
स्वे, स्वे, कर्मणि, अभिरतः, संसिद्धिम्, लभते, नरः,
स्वकर्मनिरतः, सिद्धिम्, यथा, विन्दति, तत्, श्रृृणु।।45।।
अपने-अपने स्वाभाविक व्यवहारिक कर्मों तथा सत् भक्ति रूपी कर्मों में तत्परतासे लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है अपने स्वाभाविक कर्ममें लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकारसे परम सिद्धिको प्राप्त होता है उस विधिको तू सुन।
अध्याय 18 का श्लोक 46
यतः, प्रवृत्तिः, भूतानाम्, येन्, सर्वम्, इदम्, ततम्,
स्वकर्मणा, तम्, अभ्यच्र्य, सिद्धिं, विन्दति, मानवः।।46।।
जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह माया रूप समस्त जगत् व्याप्त है उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा अर्थात् हठ योग न करके सांसारिक कार्य करता हुआ पूजा करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।
अध्याय 18 का श्लोक 47
श्रेयान्, स्वधर्मः, विगुणः, परधर्मात्, स्वनुष्ठितात्,
स्वभावनियतम्, कर्म, कुर्वन्, न, आप्नोति, किल्बिषम्।।47।।
गुण रहित स्वयं मनमाना अर्थात् शास्त्र विधि रहित अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरेके धर्म अर्थात् धार्मिक पूजा से अपना धर्म अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार धार्मिक पूजा श्रेष्ठ है अपने वर्ण के स्वभाविक अर्थात् जो भी जिस क्षत्री, वैश्य, ब्राह्मण व शुद्र वर्ण में उत्पन्न है कर्म तथा भक्ति कर्म करता हुआ पापको प्राप्त नहीं होता।
अध्याय 18 का श्लोक 48
सहजम्, कर्म, कौन्तेय, सदोषम्, अपि, न, त्यजेत्,
सर्वारम्भाः, हि, दोषेण, धूमेन, अग्निः, इव, आवृताः।।48।।
हे कुन्तीपुत्र! दोष युक्त होने पर भी सहज योग अर्थात् वर्णानुसार कार्य करते हुए शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्मको नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि धूएँसे अग्निकी भाँति सभी कर्म दोषसे युक्त हैं।
भावार्थ:-- जिस भी व्यक्ति का जिस वर्ण (ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रीव शुद्र कुल) में जन्म है उस के कर्म में पाप भी समाया है। जैसे ब्राह्मण हवन करता है उसमें प्राणियों कि हिंसा होती है। वैश्य खेती व व्यापार करता है, क्षत्री शत्रु से युद्ध करता है। शुद्र सफाई आदि सेवा करता है। प्रत्येक कर्म में हिंसा होती है। फिर भी त्यागने योग्य कर्म नहीं है। क्योंकि इन कर्मों में हिंसा करना उद्देश्य नहीं होता। यदि देखा जाए तो सर्व उपरोक्त कर्म दोष युक्त हैं। तो भी प्रभु आज्ञा होने से कत्र्तव्य कर्म हैं। यही प्रमाण अध्याय 4 श्लोक 21 में है कि शरीर समबन्धि कर्म करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता। गीता अध्याय 18 श्लोक 56 में भी है।
अध्याय 18 का श्लोक 49
असक्तबुद्धिः, सर्वत्र, जितात्मा, विगतस्पृहः,
नैष्कम्र्यसिद्धिम्, परमाम्, सóयासेन, अधिगच्छति।।49।।
सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला स्पृहारहित और बुरे कर्मों से विजय प्राप्त भक्त आत्मा तत्व ज्ञान के अतिरिक्त सर्व ज्ञनों से सन्यास प्राप्त करने वाले द्वारा उस परम अर्थात् सर्व श्रेष्ठ पूर्ण पाप विनाश होने पर जो पूर्ण मुक्ति होती है, उस सिद्धि अर्थात् परमगति को प्राप्त होता है।
अध्याय 18 का श्लोक 50
सिद्धिम्, प्राप्तः, यथा, ब्रह्म, तथा, आप्नोति, निबोध, मे,
समासेन, एव, कौन्तेय, निष्ठा, ज्ञानस्य, या, परा।।50।।
जो कि ज्ञानकी श्रेष्ठ उपलब्धि है उस नैष्कम्र्यसिद्धिको जिसे प्राप्त होकर परमात्मा को प्राप्त होता ह उस प्रकारको हे कुन्तीपुत्र! तू संक्षेपमें ही मुझसे समझ।
अध्याय 18 का श्लोक 51
बुद्धया, विशुद्धया, युक्तः, धृृत्या, आत्मानम्, नियम्य, च,
शब्दादीन्, विषयान्, त्यक्त्वा, रागद्वेषौ, व्युदस्य, च।।51।।
विशुद्ध बुद्धिसे युक्त तथा सात्विक धारण शक्ति के द्वारा अपने आप को संयमी करके और शब्दादी विकारों को त्यागकर राग द्वेष को सर्वदा नष्ट करके
गीता अध्याय 18 श्लोक 52
विविक्तसेवी, लघ्वाशी, यतवाक्कायमानसः,
ध्यानयोगपरः, नित्यम्, वैराग्यम्, समुपाश्रितः।।52।।
अन्न जल का संयमी व्यर्थ वार्ता से बच कर एकान्त प्रेमी मन-कर्म वचन पर संयम करने वाला निरन्तर सहज ध्यान योग के प्रायाण वैराग्य का आश्रय लेने वाला
गीता अध्याय 18 श्लोक 53
अहंकारम्, बलम्, दर्पम्, कामम्, क्रोधम्, परिग्रहम्,
विमुच्य निर्ममः, शान्तः, ब्रह्मभूयाय, कल्पते।।53।।
अहंकार शक्ति घमण्ड काम अर्थात् विलास क्रोध परिग्रह अर्थात् आवश्यकता से अधिक संग्रह का त्याग करके ममता रहित शान्त साधक पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होने का पात्र होता है।
अध्याय 18 का श्लोक 54
ब्रह्मभूतः, प्रसन्नात्मा, न, शोचति, न, काङ्क्षति,
समः, सर्वेषु, भूतेषु, मद्भक्तिम्, लभते, पराम्।।54।।
परमात्मा प्राप्ति योग्य हुआ प्राणी प्रसन्न मनवाला योगी न शोक करता है न आकांक्षा ही करता है ऐसा समस्त प्राणियोंमें एक जैसा भाव वाला मेरे वाली शास्त्रानुकूल श्रेष्ठ भक्ति को प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ:-- इस श्लोक 54 का भावार्थ है कि जो प्रथम ब्रह्म गायत्री मन्त्र साधक को प्रदान किया जाता है जिस से सर्व कमल चक्र खुल जाते हैं अर्थात् कुण्डलनि शक्ति जागृृत हो जाती है वह उपासक परमात्मा प्राप्ति का पात्र बन जाता है। उस सुपात्र को ब्रह्म काल की परम भक्ति का मन्त्र ओं (ॐ) दिया जाता है। ओम्$तत् मिलकर दो अक्षर का सत्यनाम बनता है। इससे पूर्ण मोक्ष मार्ग प्रारम्भ होता है। इसलिए इस गीता अध्याय 18 श्लोक 54 में वर्णन है।
अध्याय 18 का श्लोक 55
भक्त्या, माम्, अभिजानाति, यावान्, यः, च, अस्मि, तत्त्वतः,
ततः, माम्, तत्त्वतः, ज्ञात्वा, विशते, तदनन्तरम्।।55।।
वह भक्त मुझ को जो और जितना हूँ, ठीक वैसा का वैसा तत्वसे जान लेता है तथा उस भक्तिसे मुझको तत्वसे जानकर तत्काल ही पूर्ण परमात्मा की भक्ति में लीन हो जाता है।
अध्याय 18 का श्लोक 56
सर्वकर्माणि, अपि, सदा, कुर्वाणः, मद्व्यपाश्रयः,
मत्प्रसादात्, अवाप्नोति, शाश्वतम्, पदम्, अव्ययम्।।56।।
मेरे द्वारा बताए शास्त्रानुकूल मार्ग के आश्रित अर्थात् मतावलम्बी सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरे उस मत अर्थात् शास्त्रानुकूल साधना के पूर्ण ज्ञान की कृृप्यासे सनातन अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है।
नोट: मत का भाव है कि जैसे कहते हैं कि संतमत सतसंग अर्थात् संतों द्वारा दिए गए विचारों के आधार पर परमात्मा का विवरण (सतसंग)। मत का अर्थात् प्रकरण अनुसार मेरा भी होता है।
अध्याय 18 का श्लोक 57
चेतसा, सर्वकर्माणि, मयि, सóयस्य, मत्परः,
बुद्धियोगम्, उपाश्रित्य, मच्चित्तः, सततम्, भव।।57।।
सब कर्मोंको मनसे त्याग कर तथा ज्ञान योगको आश्रय करके मेरे मत पर आधारित होकर और निरन्तर मेरे में चितवाला हो।
अध्याय 18 का श्लोक 58
मच्चित्तः, सर्वदुर्गाणि, मत्प्रसादात्, तरिष्यसि,
अथ, चेत्, त्वम्, अहंकारात्, न, श्रोष्यसि, विनङ्क्ष्यसि।।58।।
मेरे में चितवाला होकर तू मेरे द्वारा बताई शास्त्रानुकूल विचार धारा की कृप्यासे समस्त संकटोंको अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकारके कारण मेरे वचनोंको न सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात् योग भ्रष्ट हो गया तो नष्ट हो जाएगा। यही प्रमाण अध्याय 6 श्लोक 40.46 तक है।
अध्याय 18 का श्लोक 59
यत्, अहंकारम्, आश्रित्य, न, योत्स्ये, इति, मन्यसे,
मिथ्या, एषः, व्यवसायः, ते, प्रकृतिः, त्वाम्, नियोक्ष्यति।।59।।
जो तू अहंकारका आश्रय लेकर यह मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या है क्योंकि तेरा क्षत्री स्वभाव तुझे जबरदस्ती युद्धमें लगा देगा।
अध्याय 18 का श्लोक 60
स्वभावजेन, कौन्तेय, निबद्धः, स्वेन्, कर्मणा,
कर्तुम्, न, इच्छसि, यत्, मोहात्, करिष्यसि, अवशः, अपि, तत्।।60।।
हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्मको तू मोहके कारण करना नहीं चाहता उसको भी अपनेपूर्वकृत स्वाभाविक क्षत्री कर्मसे बँधा हुआ परवश होकर करेगा।
अध्याय 18 का श्लोक 61
ईश्वरः, सर्वभूतानाम्, हृद्देशे, अर्जुन, तिष्ठति,
भ्रामयन्, सर्वभूतानि, यन्त्ररूढानि, मायया।।61।।
हे अर्जुन! शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी ईश्वर अपनी मायासे उनके कर्मोंके अनुसार भ्रमण करवाता हुआ सब प्राणियोंके हृदयमें स्थित है।
अध्याय 18 का श्लोक 62
तम्, एव, शरणम्, गच्छ, सर्वभावेन, भारत,
तत्प्रसादात्, पराम्, शान्तिम्, स्थानम्, प्राप्स्यसि, शाश्वतम्।।62।।
हे भारत! तू सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपा से ही तू परम शान्तिको तथा सदा रहने वाला सत स्थान/धाम/लोक को अर्थात् सत्लोक को प्राप्त होगा।
अध्याय 18 का श्लोक 63
इति, ते, ज्ञानम्, आख्यातम्, गुह्यात्, गुह्यतरम्, मया,
विमृश्य, एतत्, अशेषेण, यथा, इच्छसि, तथा, कुरु।।63।।
इस प्रकार गोपनीयसे अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया इस रहस्ययुक्त ज्ञानको पूर्णतया भलीभाँति विचारकर जैसे चाहता है वैसे ही कर।
अध्याय 18 का श्लोक 64
सर्वगुह्यतमम्, भूयः, श्रृणु, मे, परमम्, वचः,
इष्टः, असि, मे, दृढम्, इति, ततः, वक्ष्यामि, ते, हितम्।।64।।
सम्पूर्ण गोपनीयोंसे अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त हितकारक वचन तुझे फिर कहूँगा इसे सुन यह पूर्ण ब्रह्म मेरा पक्का निश्चित इष्टदेव अर्थात् पूज्यदेव है।
अध्याय 18 का श्लोक 65
मन्मनाः, भव, मद्भक्तः, मद्याजी, माम्, नमस्कुरु,
माम्, एव, एष्यसि, सत्यम्, ते, प्रतिजाने, प्रियः, असि, मे।।65।।
एक मनवाला मेरा मतानुसार भक्त हो मतानुसार मेरा पूजन करनेवाला मुझको प्रणाम कर। मुझे ही प्राप्त होगा तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ मेरा अत्यन्त प्रिय है।
अध्याय 18 का श्लोक 66
सर्वधर्मान्, परित्यज्य, माम्, एकम्, शरणम्, व्रज,
अहम्, त्वा, सर्वपापेभ्यः, मोक्षयिष्यामि, मा, शुचः।।66।।
गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में जिस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है इस श्लोक 66 में भी उसी के विषय में कहा है कि मेरी सम्पूर्ण पूजाओंको मुझ में त्यागकर तू केवल एक उस अद्वितीय अर्थात् पूर्ण परमात्मा की शरणमें जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे छुड़वा दूँगा तू शोक मत कर।
विशेष:- अन्य गीता अनुवाद कर्ताओं ने ‘‘व्रज्’’ शब्द का अर्थ आना किया है जो अनुचित है ‘‘व्रज्’’ शब्द का अर्थ जाना, चला जाना आदि होता है।
भावार्थ:- श्लोक 63 का भावार्थ है कि गीता ज्ञान दाता ब्रह्म कह रहा है कि हे अर्जुन! यह गीता वाला अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझे कह दिया। फिर श्लोक 64 में गीता ज्ञानदाता एक और सम्पूर्ण गोपनीयों से भी गोपनीय वचन कहता है कि वह परमेश्वर जिस के विषय में श्लोक 62 में कहा है वह परमेश्वर मेरा (गीता ज्ञान दाता) का ईष्ट देव अर्थात् पूज्य देव है यही प्रमाण अध्याय 15 श्लोक 4 में भी कहा है कि मैं भी उस परमेश्वर की शरण हूँ। इससे सिद्ध है कि गीता ज्ञान दाता प्रभु से कोई अन्य सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर है वही पूजा के योग्य है। यही प्रमाण अध्याय 15 श्लोक 17 में भी है गीता ज्ञान दाता प्रभु कहता है कि अध्याय 15 श्लोक 16 में वर्णित क्षर पुरूष (ब्रह्म) तथा अक्षर पुरूष (परब्रह्म) से भी श्रेष्ठ परमेश्वर तो उपरोक्त दोनों से अन्य ही है वही वास्तव में परमात्मा कहलाता है। वह वास्तव में अविनाशी है। उसी की शरण में जाने के लिए कहा है।
अध्याय 18 का श्लोक 67
इदम्, ते, न, अतपस्काय, न, अभक्ताय, कदाचन,
न, च, अशुश्रुषवे, वाच्यम्, न, च, माम्, यः, अभ्यसूयति।।67।।
तुझे यह गीतारूप रहस्यमय उपदेश किसी भी कालमें न तो तपरहित मनुष्यसे कहना चाहिए न भक्तिरहितसे और न बिना सुननेकी इच्छावालेसे ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृृष्टि रखता है नहीं कहना चाहिए।
अध्याय 18 का श्लोक 68
यः, इमम्, परमम्, गुह्यम्, मद्भक्तेषु, अभिधास्यति,
भक्तिम्, मयि, पराम्, कृृत्वा, माम्, एव, एष्यति, असंशयः।।68।।
जो पुरुष मुझमें परम भक्ति करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्रो भक्तोंमें कहेगा वह मुझको ही प्राप्त हेागा इसमें कोई संदेह नहीं है।
अध्याय 18 का श्लोक 69
न, च, तस्मात्, मनुष्येषु, कश्चित्, मे, प्रियकृत्तमः,
भविता, न, च, मे, तस्मात्, अन्यः, प्रियतरः, भुवि।।69।।
उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभरमें उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्यमें होगा भी नहीं।
अध्याय 18 का श्लोक 70
अध्येष्यते, च, यः, इमम्, धम्र्यम्, संवादम्, आवयोः,
ज्ञानयज्ञेन, तेन, अहम्, इष्टः, स्याम्, इति, मे, मतिः।।70।।
जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनोंके संवादरूप गीताशास्त्रको पढ़ेगा उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञसे पूज्यदेव होऊँगा ऐसा मेरा मत है।
अध्याय 18 का श्लोक 71
श्रद्धावान्, अनसूयः, च, श्रृणुयात्, अपि, यः, नरः,
सः, अपि, मुक्तः, शुभान्, लोकान्, प्राप्नुयात्, पुण्यकर्मणाम्।।71।।
जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोष-दृष्टिसे रहित होकर इस गीताशास्त्रका श्रवण भी करेगा, वह भी मुक्त होकर उत्तम कर्म करनेवालोंके श्रेष्ठ लोकोंको प्राप्त होगा।
अध्याय 18 का श्लोक 72
कच्चित्, एतत्, श्रुतम्, पार्थ, त्वया, एकाग्रेण, चेतसा,
कच्चित्, अज्ञानसम्मोहः, प्रनष्टः, ते, धन×जय।। 72।।
हे पार्थ! क्या इस गीताशास्त्रको तूने एकाग्रचितसे श्रवण किया और हे धन×जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया।
अध्याय 18 का श्लोक 73
(अर्जुन उवाच)
नष्टः, मोहः, स्मृतिः, लब्धा, त्वत्प्रसादात्, मया, अच्युत,
स्थितः, अस्मि, गतसन्देहः, करिष्ये, वचनम्, तव।।73।।
हे अच्युत! आपकी कृप्यासे मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया संश्यरहित होकर स्थित हूँ अतः आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।
अध्याय 18 का श्लोक 74
(संजय उवाच)
इति, अहम्, वासुदेवस्य, पार्थस्य, च, महात्मनः,
संवादम्, इमम्, अश्रौषम्, अद्भुतम्, रोमहर्षणम्।।74।।
इस प्रकार मैंने श्रीवासुदेवके और महात्मा अर्जुनके इस अद्भुत रहस्ययुक्त रोमांचकारक संवादको सुना।
अध्याय 18 का श्लोक 75
व्यासप्रसादात्, श्रुतवान्, एतत्, गुह्यम्, अहम्, परम्
योगम्, योगेश्वरात्, कृष्णात्, साक्षात्, कथयतः, स्वयम्।।75।।
श्रीव्यासजीकी कृप्यासे दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योगको अर्जुनके प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णसे प्रत्यक्ष सुना है।
अध्याय 18 का श्लोक 76
राजन्, संस्मृत्य, संस्मृत्य, संवादम्, इमम्, अद्भुतम्,
केशवार्जुनयोः, पुण्यम्, हृष्यामि, च, मुहुर्मुहुः।।76।।
हे राजन् भगवान् श्रीकृृष्ण और अर्जुनके इस रहस्ययुक्त कल्याणकारक और अद्भुत संवादको पुनः-पुनः सुमरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
अध्याय 18 का श्लोक 77
तत्, च, संस्मृत्य, संस्मृत्य, रूपम्, अति, अद्भुतम्, हरेः,
विस्मयः, मे, महान्, राजन्, हृष्यामि, च, पुनः, पुनः।।77।।
हे राजन्! श्रीहरिके उस अत्यन्त विलक्षण रूपको भी पुनः-पुनः सुमरण करके मेरे चितमें महान् आश्चर्य होता है और बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
अध्याय 18 का श्लोक 78
यत्र, योगेश्वरः, कृष्णः, यत्र, पार्थः, धनुर्धरः,
तत्र श्रीः, विजयः, भूतिः, ध्रुवा, नीतिः, मतिः, मम।।78।।
जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं वहींपर श्री विजय विभूति और अचल नीति है मेरा मत है।
Chapter 18 Of Bhagwat Geeta