Chapter 11 of the Bhagavad Gita is titled "Vishwarupa Darshana Yoga" or the "Yoga of the Vision of the Universal Form." This chapter is one of the most significant and awe-inspiring sections of the Bhagavad Gita, where Lord Krishna reveals his divine universal form (Vishwarupa) to Arjuna. Here's an overview:
1. **Arjuna's Request**: Arjuna requests Lord Krishna to reveal his divine form, wanting to behold the true nature of the Supreme Being.
2. **Krishna's Revelation**: Lord Krishna grants Arjuna divine vision, enabling him to perceive the vast and magnificent universal form that encompasses the entire cosmos. Arjuna sees countless celestial beings, gods, and cosmic manifestations within Krishna's form.
3. **Description of the Universal Form**: Arjuna witnesses the universal form of Krishna, which is described as infinite, radiant, and awe-inspiring. He sees numerous mouths, eyes, and limbs, symbolizing the all-encompassing nature of the divine.
4. **Arjuna's Reaction**: Overwhelmed by the grandeur and ferocity of the universal form, Arjuna is filled with awe and fear. He realizes the incomprehensible power and magnitude of the Supreme Being.
5. **Dialogue Between Krishna and Arjuna**: Arjuna expresses his reverence and fear in witnessing Krishna's cosmic form. He seeks forgiveness for any offense caused by his previous familiarity with Krishna as a friend.
6. **Krishna's Comforting Words**: Lord Krishna assures Arjuna and comforts him, explaining that his vision of the universal form is a rare privilege granted to him due to his devotion. He encourages Arjuna to dispel his fear and continue his duties as a warrior.
7. **Arjuna's Surrender**: Overwhelmed with reverence, Arjuna surrenders himself completely to Krishna, acknowledging him as the supreme ruler of the universe and seeking refuge in his divine grace.
8. **Krishna's Final Instructions**: Lord Krishna imparts further spiritual teachings to Arjuna, emphasizing the importance of devotion, surrender, and selfless action. He reassures Arjuna of his divine protection and guidance in the battlefield of life.
In summary, Chapter 11 of the Bhagavad Gita portrays the awe-inspiring revelation of Krishna's universal form to Arjuna, highlighting the incomprehensible power and grandeur of the Supreme Being. It underscores the significance of devotion, surrender, and righteous action in realizing the ultimate truth and attaining liberation.
अध्याय 11 का श्लोक 1
(अर्जुन उवाच)
मदनुग्रहाय, परमम्, गुह्यम्, अध्यात्मस×िज्ञतम्,
यत्, त्वया, उक्तम्, वचः, तेन, मोहः, अयम्, विगतः, मम।।1।।
आपने कृप्या करने के लिए शास्त्रों के अनुकूल विचार जो श्रेष्ठ गुप्त अध्यात्मिकविषयक वचन अर्थात् उपदेश कहा उससे मेरा यह मोह नष्ट हो गया।
अध्याय 11 का श्लोक 2
भवाप्ययौ, हि, भूतानाम्, श्रुतौ, विस्तरशः, मया,
त्वत्तः, कमलपत्रक्ष, माहात्म्यम्, अपि, च, अव्ययम्।।2।।
क्योंकि हे कमलनेत्र! मैंने आपसे प्राणियोंकी उत्पति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है।
अध्याय 11 का श्लोक 3
एवम्, एतत्, यथा, आत्थ, त्वम्, आत्मानम्, परमेश्वर,
द्रष्टुम्, इच्छामि, ते, रूपम्, ऐश्वरम्, पुरुषोत्तम।।3।।
हे परमेश्वर! आप अपनेको जैसा कहते हैं यह ठीक ऐसा ही है परंतु हे पुरुषोत्तम्! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, याक्ति, बल, वीर्य और तेजसे युक्त ईश्वरीय-रूपको मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ।
अध्याय 11 का श्लोक 4
मन्यसे, यदि, तत्, शक्यम्, मया, द्रष्टुम्, इति, प्रभो,
योगेश्वर, ततः, मे, त्वम्, दर्शय, आत्मानम्, अव्ययम्।।4।।
हे प्रभो! यदि मेरेद्वारा आपका वह रूप देखा जाना शक्य है ऐसा आप मानते हंै तो हे योगेश्वर! आप असली अविनाशी स्वरूप के मुझे दर्शन कराइये।
अध्याय 11 का श्लोक 5
(श्री भगवान उवाच)
पश्य, मे, पार्थ, रूपाणि, शतशः, अथ, सहस्त्रशः,
नानाविधानि, दिव्यानि, नानावर्णाकृतीनि, च।।5।।
हे पार्थ! अब तू मेरे सैकड़ों हजारों नाना प्रकारके और नाना वर्ण तथा नाना आकृतिवाले अलौकिक रूपोंको देख।
अध्याय 11 का श्लोक 6
पश्य, आदित्यान्, वसून्, रुद्रान्, अश्विनौ, मरुतः, तथा,
बहूनि, अदृष्टपूर्वाणि, पश्य, आश्चर्याणि, भारत।।6।।
हे भरतवंशी अर्जुन! मुझमें आदित्योंको अर्थात् अदितिके द्वादश पुत्रोंको आठ वसुओंको एकादश रुद्रोंको दोनों अश्विनीकुमारोंको और उनचास मरुद्रणोंको देख तथा और भी बहुत से पहले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपोंको देख।
अध्याय 11 का श्लोक 7
इह, एकस्थम्, जगत्, कृृत्स्न्नम्, पश्य, अद्य, सचराचरम्,
मम, देहे, गुडाकेश, यत्, च, अन्यत्, द्रष्टुम्, इच्छसि।।7।।
हे अर्जुन! अब इस मेरे शरीरमें एक जगह स्थित चराचरसहित सम्पूर्ण जगत्को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहता हो सो देख।
अध्याय 11 का श्लोक 8
न, तु, माम्, शक्यसे, द्रष्टुम्, अनेन, एव, स्वचक्षुषा,
दिव्यम्, ददामि, ते, चक्षुः, पश्य, मे, योगम्, ऐश्वरम्।।8।।
परंतु मुझको तू इन अपने प्राकृत नेत्रोंद्वारा देखनेमें निःसंदेह समर्थ नहीं है इसीसे मैं तुझे दिव्य अर्थात् अलौकिक चक्षु देता हूँ उससे तू मेरी ईश्वरीय योगशक्तिको देख।
अध्याय 11 का श्लोक 9
(संजय उवाच)
एवम्, उक्त्वा, ततः, राजन्, महायोगेश्वरः, हरिः,
दर्शयामास, पार्थाय, परमम्, रूपम्, ऐश्वरम्।।9।।
हे राजन्! महायोगेश्वर और भगवान्ने इस प्रकार कहकर उसके पश्चात् अर्जुनको परम ऐश्वर्ययुक्त स्वरूप दिखलाया।
अध्याय 11 का श्लोक 10-11
अनेकवक्त्रनयनम्, अनेकाद्भुतदर्शनम्,
अनेकदिव्याभरणम्, दिव्यानेकोद्यतायुधम्।।10।।
दिव्यमाल्याम्बरधरम्, दिव्यगन्धानुलेपनम्,
सर्वाश्चर्यमयम्, देवम्, अनन्तम्, विश्वतोमुखम्।।11।।
अनेक मुख और नेत्रोंसे युक्त अनेक अद्धभुत दर्शनोंवाले बहुत से दिव्य भूषणोंसे युक्त और बहुत से दिव्य शस्त्रोंको हाथोंमें उठाये हुए दिव्य माला और वस्त्रोंको धारण किये हुए और दिव्य गन्धका सारे शरीरमें लेप किये हुए सब प्रकारके आश्चयर्कोंसे युक्त सीमारहित और सब ओर मुख किये हुए विराट्स्वरूप भगवान को अर्जुनने देखा।
अध्याय 11 का श्लोक 12
दिवि, सूर्यसहस्त्रस्य, भवेत्, युगपत्, उत्थिता,
यदि, भाः, सदृशी, सा, स्यात्, भासः, तस्य, महात्मनः।।12।।
आकाशमें हजार सूर्योंके एक साथ उदय होनेसे उत्पन्न जो प्रकाश हो वह भी उस परमात्माके प्रकाशके सदृश कदाचित् ही हो।
अध्याय 11 का श्लोक 13
तत्र, एकस्थम्, जगत्, कृत्स्न्नम्, प्रविभक्तम्, अनेकधा,
अपश्यत्, देवदेवस्य, शरीरे, पाण्डवः, तदा।।13।।
पाण्डुपुत्र अर्जुनने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त अर्थात् पृथक्-पृथक् सम्पूर्ण जगत्को देवोंके देव श्रीकृष्णभगवान्के उस शरीरमें एक जगह स्थित देखा।
अध्याय 11 का श्लोक 14
ततः, सः, विस्मयाविष्टः, हृष्टरोमा, धन×जयः,
प्रणम्य, शिरसा, देवम्, कृृता×जलिः, अभाषत।। 14।।
उसके अनन्तर वह आश्चर्यसे चकित और पुलकित शरीर अर्जुन काल देव से सिरसे प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोला।
अध्याय 11 का श्लोक 15
(अर्जुन उवाच)
पश्यामि, देवान्, तव, देव, देहे, सर्वान्, तथा, भूतविशेषसंघान्, ब्रह्माणम्,
ईशम्, कमलासनस्थम्, ऋषीन्, च, सर्वान्, उरगान्, च, दिव्यान्।।15।।
हे देव! आपके शरीरमें सम्पूर्ण देवोंको तथा अनेक भूतोंके समुदायोंको कमलके आसनपर विराजित ब्रह्माको महादेवको और सम्पूर्ण ऋषियोंको तथा दिव्य सर्पोंको देखता हूँ।
अध्याय 11 का श्लोक 16
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम्, पश्यामि, त्वाम्, सर्वतः, अनन्तरूपम्, न, अन्तम्,
न, मध्यम्, न, पुनः, तव, आदिम्, पश्यामि, विश्वेश्वर, विश्वरूप।।16।।
हे सम्पूर्ण विश्वके स्वामिन्! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख और नेत्रोंसे युक्त तथा सब ओरसे अनन्त रूपोंवाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अन्तको देखता हूँ न मध्यको और न आदिको ही।
अध्याय 11 का श्लोक 17
किरीटिनम्, गदिनम्, चक्रिणम्, च, तेजोराशिम्, सर्वतः, दीप्तिमन्तम्,
पश्यामि, त्वाम्, दुर्निरीक्ष्यम्, समन्तात्, दीप्तानलार्कद्युतिम्, अप्रमेयम्।।17।।
आपको मैं मुकुटयुक्त गदायुक्त और चक्रयुक्त तथा सब ओरसे प्रकाशमान तेज पुंज के प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त कठिनतासे देखे जाने योग्य और सब ओरसे अप्रमेयस्वरूप देखता हूँ।
अध्याय 11 का श्लोक 18
त्वम्, अक्षरम्, परमम्, वेदितव्यम्, त्वम्, अस्य, विश्वस्य, परम्, निधानम्, त्वम्,
अव्ययः, शाश्वतधर्मगोप्ता, सनातनः, त्वम्, पुरुषः, मतः, मे।।18।।
आप ही जानने योग्य परम अक्षर अर्थात् परब्रह्म परमात्मा हैं आप ही इस जगत्के परम आश्रय हैं आप ही अनादि धर्मके रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं ऐसा मेरा मत है।
अध्याय 11 का श्लोक 19
अनादिमध्यान्तम्, अनन्तवीर्यम्, अनन्तबाहुम्, शशिसूर्यनेत्रम्,
पश्यामि, त्वाम्, दीप्तहुताशवक्त्रम्, स्वतेजसा, विश्वम्, इदम्, तपन्तम्।।19।।
आपको आदि, अन्त और मध्यसे रहित, अनन्त सामथ्र्यसे युक्त अनन्त भुजावाले चन्द्र सूर्यरूप नेत्रोंवाल प्रज्वलित अग्निरूप मुखवाले और अपने तेजसे इस जगत्को संतप्त करते हुए देखता हूँ।
अध्याय 11 का श्लोक 20
द्यावापृृथिव्योः, इदम्, अन्तरम्, हि, व्याप्तम्, त्वया, एकेन, दिशः, च, सर्वाः,
दृष्टवा, अद्भुतम्, रूपम्, उग्रम्, तव, इदम्, लोकत्रयम्, प्रव्यथितम्, महात्मन्।। 20।।
हे महात्मन्! यह स्वर्ग और पृथ्वीके बीचका सम्पूर्ण आकाश तथा सब दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं तथा आपके इस अलौकिक और भयंकर रूपको देखकर तीनों लोक अति व्यथाको प्राप्त हो रहे हैं।
अध्याय 11 का श्लोक 21
अमी, हि, त्वाम्, सुरसंघा, विशन्ति, केचित्, भीताः।
प्रा×जलयः, ग ृृणन्ति, स्वस्ति, इति, उक्त्वा, महर्षिसिद्धसंघाः,
स्तुवन्ति, त्वाम्, स्तुतिभिः, पुष्कलाभिः।।21।।
हिन्दी: वे ही देवताओंके समूह आपमें प्रवेश करते हैं और कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़े उच्चारण करते हैं तथा महर्षि और सिद्धोंके समुदाय ‘कल्याण हो‘ ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रोंद्वारा आपकी स्तुति करते हैं। फिर भी आप उन्हें खा रहे हो।
अध्याय 11 का श्लोक 22
रुद्रादित्याः, वसवः, ये, च, साध्याः, विश्वे, अश्विनौ, मरुतः, च, ऊष्मपाः,
च, गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघाः, वीक्षन्ते, त्वाम्, विस्मिताः, च, एव, सर्वे।।22।।
हिन्दी: जो ग्यारह रुद्र और बारह आदित्य और आठ वसु, साधकगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार तथा मरुदग्ण और पितरोंका समुदाय तथा गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धोंके समुदाय हैं वे सब ही विस्मित होकर आपको देखते है।
अध्याय 11 का श्लोक 23
रूपम्, महत्, ते, बहुवक्त्रनेत्राम्, महाबाहो, बहुबाहूरुपादम्,
बहूदरम्, बहुदंष्ट्राकरालम्, दृृष्टवा, लोकाः, प्रव्यथिताः, तथा, अहम्।।23।।
हिन्दी: हे महाबाहो आपके बहुत मुख और नेत्रोंवाले बहुत हाथ, जंघा और पैरोंवाले बहुत उदरोंवाले और बहुत-सी दाढ़ोंके कारण अत्यन्त विकराल महान् रूपको देखकर सब लोग व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ।
अध्याय 11 का श्लोक 24
नभःस्पृशम्, दीप्तम्, अनेकवर्णम्, व्यात्ताननम्, दीप्तविशालनेत्राम्,
दृष्टवा, हि, त्वाम्, प्रव्यथितान्तरात्मा, धृृतिम्, न, विन्दामि, शमम्, च, विष्णो।।24।।
क्योंकि हे विष्णो! आकाशको स्पर्श करनेवाले, देदीप्यमान, अनेक वर्णोंसे युक्त तथा फैलाये हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रोंसे युक्त आपको देखकर भयभीत अन्तःकरणवाला मैं धीरज और शान्ति नहीं पाता हूँ।
अध्याय 11 का श्लोक 25
दंष्ट्राकरालानि, च, ते, मुखानि, दृष्टवा, एव, कालानलसन्निभानि,
दिशः, न, जाने, न, लभे, च, शर्म, प्रसीद, देवेश, जगन्निवास।।25।।
दाढ़ोंके कारण विकराल और प्रलयकालकी अग्निके समान प्रज्वलित आपके मुखोंको देखकर मैं दिशाओंको नहीं जानता हूँ और सुख भी नहीं पाता हूँ इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न हों।
अध्याय 11 का श्लोक 26-27
अमी, च, त्वाम्, धृतराष्ट्रस्य, पुत्रः, सर्वे, सह, एव, अवनिपालसंघैः,
भीष्मः, द्रोणः, सूतपुत्रः, तथा, असौ, सह, अस्मदीयैः, अपि, योधमुख्यैः।।26।।
वक्त्राणि, ते, त्वरमाणाः, विशन्ति, दंष्ट्राकरालानि, भयानकानि, केचित्,
विलग्नाः, दशनान्तरेषु, संदृश्यन्ते, चूर्णितैः, उत्तमांगैः।।27।।
वे सभी धृतराष्ट्रके पुत्र राजाओंके समुदायसहित आपमें प्रवेश कर रहे हैं और भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण और हमारे पक्षके भी प्रधान योद्धाओंके सहित सबकेसब आपके दाढ़ोंके कारण विकराल भयानक मुखोंमें बड़े वेगसे दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरोंसहित आपके दाँतोंके बीचमें लगे हुए दीख रहे हैं।
अध्याय 11 का श्लोक 28
यथा, नदीनाम्, बहवः, अम्बुवेगाः, समुद्रम्, एव, अभिमुखाः, द्रवन्ति, तथा,
तव, अमी, नरलोकवीराः, विशन्ति, वक्त्राणि, अभिविज्वलन्ति।।28।।
जैसे नदियोंके बहुतसे जलके प्रवाह स्वाभाविक ही समुद्रके ही सम्मुख दौड़ते हैं अर्थात् समुद्रमें प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे नरलोक अर्थात् इस पृृथ्वी लोक के वीर भी आपके प्रज्वलित मुखोंमें प्रवेश कर रहे हैं।
अध्याय 11 का श्लोक 29
यथा, प्रदीप्तम्, ज्वलनम्, पतंगाः, विशन्ति, नाशाय, समृद्धवेगाः,
तथा, एव, नाशाय, विशन्ति, लोकाः, तव, अपि, वक्त्राणि, समृद्धवेगाः।।29।।
जैसे पतंग मोहवश नष्ट होनेके लिये प्रज्वलित अग्निमें अति वेगसे दौड़ते हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाशके लिये आपके मुखोंमें अति वेगसे दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं।
अध्याय 11 का श्लोक 30
लेलिह्यसे, ग्रसमानः, समन्तात्, लोकान्, समग्रान्, वदनैः, ज्वलद्भिः,
तेजोभिः, आपूर्य, जगत्, समग्रम्, भासः, तव, उग्राः, प्रतपन्ति, विष्णो।।30।।
सम्पूर्ण लोकोंको प्रज्वलित मुखोंद्वारा ग्रास करते हुए सब ओरसे बार-बार चाट रहे हैं, हे विष्णो! आपका भयानक प्रकाश सम्पूर्ण जगत्को तेजके द्वारा परिपूर्ण करके तपा रहा है।
अध्याय 11 का श्लोक 31
आख्याहि, मे, कः, भवान्, उग्ररूपः, नमः, अस्तु, ते, देववर, प्रसीद, विज्ञातुम्,
इच्छामि, भवन्तम्, आद्यम्, न, हि, प्रजानामि, तव, प्रवृत्तिम्।।31।।
मुझे बतलाइये कि आप उग्ररूपवाले कौंन हैं? हे देवोंमें श्रेष्ठ! आपको नमस्कार हो आप प्रसन्न होइये। आदियम अर्थात् पुरातन काल आपको मैं विशेषरूपसे जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्तिको नहीं जानता।
अध्याय 11 का श्लोक 32 (भगवान उवाच)
कालः, अस्मि, लोकक्षयकृत्, प्रवृद्धः, लोकान्, समाहर्तुम्, इह, प्रवृत्तः,
ऋते, अपि, त्वाम्, न, भविष्यन्ति, सर्वे, ये, अवस्थिताः, प्रत्यनीकेषु, योधाः।।32।।
लोकांक्ष का नाश करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ। इस समय इन लोकोंको नष्ट करने के लिये प्रकट हुआ हूँ इसलिये जो प्रतिपक्षियोंकी सेनामें स्थित योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात् तेरे युद्ध न करनेसे भी इन सबका नाश हो जायेगा।
अध्याय 11 का श्लोक 33
तस्मात्, त्वम्, उत्तिष्ठ, यशः, लभस्व, जित्वा, शत्रून्,
भुङ्क्ष्व, राज्यम्, समृद्धम्, मया, एव, एते, निहताः,
पूर्वम्, एव, निमित्तमात्राम्, भव, सव्यसाचिन्।33।।
अतएव तू उठ! यश प्राप्त कर और शत्रुओंको जीतकर धन-धान्यसे सम्पन्न राज्यको भोग ये सब शूरवीर पहलेहीसे मेरे ही द्वारा मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन्! तू तो केवल निमित्तमात्र बन जा।
अध्याय 11 का श्लोक 34
द्रोणम्, च, भीष्मम्, च, जयद्रथम्, च, कर्णम्, तथा, अन्यान्, अपि, योधवीरान्,
मया, हतान्, त्वम्, जहि, मा, व्यथिष्ठाः, युध्यस्व, जेतासि, रणे, सपत्नान्।।34।।
द्रोणाचार्य और, भीष्मपितामह तथा जयद्रथ और कर्ण तथा और भी बहुत से मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर योद्धाओंको तू मार। भय मत कर। युद्धमें वैरियोंको जीतेगा। इसलिए युद्ध कर।
अध्याय 11 का श्लोक 35
(संजय उवाच)
एतत्, श्रुत्वा, वचनम्, केशवस्य, कृृता×जलिः, वेपमानः, किरीटी, नमस्क ृत्वा,
भूयः, एव, आह, कृष्णम्, सग०दम्, भीतभीतः, प्रणम्य।।35।।
केशवभगवान्के इस वचनको सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर काँपता हुआ नमस्कार करके, फिर भी अत्यन्त भयभीत होकर प्रणाम करके भगवान् श्रीकृृष्णके प्रति गदगद वाणीसे बोला -
अध्याय 11 का श्लोक 36
(अर्जुन उवाच)
स्थाने, हृषीकेश, तव, प्रकीत्र्या, जगत्, प्रहृष्यति, अनुरज्यते, च,
रक्षांसि, भीतानि, दिशः, द्रवन्ति, सर्वे, नमस्यन्ति, च, सिद्धसंघाः।।36।।
हे अन्तर्यामिन्! यह योग्य ही है कि आपके नाम-गुण और प्रभावके कीर्तनसे जगत् अति हर्षित हो रहा है और अनुरागको भी प्राप्त हो रहा है तथा भयभीत राक्षसलोग दिशाओंमें भाग रहे हैं और सब सिद्धगणोंके समुदाय नमस्कार कर रहे हैं।
अध्याय 11 का श्लोक 37
कस्मात्, च, ते, न, नमेरन्, महात्मन्, गरीयसे, ब्रह्मणः,
अपि, आदिकत्र्रो, अनन्त, देवेश, जगन्निवास,
त्वम्, अक्षरम्, सत्, असत्, तत्परम्, यत्।।37।।
हे महात्मन्! समर्थ प्रभु भी आदिकत्र्ता भी है और सबसे बड़े भी हैं आपके लिये ये कैसे नमस्कार न करें क्योंकि हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! जो सत् असत् और उनसे परे अक्षर अर्थात् सच्चिदानन्दघन ब्रह्म हैं, वह आप ही हैं।
अध्याय 11 का श्लोक 38
त्वम्, आदिदेवः, पुरुषः, पुराणः, त्वम्, अस्य, विश्वस्य,
परम्, निधानम्, वेत्ता, असि, वेद्यम्, च, परम्, च,
धाम, त्वया, ततम्, विश्वम्, अनन्तरूप।।38।।
आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इस जगत्के परम आश्रय और जाननेवाले तथा जाननेयोग्य और परम धाम हैं। हे अनन्तरूप! आपसे यह सब जगत् व्याप्त अर्थात् परिपूर्ण है।
अध्याय 11 का श्लोक 39
वायुः, यमः, अग्निः, वरुणः, शशांक, प्रजापतिः, त्वम्, प्रपितामहः, च,
नमः, नमः, ते, अस्तु, सहस्त्रकृत्वः, पुनः, च, भूयः, अपि, नमः, नमः, ते।। 39।।
आप वायु यमराज अग्नि वरुण चन्द्रमा प्रजाके स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्माके भी पिता हैं। आपके लिये हजारों बार नमस्कार! नमस्कार हो!! आपके लिये फिर भी बार-बार नमस्कार! नमस्कार!!
अध्याय 11 का श्लोक 40
नमः, पुरस्तात्, अथ, पृष्ठतः, ते, नमः, अस्तु, ते, सर्वतः, एव, सर्व,
अनन्तवीर्य, अमितविक्रमः, त्वम्, सर्वम्, समाप्नोषि, ततः, असि, सर्वः।।40।।
हे अनन्त सामथ्र्यवाले! आपके लिये आगेसे और पीछेसे भी नमस्कार हे सर्वात्मन्! आपके लिये सब ओरस ही नमस्कार हो क्योंकि अनन्त पराक्रमशाली आप सब संसारको व्याप्त किये हुए हैं इससे आप ही सर्वरूप हैं।
अध्याय 11 का श्लोक 41- 42
सखा, इति, मत्वा, प्रसभम्, यत्, उक्तम्, हे कृष्ण, हे यादव, हे सखे,
इति, अजानता, महिमानम्, तव, इदम्, मया, प्रमादात्, प्रणयेन, वा, अपि।।41।।
यत्, च, अवहासार्थम्, असत्कृतः, असि, विहारशय्यासनभोजनेषु, एकः, अथवा, अपि, अच्युत, तत्समक्षम्, तत्, क्षामये, त्वाम्, अहम्, अप्रमेयम् ।।42।।
आपके इस प्रभावको न जानते हुए आप मेरे सखा हैं ऐसा मानकर पे्रमसे अथवा प्रमादसे भी मैंने हे कृृष्ण हे यादव! हे सखे! इस प्रकार जो कुछ बिना सोचे समझे हठात् कहा है और हे अच्युत! आप जो मेरे द्वारा विनोदके लिये विहार, शय्या आसन और भोजनादिमें अकेले अथवा उन सखाओंके सामने भी अपमानित किये गये हैं वह सब अपराध अप्रमेयस्वरूप अर्थात् अचिन्त्य प्रभाववाले आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ।
अध्याय 11 का श्लोक 43
पिता, असि, लोकस्य, चराचरस्य, त्वम्, अस्य, पूज्यः, च, गुरुः, गरीयान्,
न, त्वत्समः, अस्ति, अभ्यधिकः, कुतः, अन्यः, लोकत्रये, अपि, अप्रतिमप्रभाव।।43।।
आप इस चराचर जगत्के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं हे अनुपम प्रभाववाले! तीनों लाकोंमें आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है फिर अधिक तो कैसे हो सकता है।
अध्याय 11 का श्लोक 44
तस्मात्, प्रणम्य, प्रणिधाय, कायम्, प्रसादये, त्वाम्, अहम्, ईशम्, ईड्यम्,
पिता, इव, पुत्रस्य, सखा, इव, सख्युः, प्रियः, प्रियायाः, अर्हसि, देव, सोढुम्।।44।।
अतऐव प्रभो! मैं शरीरको भलीभाँति चरणोंमें निवेदित कर प्रणाम करके स्तुति करने योग्य आप प्रभु को प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना करता हूँ हे देव! पिता जैसे पुत्रके सखा जैसे सखाके और प्रेमी पति जैसे प्रियतमा पत्नीके अपराध सहन करते हैं वैसे ही आप भी मेरे अपराधको सहन करने योग्य हैं।
अध्याय 11 का श्लोक 45
अदृष्टपूर्वम्, हृषितः, अस्मि, दृष्टवा, भयेन, च, प्रव्यथितम्, मनः,
मे, तत्, एव, मे, दर्शय, देवरूपम्, प्रसीद, देवेश, जगन्निवास।।45।।
पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्यमय रूपको देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भयसे अति व्याकुल भी हो रहा है, इसलिए आप उस अपने चतुर्भुज विष्णुरूपको ही मुझे दिखलाइये। हे देवेश! हे जगन्निवास! प्रसन्न होइये।
अध्याय 11 का श्लोक 46
किरीटिनम्, गदिनम्, चक्रहस्तम्, इच्छामि, त्वाम्, द्रष्टुम्, अहम्,
तथा, एव, तेन, एव, रूपेण, चतुर्भुजेन, सहस्रबाहो, भव, विश्वमूर्ते।।46।।
मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किये हुए तथा गदा और चक्र हाथमें लिये हुए देखना चाहता हूँ, हे विश्वस्वरूप! हे सहस्स्रबाहो! आप उसी चतुर्भुजरूपसे प्रकट होइये।
अध्याय 11 का श्लोक 47
(भगवान उवाच)
मया, प्रसन्नेन, तव, अर्जुन, इदम्, रूपम्, परम्, दर्शितम्, आत्मयोगात्,
तेजोमयम्, विश्वम्, अनन्तम्, आद्यम्, यत्, मे, त्वदन्येन, न, दृष्टपूर्वम्।।47।।
हे अर्जुन! अनुग्रहपूर्वक मैंने अपनी योगशक्तिके प्रभावसे यह मेरा परम तेजोमय सबका आदि और सीमारहित विराट् रूप तुझको दिखलाया है जिसे तेरे अतिरिक्त दूसरे किसीने पहले नहीं देखा था।
अध्याय 11 का श्लोक 48
न, वेदयज्ञाध्ययनैः, न, दानैः, न, च, क्रियाभिः, न, तपोभिः,
उग्रैः, एवंरूपः, शक्यः, अहम्, नृलोके, द्रष्टुम्, त्वदन्येन, कुरुप्रवीर।।48।।
हे अर्जुन! मनुष्यलोकमें इस प्रकार विश्वरूपवाला मैं न वेद अध्ययनसे, न यज्ञों से न दानसे न क्रियाओंसे और न उग्र तपोंसे ही तेरे अतिरिक्त दूसरेके द्वारा देखा जा सकता हूँ।
अध्याय 11 का श्लोक 49
मा, ते, व्यथा, मा, च, विमूढभावः, दृष्टवा, रूपम्, घोरम्, ईदृक्, मम, इदम्,
व्यपेतभीः, प्रीतमनाः, पुनः, त्वम्, तत्, एव, मे, रूपम्, इदम्, प्रपश्य।।49।।
मेरे इस प्रकारके इस विकराल रूपको देखकर तुझको व्याकुलता नहीं होनी चाहिये और मूढ़भाव भी नहीं होना चाहिये। तू भयरहित और प्रीतियुक्त मनवाला होकर उसी मेरे इस रूपको फिर देख।
अध्याय 11 का श्लोक 50 (संजय उवाच)
इति, अर्जुनम्, वासुदेवः, तथा, उक्त्वा, स्वकम्, रूपम्, दर्शयामास, भूयः,
आश्वासयामास, च, भीतम्, एनम्, भूत्वा, पुनः, सौम्यवपुः, महात्मा।।50।।
वासुदेव भगवान्ने अर्जुनके प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भुज रूपको दिखलाया और फिर महात्मा कृृष्ण सौम्यमूर्ति होकर इस भयभीत अर्जुनको धीरज दिया।
अध्याय 11 का श्लोक 51
अर्जुन उवाच |
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन |
इदानीमस्मि संवृत्त: सचेता: प्रकृतिं गत: || 51||
अर्जुन ने कहा: हे श्री कृष्ण, आपके सौम्य मानव रूप (दो भुजाओं) को देखकर, मैंने अपना संयम वापस पा लिया है और मेरा मन सामान्य हो गया है।
अध्याय 11 का श्लोक 52-53
श्रीभगवानुवाच |
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम |
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिण: || 52||
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया |
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा || 53||
भगवान ने कहा: मेरा यह रूप जो तुम देख रहे हो, उसे देखना अत्यंत कठिन है। इसे देखने के लिए देवगण भी लालायित रहते हैं। न वेदों के अध्ययन से, न तप, दान या अग्निहोत्र से मैं वैसा देखा जा सकता हूँ, जैसा तुमने मुझे देखा है।
अध्याय 11 का श्लोक 54
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन |
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप || 54||
हे अर्जुन, केवल अनन्य भक्ति से ही मैं वैसा ही जाना जा सकता हूँ जैसा मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूँ। इस प्रकार, हे शत्रुओं को भस्म करने वाले, मेरी दिव्य दृष्टि प्राप्त करके, कोई मेरे साथ एकता में प्रवेश कर सकता है।
अध्याय 11 का श्लोक 55
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: सङ्गवर्जित: |
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव || 55||
जो लोग मेरे लिए अपने सभी कर्तव्य निभाते हैं, जो मुझ पर निर्भर रहते हैं और मेरे प्रति समर्पित हैं, जो आसक्ति से मुक्त हैं और सभी प्राणियों के प्रति द्वेष रहित हैं, ऐसे भक्त निश्चित रूप से मेरे पास आते हैं।
Chapter 11 Of Bhagwat Geeta