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Inspirational Quotes

Bhagwat Geeta Quotes | Spritual Quotes

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Inspirational Quotes From Mahabharat

Bhagwat Geeta Quotes 

  1. सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
    • सभी धर्मों को त्याग कर केवल मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दूँगा, चिंता मत करो।
    • Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reactions; do not fear.

  2. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
    • तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, फलों में कभी नहीं। इसलिए कर्म के फल का कारण मत बनो और न ही कर्म न करने में आसक्ति रखो।
    • You have the right to perform your prescribed duties, but you are not entitled to the fruits of your actions. Never consider yourself the cause of the results of your activities, nor be attached to inaction.

  3. योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
    • हे धनंजय, संग त्याग कर योग में स्थित होकर कर्म करो। सिद्धि और असिद्धि में समान भाव रखना ही योग कहलाता है।
    • Perform your duty equipoised, O Arjuna, abandoning all attachment to success or failure. Such equanimity is called yoga.

  4. वेदानाम् सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः। इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥
    • वेदों में मैं सामवेद हूँ, देवताओं में मैं वासव (इन्द्र) हूँ। इन्द्रियों में मैं मन हूँ और प्राणियों में मैं चेतना हूँ।
    • Of the Vedas, I am the Sama Veda; of the gods, I am Indra; of the senses, I am the mind; and in living beings, I am the consciousness.

  5. न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥
    • न तो कभी ऐसा हुआ कि मैं नहीं था, न तुम, न ये राजा; और न ही भविष्य में कभी ऐसा होगा कि हम नहीं होंगे।
    • Never was there a time when I did not exist, nor you, nor all these kings; nor in the future shall any of us cease to be.

  6. यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥
    • हे कौन्तेय, अंत समय में जो भी भावना मनुष्य स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वही भावना वह प्राप्त करता है, क्योंकि वह सदा उस भावना से प्रभावित रहता है।
    • Whatever state of being one remembers when he quits his body, O son of Kunti, that state he will attain without fail, being always absorbed in such a state.

  7. अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्ति हरागमे। रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके॥
    • सभी प्रकटित वस्तुएँ अव्यक्त से उत्पन्न होती हैं और रात्रि के आगमन पर उसी अव्यक्त में लीन हो जाती हैं।
    • All created beings are unmanifest in their beginning, manifest in their interim state, and unmanifest again when annihilated. So what need is there for lamentation?

  8. अस्मिन्मर्त्ये धर्यते येन तु कृतं हृत्पदं च यः। स एव जायते पुत्रस्तथा नान्यः कथञ्चन॥
    • इस मर्त्यलोक में जिस कर्म के द्वारा हृदय में परमात्मा का पद प्राप्त होता है, वही पुत्र कहलाता है, अन्य नहीं।
    • In this mortal world, one who performs actions by which the position of God is achieved in the heart, only he is called a son, none else.

  9. ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥
    • जिनके आत्मा में ज्ञान द्वारा अज्ञान का नाश हो गया है, उनके लिए यह ज्ञान सूर्य की तरह परम को प्रकाशित करता है।
    • When, however, one is enlightened with the knowledge by which nescience is destroyed, then his knowledge reveals everything, as the sun lights up everything in the daytime.

  10. अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥
    • हे गुडाकेश, मैं ही सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं ही उनकी उत्पत्ति, मध्य और अंत हूँ।
    • I am the Self, O Gudakesha, seated in the hearts of all creatures. I am the beginning, the middle, and the end of all beings.

  11. मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
    • मेरे मनन में लीन हो, मेरे भक्त बन, मेरा यजन कर, और मुझे नमस्कार कर। इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करोगे, यह सत्य है, क्योंकि तुम मेरे प्रिय हो।
    • Engage your mind always in thinking of Me, become My devotee, offer obeisances to Me, and worship Me. By doing so, you will come to Me without fail. I promise you this because you are My very dear friend.

  12. दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
    • यह मेरी दिव्य मायामयी शक्ति अति दुष्कर है। जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं।
    • This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. But those who have surrendered unto Me can easily cross beyond it.

  13. समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥
    • जो शत्रु और मित्र, मान और अपमान, शीत और उष्ण, सुख और दुःख में समान रहता है, वह संगी रहित व्यक्ति है।
    • One who is equal to friends and enemies, who is equanimous in honor and dishonor, heat and cold, happiness and distress, and who is free from all material attachments.

  14. अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
    • जो लोग अनन्य भाव से मुझे निरंतर चिंतन करते हुए पूजते हैं, उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
    • To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me. I carry what they lack and preserve what they have.

  15. तत्रैव त्वं स्थितः पार्थ नैतत्त्वं विशयो मतः। न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः॥
    • हे पार्थ, तुम वहाँ स्थित हो जहाँ यह ज्ञान उपलब्ध नहीं है। न कभी ऐसा था कि मैं नहीं था, न तुम, न ये राजा।
    • You are there, O Partha, where this knowledge is not considered. Never was there a time when I did not exist, nor you, nor these kings.

  16. यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
    • जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है, मैं उसके लिए अदृश्य नहीं हूँ और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं है।
    • For one who sees Me everywhere and sees everything in Me, I am never lost, nor is he ever lost to Me.

  17. प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
    • प्रकृति के गुणों द्वारा सभी कर्म होते हैं, लेकिन अहंकारविमूढ़ आत्मा सोचता है कि 'मैं कर्ता हूँ'।
    • The bewildered spirit soul, under the influence of the three modes of material nature, thinks himself to be the doer of activities which are in actuality carried out by nature.

  18. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
    • हे भारत, जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूप को प्रकट करता हूँ।
    • Whenever and wherever there is a decline in religious practice, O descendant of Bharata, and a predominant rise of irreligion—at that time I descend Myself.

  19. चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥
    • चार वर्णों का विभाजन मैंने गुण और कर्म के आधार पर किया है। यद्यपि मैं इसका कर्ता हूँ, फिर भी मैं अकर्ता और अविनाशी हूँ।
    • The four divisions of human society were created by Me according to the three modes of material nature and the work ascribed to them. Although I am the creator of this system, know Me to be the non-doer and unchangeable.

  20. तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
    • जो लोग सतत मेरे साथ जुड़े रहते हैं और प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करते हैं, उन्हें मैं वह बुद्धियोग देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त कर सकें।
    • To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me.

  21. न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥
    • कोई भी व्यक्ति क्षणभर भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। प्रकृति के गुणों द्वारा सभी कर्म अवश्यम्भावी होते हैं।
    • Not even for a moment can anyone remain without doing work; everyone is forced to act helplessly according to the impulses born of the modes of material nature.

  22. ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति। निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥
    • जो न द्वेष करता है और न ही आकांक्षा रखता है, वह ज्ञेय है कि वह नित्यसंन्यासी है। हे महाबाहु, निर्द्वन्द्व व्यक्ति सहज ही बन्धन से मुक्त हो जाता है।
    • He who neither hates nor desires the fruits of his activities is known as a perpetual renouncer. Such a person, free from all dualities, easily overcomes material bondage.

  23. उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
    • मनुष्य को अपने आत्मा द्वारा स्वयं को ऊपर उठाना चाहिए, न कि स्वयं को गिराना चाहिए। आत्मा ही मनुष्य का मित्र है और आत्मा ही मनुष्य का शत्रु है।
    • One must elevate, not degrade, oneself by one's own mind. The mind is the friend of the conditioned soul, and it is also his enemy.

  24. न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्। जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥
    • जो लोग अज्ञानी और कर्म में आसक्त हैं, उनकी बुद्धि में भेद उत्पन्न न करें। विद्वान व्यक्ति सब कर्मों में संलग्न रहते हुए भी उन्हें उपदेश देते रहें।
    • The wise should not unsettle the minds of the ignorant who are attached to fruitive action. They should not be encouraged to refrain from work but to engage in all actions with detachment.

  25. सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः। सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥
    • जो व्यक्ति सभी प्राणियों में स्थित मुझको एकता में स्थित होकर भजता है, वह योगी सभी प्रकार से आचरण करते हुए भी मुझमें ही निवास करता है।
    • He who worships Me, abiding in all beings, and views all as one, even while engaged in various activities, he is a yogi and dwells in Me.


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