Chapter 7 of the Bhagavad Gita is titled "Gyan Vigyan Yoga" or the "Yoga of Knowledge and Wisdom." In this chapter, Lord Krishna provides profound insights into the nature of the divine, the relationship between the individual soul (Atman) and the Supreme Soul (Paramatman), and the different paths of spiritual realization. Here's a brief summary of Chapter 7:
1. **Nature of the Divine**: Krishna begins by revealing his divine nature to Arjuna and explaining that everything in the universe, both material and spiritual, emanates from Him. He describes the divine as both immanent and transcendent, pervading all of creation.
2. **Four Types of Devotees**: Krishna categorizes devotees into four types based on their level of understanding and devotion. These include those seeking material benefits, those seeking knowledge, those devoted to the divine with a sense of duty, and those who are truly wise and realize the ultimate truth.
3. **Importance of Bhakti (Devotion)**: Krishna emphasizes the importance of bhakti or devotion as the highest path to realization. He explains that those who surrender themselves completely to the divine with love and devotion attain liberation effortlessly.
4. **Illusion of Maya**: Krishna discusses the concept of Maya, the illusory power that deludes beings into identifying with the material world and forgetting their true nature. He advises Arjuna to transcend Maya through knowledge and devotion.
5. **Understanding the Divine Essence**: Krishna reveals that those who truly understand the divine nature attain liberation from the cycle of birth and death. He encourages Arjuna to surrender to Him completely and seek refuge in His divine presence.
6. **The Importance of Spiritual Knowledge**: Krishna explains that true knowledge (jnana) leads to liberation, and those who possess it are dear to Him. He encourages Arjuna to seek wisdom and discernment to understand the ultimate truth.
7. **Different Paths to Realization**: Krishna acknowledges that there are various paths to spiritual realization, including the path of knowledge (jnana yoga), the path of devotion (bhakti yoga), and the path of selfless action (karma yoga). He assures Arjuna that all sincere seekers eventually reach the same goal.
In summary, Chapter 7 of the Bhagavad Gita delves deep into the nature of the divine, the importance of devotion, and the various paths to spiritual realization. It emphasizes the significance of seeking knowledge, surrendering to the divine with love and devotion, and transcending the illusory nature of the material world to attain liberation.
अध्याय 7 का श्लोक 1
(भगवान उवाच)
मयि, आसक्तमनाः, पार्थ, योगम्, युंजन्, मदाश्रयः,
असंशयम्, समग्रम्, माम्, यथा, ज्ञास्यसि, तत्, श्रृणु।।1।।
केवल हिन्दी अनुवाद: हे पार्थ! मुझमें आसक्तचित भाव से मेरे मत के परायण होकर योगमें लगा हुआ तू जिस प्रकारसे सम्पूर्ण रूपसे मुझको संश्यरहित जानेगा उसको सुन। (1)
अध्याय 7 का श्लोक 2
ज्ञानम्, ते, अहम्, सविज्ञानम्, इदम्, वक्ष्यामि, अशेषतः,
यत्, ज्ञात्वा, न, इह, भूयः, अन्यत्, ज्ञातव्यम्, अवशिष्यते।।2।।
केवल हिन्दी अनुवाद: मैं तेरे लिये इस विज्ञानसहित तत्वज्ञानको सम्पूर्णतया कहूँगा जिसको जानकर संसारमें फिर और कुछ भी जानेनेयोग्य शेष नहीं रह जाता। (2)
अध्याय 7 का श्लोक 3
मनुष्याणाम्, सहस्त्रोषु, कश्चित्, यतति, सिद्धये,
यतताम्, अपि, सिद्धानाम्, कश्चित्, माम्, वेत्ति, तत्त्वतः।।3।।
हिन्दी अनुवाद: हजारों मनुष्योंमें कोई एक प्रभु प्राप्तिके लिये यत्न करता है यत्न करनेवाले योगियोंमें भी कोई एक मुझको तत्वसे अर्थात् यथार्थरूपसे जानता है।
भावार्थ:- इस श्लोक 3 का भावार्थ यह है कि वेद ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि हजार व्यक्तियों में कोई एक परमात्मा की साधना करता है। उन साधना करने वालों में कोई एक ही मुझे तत्व से जानता है। काल भगवान कह रहा है कि परमात्मा को भजने वाले बहुत कम है। जो साधना कर रहे हैं वे मनमाना आचरण(पूजा) अर्थात् शास्त्रविधि रहित पूजा करते है जो व्यर्थ है। (गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में) जो मुझे भजते हैं उन में भी कोई एक ही वेदों अनुसार अर्थात् वेदों को अपनी बुद्धि से समझ कर मेरी साधना करता है। वह अन्य देवी-देवता आदि की पूजा नहीं करता केवल एक मुझ ब्रह्म की पूजा करता है वह ज्ञानी आत्मा है। इस श्लोक 3 का सम्बन्ध अध्याय 7 श्लोक 17 से 19 तक से है।
अध्याय 7 का श्लोक 4,5
भूमिः, आपः, अनलः, वायुः, खम्, मनः, बुद्धिः, एव, च,
अहंकारः, इति, इयम्, मे, भिन्ना, प्रकृतिः, अष्टधा।।4।।
अपरा, इयम्, इतः, तु, अन्याम्, प्रकृतिम्, विद्धि, मे, पराम्,
जीवभूताम्, महाबाहो, यया, इदम्, धार्यते, जगत्।।5।।
केवल हिन्दी अनुवाद: पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश आदि से स्थूल शरीर बनता है इसी प्रकार मन बुद्धि और अहंकार आदि से सूक्ष्म शरीर बनता है इस प्रकार यह आठ प्रकारसे अर्थात् अष्टंगी ही विभाजित मेरी प्रकृति अर्थात् दुर्गा है ये तो अपरा अर्थात् इसके तुल्य दूसरी देवी नहीं है तथा उपरोक्त दोनों शरीरों में इसी का परम योगदान है और हे महाबाहो! इससे दूसरीको जिससे यह सम्पूर्ण जगत् संभाला जाता है। मेरी जीवरूपा चेतन दूसरी साकार चेतन प्रकृति अर्थात् दुर्गा जान। क्योंकि दुर्गा ही अन्य रूप बनाकर सागर में छूपी तथा लक्ष्मी-सावित्री व उमा रूप बनाकर तीनों देवों (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) से विवाह करके जीवों की उत्पत्ति की। (4-5)
अध्याय 7 का श्लोक 6
एतद्योनीनि, भूतानि, सर्वाणि, इति, उपधारय,
अहम्, कृत्स्न्नस्य, जगतः, प्रभवः, प्रलयः, तथा।।6।।
हिन्दी अनुवाद: इस प्रकार भूल भूलईयां करके सम्पूर्ण प्राणी इन दोनों प्रकृतियोंसे ही उत्पन्न होते हैं और मैं सम्पूर्ण जगत्का उत्पन्न तथा नाश हूँ। (6)
अध्याय 7 का श्लोक 7
मत्तः, परतरम्, न, अन्यत्, किंचित, अस्ति, धनंजय,
मयि, सर्वम्, इदम्, प्रोतम्, सूत्रो, मणिगणाः, इव।।7।।
हिन्दी अनुवाद: हे धनंजय! उपरोक्त अर्थात् सिद्धान्त से दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्रमें मणियोंके सदृश मुझ में गुँथा हुआ है। (7)
अध्याय 7 का श्लोक 8
रसः, अहम्, अप्सु, कौन्तेय, प्रभा, अस्मि, शशिसूर्ययोः,
प्रणवः, सर्ववेदेषु, शब्दः, खे, पौरुषम्, नृषु।।8।।
केवल हिन्दी अनुवाद: हे अर्जुन! मैं जलमें रस हूँ चन्द्रमा और सूर्यमें प्रकाश हूँ सम्पूर्ण वेदोंमें ओंकार हूँ आकाशमें शब्द और मनुष्योंमें पुरुषत्व हूँ। (8)
अध्याय 7 का श्लोक 9
पुण्यः, गन्धः, पृथिव्याम्, च, तेजः, च, अस्मि, विभावसौ,
जीवनम्, सर्वभूतेषु, तपः, च, अस्मि, तपस्विषु।।9।।
हिन्दी अनुवाद: पृथ्वीमें पवित्र गन्ध और अग्निमें तेज हूँ तथा सम्पूर्ण प्राणीयों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियोंमें तप हूँ। (9)
अध्याय 7 का श्लोक 10
बीजम्, माम्, सर्वभूतानाम्, विद्धि पार्थ, सनातनम्,
बुद्धिः, बुद्धिमताम्, अस्मि, तेजः, तेजस्विनाम्, अहम्।।10।।
हिन्दी : हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि कारण मुझको ही जान मैं बुद्धिमानोंकी बुद्धि और तेजस्वियोंका तेज हूँ। (10)
अध्याय 7 का श्लोक 11
बलम्, बलवताम्, च, अहम्, कामरागविवर्जितम्,
धर्माविरुद्धः, भूतेषु, कामः अस्मि, भरतर्षभ।।11।।
हिन्दी अनुवाद: हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानोंका आसक्ति और कामनाओंसे रहित सामथ्र्य हूँ और मेरे अन्तर्गत सर्व प्राणियों में धर्म के अनुकूल अर्थात् शास्त्रके अनुकूल कर्म हूँ। (11)
अध्याय 7 का श्लोक 12
ये, च, एव, सात्त्विकाः, भावाः, राजसाः, तामसाः, च, ये,
मत्तः, एव, इति, तान्, विद्धि, न, तु, अहम्, तेषु, ते, मयि।।12।।
हिन्दी अनुवाद: और भी जो सत्वगुण विष्णु जी से स्थिति भाव हैं और जो रजोगुण ब्रह्मा जी से उत्पत्ति तथा तमोगुण शिव से संहार हैं उन सबको तू मेरे द्वारा सुनियोजित नियमानुसार ही होने वाले हैं ऐसा जान (तु) परंतु वास्तवमें उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं। (12)
अध्याय 7 का श्लोक 13
त्रिभिः, गुणमयैः, भावैः, एभिः, सर्वम्, इदम्, जगत्,
मोहितम्, न अभिजानाति, माम्, एभ्यः, परम्, अव्ययम्।।13।।
हिन्दी अनुवाद: इन गुणोंके कार्यरूप सात्विक श्री विष्णु जी के प्रभाव से, राजस श्री ब्रह्मा जी के प्रभाव से और तामस श्री शिवजी के प्रभाव से तीनों प्रकारके भावोंसे यह सारा संसार - प्राणिसमुदाय मुझ काल के ही जाल में मोहित हो रहा है अर्थात् फंसा है इसलिए पूर्ण अविनाशीको नहीं जानता। (13)
{परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी की महिमा सन्त गरीबदास जी ने कही है तथा काल का जाल समझाया है:- गरीब, ब्रह्मा विष्णु महेश, माया और धर्मराया(काल) कहिए। इन पाँचों मिल प्रपंच बनाया वाणी हमरी लहिए।।}
अध्याय 7 का श्लोक 14
दैवी, हि, एषा, गुणमयी, मम, माया, दुरत्यया, माम्,
एव, ये, प्रपद्यन्ते, मायाम्, एताम्,तरन्ति,ते।।14।।
हिन्दी अनुवाद: क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्ध्भूत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंन्तर भजते हैं वे इस मायाका उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् तीनों गुणों रजगुण ब्रह्माजी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिवजी से ऊपर उठ जाते हैं। (14)
अध्याय 7 का श्लोक 15
न, माम्, दुष्कतिनः, मूढाः, प्रपद्यन्ते, नराधमाः,
मायया, अपहृतज्ञानाः, आसुरम्, भावम्, आश्रिताः।।15।।
हिन्दी अनुवाद: मायाके द्वारा अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी रूपी त्रिगुणमई माया की साधना से होने वाला क्षणिक लाभ पर ही आश्रित हैं जिनका ज्ञान हरा जा चुका है जो मेरी अर्थात् ब्रह्म साधना भी नहीं करते, इन्हीं तीनों देवताओं तक सीमित रहते हैं ऐसे आसुर स्वभावको धारण किये हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करनेवाले मूर्ख मुझको नहीं भजते अर्थात् वे तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की साधना ही करते रहते हैं। (15)
भावार्थ - गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 का भावार्थ है कि जो साधक स्वभाव वश तीनों गुणों रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी तक की साधना से मिलने वाले लाभ पर ही आश्रित रहकर इन्हीं तीनों प्रभुओं की भक्ति से जिन का ज्ञान हरा जा चुका है वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, शास्त्र विधि विरुद्ध भक्ति रूपी दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझ ब्रह्म को भी नहीं भजते गीता अध्याय 7 श्लोक 20 से 23 का भी इन्हीं से लगातार सम्बन्ध है।
अध्याय 7 का श्लोक 16
चतुर्विधाः, भजन्ते, माम्, जनाः, सुकृतिनः, अर्जुन,
आर्तः, जिज्ञासुः, अर्थार्थी, ज्ञानी,च,भरतर्षभ।।16।।
हिन्दी अनुवाद: हे भरत वंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करनेवाले वेद मन्त्रों द्वारा धन लाभ के लिए अनुष्ठान करने वाला अर्थार्थी वेद मन्त्रों द्वारा संकट निवार्ण के लिए अनुष्ठान करने वाले आर्त परमात्मा के विषय में जानकारी प्राप्त करने की इच्छा से ज्ञान ग्रहण करके वेदों के आधार से ज्ञानवान बनकर वक्ता बन जाता है वह जिज्ञासु और जिसे यह ज्ञान हो गया कि मनुष्य जन्म केवल परमात्मा प्राप्ति के लिए ही है। परमात्मा प्राप्ति भी केवल एक सर्वशक्तिमान परमात्मा की साधना अनन्य मन से करने से होती है वह ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं। (16)
अध्याय 7 का श्लोक 17
तेषाम्, ज्ञानी, नित्ययुक्तः, एकभक्तिः, विशिष्यते,
प्रियः, हि, ज्ञानिनः, अत्यर्थम्, अहम्, सः, च, मम, प्रियः।।17।।
हिन्दी अनुवाद: उनमें नित्य स्थित एक परमात्मा की भक्तिवाला विद्वान अति उत्तम है क्योंकि ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है। (17)
अध्याय 7 का श्लोक 18
उदाराः, सर्वे, एव, एते, ज्ञानी, तु, आत्मा, एव, मे, मतम्,
आस्थितः, सः, हि, युक्तात्मा, माम्, एव, अनुत्तमाम्, गतिम्।।18।।
हिन्दी अनुवाद: क्योंकि मेरे विचार में ये सभी ही ज्ञानी आत्मा उदार हैं परंतु वह मुझमें ही लीन आत्मा मेरी अति घटिया मुक्तिमें ही आश्रित हैं। (18)
गीता अध्याय 7 श्लोक 16 से 18 का भावार्थ है कि मेरी अर्थात् ब्रह्म की भक्ति भी चार प्रकार के भक्त करते हैं 1. आत्र्त: जो संकट निवार्ण के लिए वेद मंत्रों से ही अनुष्ठान करते हैं 2. अर्थार्थी: जो धन लाभ के लिए वेद मंत्रों से ही अनुष्ठान आदि करता है 3. जिज्ञासु: जो ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से वेदों का पठन-पाठन करके ज्ञान संग्रह कर लेता है फिर वक्ता बनकर जीवन व्यर्थ कर जाता है 4. ज्ञानी: जिस साधक ने वेदों को पढ़ा तथा जाना कि मनुष्य जीवन केवल प्रभु प्राप्ति के लिए ही मिला है तथा एक पूर्ण परमात्मा की भक्ति से ही पूर्ण होगा। तत्वदर्शी संत जो गीता अध्याय 4 श्लोक 34 मंे वर्णित है न मिलने से ब्रह्म को ही पूर्ण परमात्मा मान कर काल (ब्रह्म) साधना करते रहे जो अति अनुत्तम कही है अर्थात् ब्रह्म साधना भी अश्रेष्ठ है।
प्रश्न:- आपने गीता अध्याय 7 श्लोक 18 के अनुवाद में अर्थ का अनर्थ किया है ‘‘अनुत्तमाम्’’ का अर्थ अश्रेष्ठ किया है। जब कि समास में अनुत्तम का अर्थ अति उत्तम होता है जिस से उत्तम कोई और न हो उस के विषय में समास में अनुत्तम का अर्थ अति उत्तम होता है। अन्य गीता अनुवाद कत्र्ताओं ने सही अर्थ किया है अनुत्तम का अर्थ अति उत्तम किया है।
उत्तर:- मैं आप की इस बात को सत्य मानकर आप से प्रार्थना करता हूँ कि ‘‘गीता ज्ञान दाता अपनी साधना के विषय में गीता अध्याय 7 श्लोक 16 से 18 में बता रहे हैं। यदि गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अपनी साधना व गति को अनुत्तम कह रहे हैं। जिस का भावार्थ आप के समास के अनुसार यह हुआ कि गीता ज्ञान दाता की गति से उत्तम अन्य कोई गति नहीं अर्थात् मोक्ष लाभ नहीं।
गीता ज्ञान दाता स्वयं गीता अध्याय 18 श्लोक 62 व अध्याय 15 श्लोक 4 में किसी अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कह रहे हैं। उसी की कृपा से परम शान्ति व शाश्वत स्थान सदा ृ रहने वाला मोक्ष स्थल अर्थात् सत्यलोक प्राप्त होगा। अपने विषय में भी कहा है कि मैं भी उसी की शरण हूँ। उसी पूर्ण परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए तथा कहा है कि उस परमेश्वर के परमपद (सत्यलोक) को प्राप्त करना चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर इस संसार में कभी नहीं आते अर्थात् उनका जन्म मृत्यु सदा के लिए समाप्त हो जाता है।
गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमात्मा के विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 46, 61- 62, 64, 66 अध्याय 15 श्लोक 4,16-17, अध्याय 13 श्लोक 12 से 17, 22 से 24, 27-28, 30-31, 34 अध्याय 5 श्लोक 6-10,13 से 21 तथा 24-25-26 अध्याय 6 श्लोक 7,19, 20, 25, 26-27 अध्याय 4 श्लोक 31-32, अध्याय 8 श्लोक 3, 8 से 10, 17 से 22, अध्याय 7 श्लोक 19 से 29, अध्याय 14 श्लोक 19 आदि.2 श्लोकों में कहा है। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता से श्रेष्ठ अर्थात् उत्तम परमात्मा तो अन्य है जैसे गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि उत्तम पुरूषः तु अन्यः जिसका अर्थ है उत्तम परमात्मा तो अन्य ही है। इसलिए उस उत्तम पुरूष अर्थात् सर्वश्रेष्ठ परमात्मा की गति अर्थात् उस से मिलने वाला मोक्ष भी अति उत्तम हुआ। इस से यह भी सिद्ध हुआ कि उस परमेश्वर अर्थात् पूर्ण परमात्मा की गति गीता ज्ञान दाता वाली गति से उत्तम हुई। इसलिए गीता ज्ञान दाता वाली गति सर्व श्रेष्ठ नहीं है। अर्थात् जिस से श्रेष्ठ कोई न हो। यह विशेषण भी गलत सिद्ध हुआ। क्योंकि जब गीता ज्ञान दाता से श्रेष्ठ कोई और परमेश्वर है तो उस की गति भी गीता ज्ञान दाता से श्रेष्ठ है। इससे सिद्ध हुआ कि गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम का अर्थ अश्रेष्ठ ही न्याय संगत है अर्थात् उचित है। आप तथा अन्य गीता अनुवाद कत्र्ताओं ने अर्थ का अनर्थ किया है। जो अनुत्तम का अर्थ अति उत्तम कहा तथा किया है।
अध्याय 7 का श्लोक 19
बहूनाम्, जन्मनाम्, अन्ते, ज्ञानवान्, माम्, प्रपद्यते,
वासुदेवः, सर्वम्, इति, सः, महात्मा,सुदुर्लभः।।19।।
हिन्दी अनुवाद: बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्वज्ञानको प्राप्त मुझको भजता है वासुदेव अर्थात् सर्वव्यापक पूर्ण ब्रह्म ही सब कुछ है इस प्रकार जो यह जानता है वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। (19) श्री मदभागवत् के दशवें स्कंद के 51 वें अध्याय में स्वयं श्री कृष्ण ने कहा है कि श्री वासुदेव का पुत्र होने के कारण मुझे वासुदेव कहते हैं, न की सर्व का मालिक या सर्व व्यापक होने के कारण, अर्थात् वासुदेव पूर्ण परमात्मा है।
भावार्थ - गीता अध्याय 7 श्लोक 19 का भावार्थ है कि मुझ ब्रह्म की साधना भी बहुत जन्मों के बाद कोई-कोई करता है, नहीं तो अन्य देवताओं की पूजा ही करते रहते हैं तथा यह बताने वाला संत बहुत दुर्लभ है कि पूर्ण ब्रह्म ही सब कुछ है, ब्रह्म व परब्रह्म से पूर्ण मोक्ष नहीं होता।
अध्याय 7 का श्लोक 20
कामैः, तैः, तैः, हृतज्ञानाः, प्रपद्यन्ते, अन्यदेवताः,
तम्, तम् नियमम्, आस्थाय, प्रकृत्या, नियताः, स्वया।।20।।
अनुवाद: (तैः,तैः) उन-उन (कामैः) भोगोंकी कामनाद्वारा (हृतज्ञानाः) जिनका ज्ञान हरा जा चुका है वे लोग (स्वया) अपने (प्रकृत्या) स्वभावसे (नियताः) प्रेरित होकर (तम्-तम्) उस उस अज्ञान रूप अंधकार वाले (नियमम्) नियमके (आस्थाय) आश्रयसे (अन्यदेवताः) अन्य देवताओंको (प्रपद्यन्ते) भजते हैं अर्थात् पूजते हैं। (20)
हिन्दी अनुवाद: उन-उन भोगोंकी कामनाद्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है वे लोग अपने स्वभावसे प्रेरित होकर उस उस अज्ञान रूप अंधकार वाले नियमके आश्रयसे अन्य देवताओंको भजते हैं अर्थात् पूजते हैं। (20)
अध्याय 7 का श्लोक 21
यः, यः, याम्, याम्, तनुम्, भक्तः, श्रद्धया, अर्चितुम्, इच्छति,
तस्य, तस्य अचलाम्, श्रद्धाम्, ताम्, एव, विदधामि, अहम्।।21।।
हिन्दी अनुवाद: जो-जो भक्त जिस-जिस देवताके स्वरूपको श्रद्धासे पूजना चाहता है, उस उस भक्तकी श्रद्धाको मंै उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ। (21)
अध्याय 7 का श्लोक 22
सः, तया, श्रद्धया, युक्तः, तस्य, आराधनम्, ईहते,
लभते, च, ततः, कामान्, मया, एव, विहितान्, हि, तान्।।22।।
केवल हिन्दी अनुवाद: वह भक्त उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवताका पूजन करता है और क्योंकि उस देवतासे मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगोंको प्राप्त करता है। (22)
अध्याय 7 का श्लोक 23
अन्तवत्, तु, फलम्, तेषाम्, तत्, भवति, अल्पमेधसाम्,
देवान्, देवयजः, यान्ति, मद्भक्ताः, यान्ति, माम्, अपि।।23।।
केवल हिन्दी अनुवाद: परंतु उन अल्प बुद्धिवालोंका वह फल नाशवान् होता है देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते है। और मतावलम्बी अर्थात् मेरे द्वारा बताए भक्ति मार्ग से भी मुझको प्राप्त होते हैं। (23)
भावार्थ:- गीता अध्याय 7 श्लोक 20 से 23 तक का भावार्थ है कि जो गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में कहा है कि तीनों गुण(रजगुण श्री ब्रह्मा जी, सतगुण श्री विष्णु जी, तम् गुण श्री शिव जी) रूपी माया द्वारा जिन का ज्ञान हरा जा चुका है अर्थात् जो तीनों देवताओं की साधना करते हैं वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझ ब्रह्म की पूजा नहीं करते। इसी के सम्बन्ध में गीता अध्याय 7 श्लोक 20 से 23 में कहा है कि जिनका ज्ञान उपरोक्त तीनों देवताओं द्वारा हरा जा चुका है वे अपने स्वभाव वश उन्हीं देवताओं की पूजा मनोंकामना पूर्ण करने के उद्देश्य से करते हैं अर्थात् गीता ज्ञान दाता कह रहा है कि मेरे से अन्य देवताओं की पूजा करते है। जो भक्त जिस देवता की पूजा करता है उसकी श्रद्धा मैं ही उस देवता के प्रतिदृढ़ करता हूँ। उस देवताओं के पुजारी को भी मेरे द्वारा उस देवता को दी गई शक्ति से ही प्राप्त होता है। परन्तु उन मंद बुद्धि वालों अर्थात् मूर्खों का वह फल नाश्वान है। देवताओं के पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। मेरे भक्त मुझे प्राप्त होते हैं। भावार्थ है कि जो ब्रह्मा विष्णु तथा शिव की पूजा या अन्य किसी देव की पूजा करते हैं उन देवताओं की पूजा का फल नाश्वान है अर्थात् वह पूजा व्यर्थ है।
अध्याय 7 का श्लोक 24
अव्यक्तम्, व्यक्तिम्, आपन्नम्, मन्यन्ते, माम्, अबुद्धयः।
परम्, भावम्, अजानन्तः, मम, अव्ययम्, अनुत्तमम्।।24।।
केवल हिन्दी अनुवाद: बुद्धिहीन लोग मेरे अश्रेष्ठ अटल परम भावको न जानते हुए छिपे हुए अर्थात् परोक्ष मुझ कालको मनुष्य की तरह आकार में कृष्ण अवतार प्राप्त हुआ मानते हैं अर्थात् मैं कृष्ण नहीं हूँ। (24)
अध्याय 7 का श्लोक 25
न, अहम्, प्रकाशः, सर्वस्य, योगमायासमावृतः।
मूढः, अयम्, न, अभिजानाति, लोकः, माम्, अजम्, अव्ययम्।।25।।
केवल हिन्दी अनुवाद: मैं योगमायासे छिपा हुआ सबके प्रत्यक्ष नहीं होता अर्थात् अदृश्य रहता हूँ इसलिये मुझ जन्म न लेने वाले अविनाशी अटल भावको यह अज्ञानी जनसमुदाय संसार नहीं जानता अर्थात् मुझको अवतार रूप में आया समझता है। क्योंकि ब्रह्म अपनी शब्द शक्ति से अपने नाना रूप बना लेता है, यह दुर्गा का पति है इसलिए इस श्लोक में कह रहा है कि मैं श्री कृष्ण आदि की तरह दुर्गा से जन्म नहीं लेता। (25)
विशेष:- गीता अध्याय 7 श्लोक संख्या 24-25 में गीता ज्ञान दाता प्रभु अपने विषय में कह रहा है कि मैं अव्यक्त रहता है अर्थात् मैं अपनी योग माया अर्थात् सिद्धी शक्ति से छिपा रहता हूँ। सर्व के समक्ष अपने वास्तविक काल रूप में नहीं आता। यह प्रथम अव्यक्त हुआ। फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 18 में कहा है कि ये सर्व प्राणी प्रलय के समय अव्यक्त में लीन हो जाते हैं। विचार करें यह दूसरा अव्यक्त हुआ। फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि उस अव्यक्त प्रभु से अर्थात् परब्रह्म से दूसरा अव्यक्त अर्थात् गुप्त परमात्मा तो सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता वह सनातन अव्यक्त अर्थात् वह आदि परोक्ष प्रभु तीसरा अव्यक्त परमात्मा है। गीता अध्याय 8 श्लोक 21 में कहा है कि उस गुप्त परमात्मा को अविनाशी अव्यक्त कहा जाता है। जिस परमात्मा के पास जाने के पश्चात् प्राणी फिर लौटकर संसार में नहीं आते वह स्थान वास्तव में पूर्ण मोक्ष स्थल है। वह स्थान मेरे अर्थात् गीता ज्ञान दाता के स्थान अर्थात् ब्रह्म लोक से श्रेष्ठ है। विचार करें यह तीसरा अव्यक्त अर्थात् गुप्त प्रभु सिद्ध हुआ जो वास्तव में अविनाशी है। यह प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 1.4 व 16.17 में है। जिसमें तीन परमात्माओं का वर्णन स्पष्ट है। एक क्षर पुरूष अर्थात् ब्रह्म दूसरा अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म तथा तीसरा परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म परम अक्षर ब्रह्म का प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 1 तथा 3 में है।
अध्याय 7 का श्लोक 26
वेद्, अहम्, समतीतानि, वर्तमानानि, च, अर्जुन,
भविष्याणि, च, भूतानि, माम्, तु, वेद,न,कश्चन।।26।।
केवल हिन्दी अनुवाद: हे अर्जुन! पूर्वमें व्यतीत हुए और वर्तमानमें स्थित तथा आगे होनेवाले सब प्राणियों को मैं जानता हूँ परंतु मुझको कोई नहीं जानता। (26)
अध्याय 7 का श्लोक 27
इच्छाद्वेषसमुत्थेन, द्वन्द्वमोहेन, भारत,
सर्वभूतानि, सम्मोहम्, सर्गे, यान्ति, परन्तप।।27।।
केवल हिन्दी अनुवाद: हे भरतवंशी अर्जुन! संसारमें इच्छा और द्वेषसे उत्पन्न सुख-दुःखादि द्वन्द्वरूप मोहसे सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञानताको प्राप्त हो रहे हैं। (27)
अध्याय 7 का श्लोक 28
येषाम्, तु, अन्तगतम्, पापम्, जनानाम्, पुण्यकर्मणाम्,
ते, द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः, भजन्ते, माम्, दृढव्रताः।।28।।
केवल हिन्दी अनुवाद: परंतु निष्कामभावसे श्रेष्ठ कर्मोंका आचरण करनेवाले जिन पुरुषोंका पाप नष्ट हो गया है वे राग-द्वेषजनित द्वन्द्वरूप मोहसे मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकारसे भजते हैं। (28)
अध्याय 7 का श्लोक 29
जरामरणमोक्षाय, माम्, आश्रित्य, यतन्ति, ये,।
ते, ब्रह्म, तत् विदुः, कृत्थ्म्, अध्यात्मम्, कर्म, च, अखिलम्।।29।।
केवल हिन्दी अनुवाद: जो मेरे सम्पूर्ण अध्यात्मको तथा सम्पूर्ण कर्मको जानते हैं वे पुरुष उस ब्रह्मके आश्रित होकर जरा और मरणसे छूटनेके लिये यत्न करते हैं। (29)
अध्याय 7 का श्लोक 30
साधिभूताधिदैवम्, माम्, साधियज्ञम्, च, ये, विदुः।
प्रयाणकाले,अपि,च,माम्,ते,विदुः,युक्तचेतसः।।30।।
हिन्दी अनुवाद: जो साधक मुझे तथा अधिभूत अधिदैवके सहित और अधियज्ञ के सहित सही जानते हैं वे मुझे जानते हैं अंत काल में भी युक्तचितवाले हैं अर्थात् मेरे द्वारा दिए जा रहे कष्ट को जानते हुए उस एक पूर्ण परमात्मा में मन को स्थाई रखते हैं। (30)
Chapter 7 Of Bhagwat Geeta