Chapter 9 of the Bhagavad Gita is titled "Raja Vidya Raja Guhya Yoga" or the "Yoga of Royal Knowledge and Royal Secret." In this chapter, Lord Krishna imparts profound wisdom to Arjuna, emphasizing the supremacy of devotion, the nature of God, and the universality of spiritual truths. Here's a brief summary of Chapter 9:
1. **The Supreme Knowledge**: Krishna begins by revealing to Arjuna the most confidential knowledge, which is both royal (rajavidya) and mysterious (rajaguhya). He explains that this knowledge is the key to liberation and should be received with complete faith and devotion.
2. **The Universality of Spiritual Truths**: Krishna explains that the knowledge He imparts is timeless and universal, applicable to all beings regardless of their caste, creed, or status. He emphasizes that the path of devotion leads to realization of the divine truth.
3. **The Nature of God**: Krishna reveals His divine nature as the Supreme Being who pervades and sustains the entire universe. He explains that everything emanates from Him and ultimately merges back into Him, like rivers merging into the ocean.
4. **The Power of Devotion**: Krishna extols the virtues of unwavering devotion (bhakti) to God, emphasizing that those who surrender to Him with love and faith attain liberation. He assures Arjuna that He takes care of His devotees and grants them protection and salvation.
5. **Different Forms of Worship**: Krishna explains that He accepts offerings from His devotees, whether they worship Him through rituals, prayers, meditation, or any other form of devotion. What matters most is the sincerity and purity of heart with which the worship is performed.
6. **The Role of Sacrifice**: Krishna discusses the importance of sacrifice (yajna) in spiritual practice, emphasizing that offerings made with devotion and detachment lead to purification of the soul and attainment of liberation.
7. **The Benefits of Devotion**: Krishna assures Arjuna that those who worship Him with single-minded devotion are dear to Him, and He bestows upon them the knowledge to overcome the material world and attain eternal bliss.
8. **The Path of Surrender**: Krishna encourages Arjuna to surrender to Him completely, casting aside all doubts and fears. He promises to free His devotees from the cycle of birth and death and grant them eternal abode in His divine presence.
In summary, Chapter 9 of the Bhagavad Gita highlights the supremacy of devotion, the universal nature of spiritual truths, and the divine nature of God. It emphasizes the importance of unwavering faith, sincere devotion, and selfless surrender in attaining liberation and realizing the ultimate truth of existence.
अध्याय 9 का श्लोक 1
इदम्, तु, ते, गुह्यतमम्, प्रवक्ष्यामि, अनसूयवे,
ज्ञानम्, विज्ञानसहितम्, यत्, ज्ञात्वा, मोक्ष्यसे, अशुभात्।।1।।
तुझ दोष-दृष्टिरहित भक्तके लिये इस परम गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञानको पुनः भलीभाँति कहूँगा कि जिसको जानकर तू शास्त्रविरूद्ध अशुभ कर्मोंसे मुक्त हो जाएगा।
अध्याय 9 का श्लोक 2
राजविद्या, राजगुह्यम्, पवित्रम्, इदम्, उत्तमम्,
प्रत्यक्षावगमम्, धम्र्यम्, सुसुखम्, कर्तुम्,अव्ययम्।।2।।
यह ज्ञान सब विद्याओंका राजा सब गोपनीयोंका राजा अति पवित्र अति उत्तम प्रत्यक्ष फलवाला शास्त्रानुकूल धर्मयुक्त साधन करनेमें सुखदाई और अविनाशी है।
अध्याय 9 का श्लोक 3
अश्रद्दधानाः, पुरुषाः, धर्मस्य, अस्य, परन्तप,
अप्राप्य, माम्, निवर्तन्ते, मृृत्युसंसारवत्र्मनि।।3।।
हे अर्जुन! श्रद्धारहित मनुष्य इस उपर्युक्त धर्मके भक्ति मार्ग को न प्राप्त होकर मुझ ब्रह्म के मृत्युलोक चक्रमें चक्र लगाते रहते हैं।
अध्याय 9 का श्लोक 4
मया, ततम्, इदम्, सर्वम्, जगत्, अव्यक्तमूर्तिना,
मत्स्थानि, सर्वभूतानि, न, च, अहम्, तेषु, अवस्थितः।।4।।
मेरे से तथा अदृश साकार परमेश्वर से यह सर्व संसार विस्तारित व घेरा हुआ है अर्थात् पूर्ण परमात्मा द्वारा ही रचा गया है तथा वही वास्तव में नियन्तता है। तथा मेरे अन्तर्गत जो सर्व प्राणी हैं उनमें मैं स्थित नहीं हूँ। क्योंकि काल अर्थात् ज्योति निरंजन ब्रह्म अपने इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में अलग से रहता है तथा प्रत्येक ब्रह्मण्ड में भी महाब्रह्मा, महाविष्णु, महाशिव रूप में भिन्न गुप्त रहता है। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 में भी है। गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में तथा अध्याय 18 श्लोक 61 में भी यही प्रमाण है कहा है कि पूर्ण परमात्मा प्रत्येक प्राणी के हृदय में विशेष रूप से स्थित है। वह सर्व प्राणियों को यन्त्र की तरह भ्रमण कराता है।
अध्याय 9 का श्लोक 5
न, च, मत्स्थानि, भूतानि, पश्य, मे, योगम्, ऐश्वरम्,
भूतभृत्, न, च, भूतस्थः, मम, आत्मा, भूतभावनः।।5।।
और सब प्राणी मेरे में स्थित नहीं हैं और न ही मेरी आत्मा जीव उत्पन्न करने वाला जान वह परम शक्ति युक्त पूर्ण परमात्मा प्राणियों का धारण पोषण करने वाला अभेद सम्बन्ध शक्तिसे प्राणियों में स्थित है। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में भी है कि पूर्ण परमात्मा कोई और है, वह सर्व जगत का पालन-पोषण करता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 13 श्लोक 17 अध्याय 18 श्लोक 61 में है कहा है कि पूर्ण परमात्मा सर्व प्राणियों के हृदय में विशेष रूप से स्थित है। वह पूर्ण परमात्मा अपनी शक्ति से सर्व प्राणियों को यन्त्र की तरह भ्रमण कराता है।
अध्याय 9 का श्लोक 6
यथा, आकाशस्थितः, नित्यम्, वायुः, सर्वत्रगः, महान्,
तथा, सर्वाणि, भूतानि, मत्स्थानि, इति, उपधारय।।6।।
जैसे सर्वत्र विचरने वाला महान् वायु सदा आकाशमें ही स्थित है वैसे ही सम्पूर्ण प्राणी नियमित स्थित हैं ऐसा समझ।
अध्याय 9 का श्लोक 7
सर्वभूतानि, कौन्तेय, प्रकृतिम्, यान्ति, मामिकाम्।
कल्पक्षये, पुनः, तानि, कल्पादौ, विसृृजामि, अहम्।।7।।
हे अर्जुन! कल्पोंके अन्तमें सब प्राणी मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृतिमें लीन होते हैं ओर कल्पोंके आदिमें उनको मैं फिर रचता हूँ।
अध्याय 9 का श्लोक 8
प्रकृृतिम्, स्वाम्, अवष्टभ्य, विसृजामि, पुनः, पुनः।
भूतग्रामम्, इमम्, कृत्थ्म्, अवशम्,प्रकृतेः,वशात्।।8।।
अपनी प्रकृति अर्थात् दुर्गा को अंगीकार करके अर्थात् पति-पत्नी रूप में रखकर स्वभावके बलसे परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण प्राणी समुदायको बार-बार उनके कर्मोंके अनुसार रचता हूँ।
अध्याय 9 का श्लोक 9
न, च, माम्, तानि, कर्माणि, निबध्नन्ति, धनंजय,
उदासीनवत्, आसीनम्, असक्तम्, तेषु, कर्मसु।।9।।
हे अर्जुन! उन कर्मोंमें आसक्तिरहित और उदासीनके सदृश स्थित मुझे वे कर्म नहीं बाँधते।
अध्याय 9 का श्लोक 10
मया, अध्यक्षेण, प्रकृतिः, सूयते, सचराचरम्,
हेतुना, अनेन, कौन्तेय, जगत्, विपरिवर्तते।।10।।
हे अर्जुन! मुझे मालिक रूप में स्वीकार करने के कारण प्रकृति चराचरसहित सर्वजगत्को पैदा करती है इस हेतुसे ही यह संसार चक्र घूम रहा है।
अध्याय 9 का श्लोक 11
अवजानन्ति, माम्, मूढाः, मानुषीम्, तनुम्, आश्रितम्,
परम्, भावम्, अजानन्तः, मम, भूतमहेश्वरम्।।11।।
मेरे परम भाव को व सर्व प्राणियों के महान् ईश्वर अर्थात् पूर्ण परमात्मा को न जानते हुए मूर्ख लोग मुझका मनुष्य शरीर धारण करने वाला तुच्छ समझते हैं अर्थात् मुझे कृष्ण रूप में समझते हैं।
भावार्थ:- तत्वज्ञान के अभाव से मूर्ख प्राणी मुझे सर्व प्राणियों का प्रभु मानते हैं। मैं महेश्वर नहीं हूँ, महेश्वर तो पूर्ण परमात्मा है। जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 व 16, 17, गीता अध्याय 18 श्लोक 3,8,9,10 में वर्णन है तथा मुझे शरीर धारण करने वाला अवतार रूप में श्री कृृष्ण समझ रहा है, मैं श्री कृृष्ण नहीं हूँ। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में तथा गीता अध्याय 8 श्लोक 20 से 22 में दोनों (ब्रह्म तथा पूर्ण ब्रह्म) को अव्यक्त बताया है तथा विस्तृृत वर्णन है।
उपरोक्त मूर्खों का विवरण निम्न श्लोक में भी दिया है कि वे कहने से भी नहीं मानते, अपनी जिद्द के कारण मुझे सर्वेश्वर-महेश्वर व श्री कृृष्ण ही मानते रहते हैं। यदि कोई तत्वदर्शी संत समझाएगा की पूर्ण परमात्मा कोई और है तथा श्री कृृष्ण जी ने गीता जी नहीं बोला तथा यह (काल) महेश्वर नहीं है। वे मूर्ख नहीं मानते।
विशेष:-- गीता 9 श्लोक 11 का अनुवाद अन्य अनुवाद कर्ता ने किया है उस में प्रथम पंक्ति के दूसरे अक्षर ‘‘माम्’’ को द्वितिय पंक्ति के ‘‘भूत महेश्वरम्’’ से जोड़ा हो जो व्याकरण दृष्टिकोण से न्याय संगत नहीं है क्योंकि ‘‘भूत महेश्वरम्’’ के साथ ‘‘मम्’’ शब्द लिखा है अन्य अनुवाद कर्ताओं ने गीता ज्ञान दाता को सम्पूर्ण प्राणियों का महान् ईश्वर किया है। यदि एैसा ही माना जाए तो पाठक जन कृृप्या इसका भावार्थ यह जाने की ब्रह्म कह रहा है कि मैं अपने इक्कीस ब्रह्मण्डों के सर्व प्राणियों का महान ईश्वर अर्थात् प्रमुख हूँ। वास्तव में उपरोक्त अनुवाद जो मुझ दास द्वारा किया है। वह यथार्थ है।
अध्याय 9 का श्लोक 12
मोघाशाः, मोघकर्माणः, मोघज्ञानाः, विचेतसः,
राक्षसीम्, आसुरीम्, च, एव, प्रकृतिम्, मोहिनीम् श्रिताः।।12।।
व्यर्थ आशा व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्त चित अज्ञानीजन राक्षसी आसुरी और मोहिनी प्रकृतिको ही धारण किये रहते हैं।
अध्याय 9 का श्लोक 13
महात्मानः, तु, माम्, पार्थ, दैवीम्, प्रकृतिम्, आश्रिताः,
भजन्ति, अनन्यमनसः, ज्ञात्वा, भूतादिम्, अव्ययम्।।13।।
दूसरी तरफ हे कुन्तीपुत्र! दैवी अर्थात् साधु स्वभावके धारण किए हुए से महात्माजन सर्व प्राणियों के सनातन कारण अविनाशी स्वरूप परमात्मा तत्व से जानकर मुझको अनन्य मनसे युक्त होकर भजते हैं।
भावार्थ:-- अध्याय 9 श्लोक सं. 11.12 में तो उन श्रद्धालुओं का वर्णन है जो पूर्ण परमात्मा तथा ब्रह्म को तत्व से नहीं जानते वे तो अन्य देवताओं की साधना स्वभाव वश करते हैं। अध्याय 9 श्लोक सं. 13 (जिसका सम्बन्ध अध्याय 7 श्लोक 17.18 से है कि ज्ञानी मुझे अच्छा है ज्ञानी को मैं अच्छा लगता हूँ परन्तु वे मेरी अनुत्तम गति में ही आश्रित हैं) में कहा है कि जो मुझे तथा उस पूर्ण परमात्मा को जानते हैं वे फिर मुझे भजते हैं क्योंकि गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा को प्राप्ति का तीन मन्त्र का स्मरण कहा है। ओम्-तत्-सत् ओम् जाप ब्रह्म का है। इस अध्याय 9 श्लोक 13 में उसी भाव से कहा है कि पूर्ण परमात्मा और मुझे (ब्रह्म को) तत्व से जानकर महात्मा जन मुझे भजते हैं। उनको अन्य मन्त्रों (तत् व सत्) का ज्ञान नहीं होता। इसलिए अपने आप निकाले निष्कर्ष से(दृढव्रताः) दृढता के साथ कोई ज्ञान यज्ञ अर्थात् स्तूति आदि (कीर्तन) करके कोई विराट रूप (सर्व संसार परमात्मा ही है) जानकर साधना करते हैं। उनके लिए सर्वसवा मैं ही हूँ। अध्याय 9 श्लोक 20 से 24 में अध्याय 9 श्लोक 11 से 19 का निष्कर्ष दिया है कि वे दोनों प्रकार के साधक (अन्य देवताओं को भजते वाले तथा मुझे वेदों के आधार से भजने वाले जिनको वास्तविक मन्त्र प्राप्त नहीं हुआ) वे दोनों ही विनाश को प्राप्त होते हैं। मोक्ष प्राप्त नहीं करते।
अध्याय 9 का श्लोक 14
सततम्, कीर्तयन्तः, माम्, यतन्तः, च, दृढव्रताः,
नमस्यन्तः, च माम्, भक्त्या, नित्ययुक्ताः, उपासते।।14।।
दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा श्रद्धायुक्त भक्तिसे मेरी उपासना करते हैं।
अध्याय 9 का श्लोक 15
ज्ञानयज्ञेन, च, अपि, अन्ये, यजन्तः, माम्, उपासते,
एकत्वेन, पृथक्त्वेन, बहुधा, विश्वतोमुखम्।।15।।
दूसरे मुझ ब्रह्मका ज्ञानयज्ञके द्वारा अभिन्न-भावसे पूजन करते हुए भी और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकारसे स्थित मुझ विराट्स्वरूप परमेश्वरकी प्रथक्-भावसे उपासना करते हैं।
अध्याय 9 का श्लोक 16
अहम्, क्रतुः, अहम्, यज्ञः, स्वधा, अहम्, अहम्, औषधम्,
मन्त्रः, अहम्, अहम्, एव, आज्यम्, अहम्, अग्निः, अहम्, हुतम्।।16।।
यज्ञ करने वाला अर्थात् क्रतु मैं हूँ यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ ओषधि मैं हूँ मन्त्र मैं हूँ घृत मैं हूँ अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ।
अध्याय 9 का श्लोक 17
पिता, अहम्, अस्य, जगतः, माता, धाता, पितामहः,
वेद्यम्, पवित्रम्, ओंकारः, ऋक्, साम, यजुः, एव, च।।17।।
इस इक्कीस ब्रह्मण्डों वाले जगत्का धाता अर्थात् धारण करनेवाला पिता माता पितामह और जानने योग्य पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद सामवेद और यजुर्वेद आदि तीनों वेद भी मैं ही हूँ।
अध्याय 9 का श्लोक 18
गतिः, भर्ता, प्रभुः, साक्षी, निवासः, शरणम्, सुहृत्, प्रभवः,
प्रलयः, स्थानम्, निधानम्, बीजम्,अव्ययम्।।18।।
मैं स्थिति भरण-पोषण करनेवाला स्वामी शुभाशुभका देखनेवाला वासस्थान शरण लेने योग्य प्रत्युपकार न चाहकर हित करनेवाला सबकी उत्पतिप्रलयका हेतु स्थितिका आधार निधान और अविनाशी कारण हूँ।
अध्याय 9 का श्लोक 19
तपामि, अहम्, अहम्, वर्षम्, निगृह्णामि, उत्सृजामि, च,
अमृतम्, च, एव, मृत्युः, च, सत्, असत्, च, अहम्, अर्जुन।।19।।
मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ हे अर्जुन! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत् और असत् अर्थात् सच्च तथा झूठ का हेतु भी मैं ही हूँ।
अध्याय 9 का श्लोक 20
त्रौविद्याः, माम्, सोमपाः, पूतपापाः, यज्ञैः, इष्ट्वा, स्वर्गतिम्, प्रार्थयन्ते,
ते, पुण्यम्, आसाद्य, सुरेन्द्रलोकम्, अश्नन्ति, दिव्यान्, दिवि, देवभोगान्।।20।।
तीनों वेदोंमें वर्णित विधि के अनुसार भक्ति रूपी अमृत पीने वाले पुण्य आत्मा मुझको यज्ञोंके द्वारा इष्ट देव रूपमें पूजकर स्वर्ग की प्राप्ती चाहते हैं वे पुण्योंके फलरूप इन्द्र के स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओंके भोगोंको भोगते हैं।
अध्याय 9 का श्लोक 21
ते, तम्, भुक्त्वा, स्वर्गलोकम्, विशालम्, क्षीणे, पुण्ये, मत्र्यलोकम्,
विशन्ति, एवम्, त्रयीधर्मम्, अनुप्रपन्नाः, गतागतम्, कामकामाः, लभन्ते।।21।।
वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य के क्षीण होनेपर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए भक्ति कर्मका आश्रय लेनेवाले और भोगोंकी ईच्छा से बार-बार आवागमनको प्राप्त होते हैं।
अध्याय 9 का श्लोक 22
अनन्याः, चिन्तयन्तः, माम्, ये, जनाः, पर्युपासते,
तेषाम्, नित्याभियुक्तानाम्, योगक्षेमम्, वहामि, अहम्।।22।।
जो अनन्य प्रेमी भक्तजन मुझको चिन्तन करते हुए उस पूर्ण परमात्मा को निष्कामभावसे भजते हैं उन नित्य निरन्तर साधना करने वाले पुरुषोंका योगक्षेम अर्थात् साधना की रक्षा मैं करता हूँ।
भावार्थ:-- गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि जो पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होने के लिए ओम्-तत्-सत् के मन्त्र में मेरे ओम् नाम का चिन्तन करते हुए उसे परमात्मा की उपासना करता है। उस की साधना की रक्षा भी मैं ही करता हूँ।
विशेष:-- अन्य अनुवाद कर्ताओं ने लिखा है कि ‘‘जो अनन्य प्रेमी मुझको चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं------- विचार करें:--चिन्तन करना तथा भजना एक ही अर्थ के बोधक है इसलिए अन्य अनुवाद कर्ताओं द्वारा किया अनुवाद न्याय संगत नहीं है।
अध्याय 9 का श्लोक 23
ये, अपि, अन्यदेवताः, भक्ताः, यजन्ते, श्रद्धया, अन्विताः,
ते, अपि, माम्, एव, कौन्तेय, यजन्ति, अविधिपूर्वकम्।।23।।
हे अर्जुन! श्रद्धासे युक्त भी जो भक्त दूसरे देवताओंको पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् शास्त्र विरूद्ध है।
विशेष:--इसी का प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि जो शास्त्र विधि को त्याग कर मनमाना (अविधिपूर्वक) आचरण (पूजा) करता है वह न तो परमशान्ति को प्राप्त होता है, उसका न कोई कार्य सिद्ध होता है तथा न ही उसकी परमगति ही होती है अर्थात् व्यर्थ है।
अध्याय 9 का श्लोक 24
अहम्, हि, सर्वयज्ञानाम्, भोक्ता, च, प्रभुः,एव, च,
न, तु, माम्,अभिजानन्ति,तत्त्वेन,अतः,च्यवन्ति,ते।।24।।
क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ, परंतु वे मुझे तत्त्वसे नहीं जानते इसीसे गिरते हैं अर्थात् चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में कष्ट भोगते हैं।
अध्याय 9 का श्लोक 25
यान्ति, देवव्रताः, देवान्, पिपर्Úिंन्, यान्ति, पितृव्रताः।
भूतानि,यान्ति,भूतेज्याः,यान्ति, मद्याजिनः,अपि,माम्।।25।।
देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं, पितरोंको पूजनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं, भूतोंको पूजनेवाले भूतोंको प्राप्त होते हैं और इसी तरह मतानुसार अर्थात् शास्त्रानुकुल पूजन करने वाले मेरे भक्त भी मुझे प्राप्त होते हैं।
अध्याय 9 का श्लोक 26
पत्रम्, पुष्पम्, फलम्, तोयम्, यः, मे, भक्त्या, प्रयच्छति,
तत्, अहम्, भक्त्युपहृतम्, अश्नामि, प्रयतात्मनः।।26।।
जो कोई भक्त मेरे लिये भक्तिभावसे पत्र पुष्प फल जल आदि अर्पण करता है प्रेमी भक्तका भक्तिपूर्वक अर्पण किया हुआ वह मैं खाता हूँ।
अध्याय 9 का श्लोक 27
यत्, करोषि, यत्, अश्नासि, यत्, जुहोषि, ददासि, यत्,
यत्, तपस्यसि, कौन्तेय, तत्, कुरुष्व, मदर्पणम्।।27।।
हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है जो खाता है जो हवन करता है जो दान देता है और जो तप करता है वह सब मतानुसार अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार मुझे अर्पण कर।
अध्याय 9 का श्लोक 28
शुभाशुभफलैः, एवम्, मोक्ष्यसे, कर्मबन्धनैः,
सóयासयोगयुक्तात्मा, विमुक्तः, माम्, उपैष्यसि।।28।।
इस प्रकार मतानुसार साधना करने घर त्याग कर या हठ योग करके साधना करने वाले साधक अपने हित व अहित के फल को जान कर शास्त्र विधि रहित साधना जो हठयोग एक स्थान पर बन्ध कर बैठने से मुक्त हो जाएगा। ऐसे शास्त्र विरुद्ध साधना के बन्धन से मुक्त होकर अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार साधना करके मुझसे ही लाभ प्राप्त करेगा। अर्थात् मेरे पास ही आएगा।
अध्याय 9 का श्लोक 29
समः, अहम्, सर्वभूतेषु, न, मे, द्वेष्यः, अस्ति, न, प्रियः,
ये, भजन्ति, तु, माम्, भक्त्या, मयि, ते, तेषु, च, अपि, अहम्।।29।।
मैं सब प्राणियों में समभावसे व्यापक हूँ न कोई मेरा दुश्मन है और न प्रिय है परंतु जो भक्त मुझको शास्त्र अनुकूल भक्ति विधि से भजते हैं वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।
अध्याय 9 का श्लोक 30
अपि, चेत्, सुदुराचारः, भजते, माम्, अनन्यभाक्,
साधुः, एव, सः, मन्तव्यः, सम्यक्, व्यवसितः, हि, सः।।30।।
यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है।
अध्याय 9 का श्लोक 31
क्षिप्रम्, भवति, धर्मात्मा, शश्वत्, शान्तिम्, निगच्छति,
कौन्तेय, प्रति, जानीहि, न, मे, भक्तः, प्रणश्यति।।31।।
उपरोक्त साधक का ही निम्न श्लोक में विवरण किया है कि वह दुराचारी व्यक्ति मेरे को भजता है अर्थात् मेरे द्वारा दिए भक्ति मार्ग - मत अर्थात् सिद्धांत के आधार से शास्त्रों के पठन-पाठन करके शीघ्र ही साधु जैसे गुणों वाला तो हो जाता है परन्तु मेरी साधना से साधक कर्म आधार से जन्म-मृृत्यु का सदा रहने वाले चक्र के आधार से बहुत समय के लिए शान्ति को प्राप्त करता है अर्थात् एक कल्प तक ब्रह्मलोक में रहता है। उसके पश्चात् कर्म अनुसार अन्य प्राणियों के शरीर धारण करता है। गीता अध्याय 9 श्लोक 7 में भी यही प्रमाण है कहा कि कल्प के अन्त में सर्व प्राणी प्रकृृति में लीन हो जाते है। कल्प की आदि में फिर उत्पन्न करता हूँ।
(कौन्तेय) हे कुंती पुत्र! जो यह (न जानीहि) नहीं जानता (मे) मेरा (भक्तः) भक्त भी (प्रति) वापिस (प्रणश्यति) अदृृश्य हो जाता है अर्थात् मानव शरीर न प्राप्त करके अन्य प्राणियों के शरीर प्राप्त करता है।
विशेष:- इसी का प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 7 श्लोक 18, तथा गीता अध्याय 4 श्लोक 40 में स्पष्ट किया है कि पथ भ्रष्ट साधक नष्ट हो जाता है तथा गीता अध्याय 6 श्लोक 30 में प्रणश्यति का अर्थ अदृश्य होना लिखा है। इस श्लोक 30 में दो बार अर्थ किया है। इसलिए यहाँ अध्याय 9 श्लोक 31 में भी प्रणश्यति का अर्थ अदृश्य ही अनुकूल है। इसीलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि अर्जुन तू सर्व भाव से उस परमात्मा की शरण में जा, उसकी कृप्या से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परम धाम को अर्थात् सतलोक को प्राप्त होगा। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में भी है कि हे अर्जुन गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में वर्णित तत्वदर्शी संत के मिलने पर उस परम पद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए, जिसमें गए साधक फिर लौट कर संसार में जन्म-मृत्यु में नहीं आते अर्थात् पूर्ण मोक्ष को प्राप्त करते हैं। जिस परमेश्वर से संसार रूपी वृक्ष विस्तार को प्राप्त हुआ है अर्थात् जिस परमेश्वर ने सर्व ब्रह्मण्डों की रचना की है। मैं भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर की शरण में हूँ। इसलिए उसी पूर्ण परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए।
अध्याय 9 का श्लोक 32
माम्, हि, पार्थ, व्यपाश्रित्य, ये, अपि, स्युः, पापयोनयः,
स्त्रिायः, वैश्याः, तथा, शूद्राः, ते, अपि, यान्ति, पराम्, गतिम्।।32।।
क्यूंकि कि हे पार्थ! जो भी मुझ पर आश्रित होवें पापयोनि अर्थात् महा पापी वैश्या स्त्री और शुद्र वे सब भी परमगति को प्राप्त हो जाते हैं।
विशेष:- इस उपरोक्त श्लोक में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मेरे आश्रित होकर परमगति अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। कारण है कि पूर्ण मोक्ष के लिए गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में तीन मन्त्र ओम्-तत्-सत् के जाप का वर्णन किया है। जिस से परमगति अर्थात् पूर्ण मोक्ष सम्भव है। इसमें ओम् मन्त्र गीता ज्ञान दाता का है। इसलिए इस ओम् मन्त्र का अर्थात् गीता ज्ञान दाता का आश्रय लेकर ही परम गति प्राप्त होती है। इसी लिए गीता ज्ञान दाता ने अपनी गति को गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अति अनुत्तम बताया है इसीलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 व अध्याय 15 श्लोक 4 में अपने से अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है।
अध्याय 9 का श्लोक 33
किम्, पुनः, ब्राह्मणाः, पुण्याः, भक्ताः, राजर्षयः, तथा,
अनित्यम्, असुखम्, लोकम्, इमम्, प्राप्य, भजस्व, माम्।।33।।
पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि उपरोक्त श्लोक 32 में वर्णित पापी आत्मा भी मेरे वाली परमगति को प्राप्त कर सकते हैं तो फिर ब्राह्मणों और राजर्षि पुण्यशील भक्तजनों के लिए क्या कठिन है। मुझ ब्रह्म के इस नाश्वान दुःखदाई लोकों प्राप्त होकर अर्थात् जन्म लेकर उस पूर्ण परमात्मा का भजन कर क्योंकि गीता अध्याय 8 श्लोक 8 से 10ए1 व 3 तथा 20 से 22 में पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए विस्तार से कहा है तथा अध्याय 8 श्लोक 5.7 व 13 में अपने विषय में कहा है। यहाँ भी संकेतिक संदेश उस पूर्ण परमात्मा के विषय में है तथा निम्न श्लोक 34 में अपने विषय में कहा है कि यदि मेरी शरण में रहना है तथा जन्म-मृत्यु का कष्ट उठाते रहना है तो-
विशेष:- इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में प्रमाण दिया है कि उस परमात्मा की शरण में जा, उसकी कृप्या से ही तू परम शान्ति तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा। निम्न श्लोक में कहा है कि मेरे वाली परमगति चाहिए तो-
अध्याय 9 का श्लोक 34
मन्मनाः, भव, मद्भक्तः, मद्याजी, माम्, नमस्कुरु,
माम्, एव, एष्यसि, युक्त्वा, एवम्, आत्मानम्, मत्परायणः।।34।।
मेरे में स्थिर मन वाला मेरा शास्त्रानुकूल पूजक मतानुसार अर्थात् मेरे बताए अनुसार साधक बन मुझे प्रणाम कर। इस प्रकार आत्मासे मेरी शरण होकर शास्त्रानुकूल साधनमें संलग्न होकर ही मुझ से लाभ प्राप्त करेगा।
भावार्थ:-- गीता अध्याय 4 श्लोक 34ए अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 10 श्लोक 2 अध्याय 8 श्लोक 5 से 10 व अध्याय 8 श्लोक 18 से 20 में कहा है कि मेरे तथा तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। आगे भी हम सब जन्मते-मरते रहेगें। मेरी उत्पत्ति को ऋषि जन व देवता भी नहीं जानते। मेरी साधना करेगा तो युद्ध भी कर तथा मेरी भक्ति भी कर।
कृृप्या पाठक जन विचार करें:-- युद्ध करने वाले को शान्ति कहाँ। इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4, अध्याय 18 श्लोक 62, 66 में परम् शान्ति के लिए तथा शाश्वत् (सदा रहने वाले) स्थान की प्राप्ति के लिए किसी अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है। जन्म-मृृत्यु वाले को शान्ति कहाँ? यदि पूर्ण मुक्त होना है तो उस परमेश्वर की शरण में सर्व भाव से जा, जिस कारण तू परम शान्ति तथा सत्यलोक अर्थात् सनातन परम धाम को प्राप्त होगा। उसके लिए तत्वदर्शी संत की तलाश कर, मैं नहीं जानता(गीता अ. 18 श्लोक 62 तथा अ. 4 श्लोक 34)।
Chapter 9 Of Bhagwat Geeta