Skip to Content

Bhagwat Geeta Quotes

Bhagwat Geeta Quotes | Spritual Quotes

No Advertise | No interruptions 

Inspirational Quotes From Mahabharat

Bhagwat Geeta Quotes


  1. धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥
    • धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित होकर युद्ध के इच्छुक मेरे पुत्र और पाण्डव क्या कर रहे हैं, हे संजय?
    • On the battlefield of Kurukshetra, in the land of dharma, what are my sons and the sons of Pandu doing, O Sanjaya?

  2. यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥
    • जो व्यक्ति न हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न आकांक्षा करता है, शुभ और अशुभ का त्यागी है, वह भक्तिमान मुझको प्रिय है।
    • He who neither rejoices nor hates, neither laments nor desires, and who has renounced both good and evil actions, he is dear to Me.

  3. अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी॥
    • सभी प्राणियों का अद्वेष्टा, मैत्रीपूर्ण और करुणामय, निर्मम, निरहंकारी, समदुःखसुखी और क्षमाशील व्यक्ति।
    • He who is free from malice towards all beings, who is friendly and compassionate, free from possessiveness and ego, balanced in pleasure and pain, and forgiving.

  4. अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः। तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥
    • जो व्यक्ति निरंतर मुझको स्मरण करता है और एकचित्त से मेरी भक्ति करता है, उसके लिए मैं सुलभ हूँ, हे पार्थ।
    • For one who constantly remembers Me with undivided attention, I am easy to obtain, O Partha, because of his constant engagement in devotional service.

  5. न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥
    • न तो कभी ऐसा हुआ कि मैं नहीं था, न तुम, न ये राजा; और न ही भविष्य में कभी ऐसा होगा कि हम नहीं होंगे।
    • Never was there a time when I did not exist, nor you, nor all these kings; nor in the future shall any of us cease to be.

  6. अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥
    • तुम उन पर शोक करते हो जिन पर शोक नहीं करना चाहिए और फिर भी ज्ञान की बातें करते हो। बुद्धिमान व्यक्ति न मरे हुए और न जीवितों पर शोक करते हैं।
    • You grieve for those who should not be grieved for, and yet speak words of wisdom. The wise grieve neither for the living nor for the dead.

  7. त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥
    • वेदों का विषय त्रिगुणमयी है, हे अर्जुन, तुम त्रिगुणों से अतीत होकर, द्वंद्वों से मुक्त, नित्यसत्त्वस्थ और योगक्षेम रहित होकर आत्मवान बनो।
    • The Vedas deal with the three modes of material nature, O Arjuna. Rise above these modes, be free from all dualities, and from all anxieties for gain and safety, and be established in the self.

  8. श्रीभगवानुवाच। कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः॥
    • श्री भगवान ने कहा: मैं काल हूँ, लोकों का विनाशकारी, इस समय यहाँ लोकों को समाप्त करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ।
    • The Blessed Lord said: I am time, the great destroyer of the world, and I have come here to engage all people.

  9. नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥
    • इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र और कुछ भी नहीं है। यह स्वयं योगसिद्ध व्यक्ति कालक्रम में आत्मा में प्राप्त करता है।
    • In this world, there is nothing so purifying as knowledge. He who is perfected in yoga realizes it in his own self in due course of time.

  10. संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥
    • हे महाबाहो, संन्यास योग रहित व्यक्ति के लिए दुःखदायक है। योगयुक्त मुनि शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त करता है।
    • Renunciation is difficult to attain without yoga, O mighty-armed. But the sage who is engaged in yoga attains the Supreme Brahman without delay.

  11. समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥
    • मैं सभी प्राणियों में समान हूँ, न कोई मेरा द्वेष्य है, न प्रिय। जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ।
    • I am equally disposed to all living entities; there is no one hateful to Me or dear to Me. But those who worship Me with devotion, they are in Me, and I am in them.

  12. क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति। कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥
    • वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और शाश्वत शांति को प्राप्त करता है। हे कौन्तेय, यह प्रतिज्ञा कर लो कि मेरा भक्त कभी नाश को प्राप्त नहीं होता।
    • He quickly becomes righteous and attains lasting peace. O son of Kunti, declare it boldly that My devotee never perishes.

  13. नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः। न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥
    • न तो अत्यधिक भोजन करने वाले का योग होता है, न एकदम न खाने वाले का। न अति सोने वाले का, न जागरणशील का, हे अर्जुन।
    • There is no possibility of one's becoming a yogi, O Arjuna, if one eats too much or eats too little, sleeps too much or does not sleep enough.

  14. युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥
    • जो व्यक्ति संयमित आहार-विहार, संयमित कर्म और संयमित सोने-जागने का आचरण करता है, उसका योग दुःखनाशक होता है।
    • He who is temperate in his habits of eating, sleeping, working, and recreation can mitigate all material pains by practicing the yoga system.

  15. आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥
    • जो व्यक्ति आत्मा की दृष्टि से सभी जगह समदर्शी होता है, चाहे सुख हो या दुःख, वह योगी परम है, हे अर्जुन।
    • He who sees everything with an equal eye, whether it be happiness or distress, he is considered the best of yogis, O Arjuna.

  16. उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
    • मनुष्य को अपने आत्मा द्वारा स्वयं को ऊपर उठाना चाहिए, न कि स्वयं को गिराना चाहिए। आत्मा ही मनुष्य का मित्र है और आत्मा ही मनुष्य का शत्रु है।
    • One must elevate, not degrade, oneself by one's own mind. The mind is the friend of the conditioned soul, and it is also his enemy.

  17. यदाकालापनपर्णानि पतन्त्यपः। तदाकालापनपर्णानि पतन्त्यपः॥
    • जैसे समय आने पर पत्ते झड़ते हैं, वैसे ही मनुष्य का शरीर भी समय आने पर समाप्त होता है।
    • Just as leaves fall off in due course, so too does the body fall off when the time comes.

  18. सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः। मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥
    • सभी कर्म करते हुए भी जो मुझमें शरण लेते हैं, वे मेरी कृपा से शाश्वत, अविनाशी पद को प्राप्त करते हैं।
    • Even though performing all actions, if one takes refuge in Me, he attains, by My grace, the eternal and imperishable abode.

  19. मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥
    • मेरा मनन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो, मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार मुझमें लीन होकर, मुझको ही प्राप्त होओगे।
    • Fix your mind on Me, be devoted to Me, worship Me, and offer obeisances to Me. Thus, engaging yourself in My service with your mind fixed on Me, you will come to Me.

  20. क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्। अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥
    • जिनकी चित्तवृत्तियाँ अव्यक्त में लगी हैं, उनके लिए कष्ट अधिक है। अव्यक्त की गति देहधारियों द्वारा प्राप्त करना कठिन है।
    • For those whose minds are attached to the unmanifest, impersonal feature of the Supreme, advancement is very troublesome. To make progress in that discipline is always difficult for those who are embodied.

  21. अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः। सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥
    • यदि तुम सबसे अधिक पापी हो, तब भी तुम ज्ञानरूपी नौका द्वारा सभी पापों को पार कर जाओगे।
    • Even if you are considered the most sinful of all sinners, when you are situated in the boat of transcendental knowledge, you will be able to cross over the ocean of miseries.

  22. आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन। मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥
    • हे अर्जुन, ब्रह्मलोक तक सभी लोक पुनरावृत्ति में आते हैं। लेकिन मुझको प्राप्त करके पुनर्जन्म नहीं होता।
    • From the highest planet in the material world down to the lowest, all are places of misery wherein repeated birth and death take place. But one who attains to My abode, O son of Kunti, never takes birth again.

  23. त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥
    • वेदों का विषय त्रिगुणमयी है, हे अर्जुन, तुम त्रिगुणों से अतीत होकर, द्वंद्वों से मुक्त, नित्यसत्त्वस्थ और योगक्षेम रहित होकर आत्मवान बनो।
    • The Vedas deal with the three modes of material nature, O Arjuna. Rise above these modes, be free from all dualities, and from all anxieties for gain and safety, and be established in the self.

  24. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
    • तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, फलों में कभी नहीं। इसलिए कर्म के फल का कारण मत बनो और न ही कर्म न करने में आसक्ति रखो।
    • You have the right to perform your prescribed duties, but you are not entitled to the fruits of your actions. Never consider yourself the cause of the results of your activities, nor be attached to inaction.

  25. नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥
    • मैं सभी के लिए प्रकट नहीं हूँ, क्योंकि योगमाया से ढका हुआ हूँ। मूढ़ व्यक्ति मुझे अजन्मा और अविनाशी नहीं जानता।
    • I am never manifest to the foolish and unintelligent. For them, I am covered by My internal potency, and therefore they do not know that I am unborn and infallible.