Chapter 3 of the Bhagavad Gita is titled "Karma Yoga" or the "Yoga of Action." In this chapter, Lord Krishna imparts teachings to Arjuna about the importance of performing one's duty selflessly, without attachment to the results, as a means to attain spiritual growth and liberation. Here's a brief summary of Chapter 3:
1. **Arjuna's Confusion**: Arjuna is still in a state of confusion and doubt about his duty as a warrior. He is torn between his familial attachments and his duty to fight in the Kurukshetra war.
2. **Krishna's Guidance**: Lord Krishna begins by emphasizing the importance of action. He explains that it is better to do one's own duty imperfectly than to perform another's duty perfectly, as performing one's own duty leads to spiritual growth.
3. **Renunciation vs. Selfless Action**: Krishna explains the concept of renunciation (Sannyasa) and selfless action (Karma Yoga). While renunciation may lead to liberation, it is difficult to practice for most people. Therefore, he advises Arjuna to perform his duty selflessly without attachment to the results, which is the path of Karma Yoga.
4. **Detachment from Fruits of Action**: Krishna teaches that one should not be attached to the fruits of their actions. One should perform their duties diligently, but not crave for the results or be disheartened by failures.
5. **Role of Society**: Krishna emphasizes the importance of fulfilling one's social responsibilities. Society functions through a system of interdependence, and everyone has a role to play.
6. **Role of the Wise**: The wise should set an example by performing their duties sincerely without attachment. They inspire others to follow the path of righteousness.
7. **Purification through Sacrifice**: Krishna explains that sacrifices purify individuals and society. However, these sacrifices should be performed without attachment to the results.
8. **The Importance of Yajna (Sacrifice)**: Yajna is not just a ritualistic sacrifice but also includes acts of charity, self-discipline, and other virtuous actions performed for the welfare of others.
9. **Fulfillment in Service**: Krishna concludes by emphasizing that those who perform their duties without selfish desires find fulfillment and ultimately attain liberation.
In summary, Chapter 3 of the Bhagavad Gita teaches the importance of performing one's duty selflessly and without attachment to the results, as a means to attain spiritual growth and liberation. It outlines the path of Karma Yoga as a practical approach to living a righteous life.
अध्याय 3 का श्लोक 1
(अर्जुन उवाच)
ज्यायसी, चेत्, कर्मणः, ते, मता, बुद्धिः, जनार्दन,
तत्, किम्, कर्मणि, घोरे, माम्, नियोजयसि, केशव।।1।।
हिन्दी: हे जनार्दन! यदि आपको कर्मकी अपेक्षा तत्वदर्शी द्वारा दिया ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे एक स्थान पर बैठ कर इन्द्रियों को रोक कर, गर्दन व सिर को सीधा रख कर गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 तक वर्णित तथा युद्ध करने जैसे भयंकर तुच्छ कर्ममें क्यों लगाते हैं।
Arjuna said : Krishna, if you consider Knowledge as superior to Action, then why do You urge me to this dreadful action, Kesava ! (1)
अध्याय 3 का श्लोक 2
व्यामिश्रेण, इव, वाक्येन, बुद्धिम्, मोहयसि, इव, मे,
तत्, एकम्, वद, निश्चित्य, येन, श्रेयः, अहम्, आप्नुयाम्।।2।।
हिन्दी: इस प्रकार आप मिले हुए से अर्थात् दो तरफा वचनोंसे मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है इसलिए उस एक बातको निश्चित करके कहिये जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ।
You are, as it were, puzzling my mind by these seemingly involved expressions; therefore, tell me difinitely the one discipline by which I may obtain the highest good. (2)
अध्याय 3 का श्लोक 3
(श्री भगवान उवाच)
लोके, अस्मिन्, द्विविधा, निष्ठा, पुरा, प्रोक्ता, मया, अनघ,
ज्ञानयोगेन, साङ्ख्यानाम्, कर्मयोगेन, योगिनाम्।।3।।
हिन्दी: हे निष्पाप! इस लोकमें दो प्रकारकी निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है उनमेंसे ज्ञानियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग अर्थात् अपनी ही सूझ-बूझ से निकाले भक्ति विधि के निष्कर्ष में और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे अर्थात् सांसारिक कार्य करते हुए साधना करने में होती है।
Sri Bhagavan said : Arjuna, in this world two courses of Sadhana (Spiritual discipline) have been enunciated by Me in the past. In the case of the Sankhyayogi, the Sadhana proceeds along the path of Knowledge; whereas in the case of the Krmayogi, it proceeds along the path of Action. (3)
अध्याय 3 का श्लोक 4
न, कर्मणाम्, अनारम्भात्, नैष्कम्र्यम्, पुरुषः, अश्नुते,
न, च, सóयसनात्, एव, सिद्धिम्, समधिगच्छति।।4।।
हिन्दी: न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना शास्त्रों में वर्णित शास्त्र अनुकुल साधना जो संसारिक कर्म करते-करते करने से पूर्ण मुक्ति होती है वह गति अर्थात् परमात्मा प्राप्त होता है जैसे किसी ने एक एकड़ गेहूँ की फसल काटनी है तो वह काटना प्रारम्भ करने से ही कटेगी। फिर काटने वाला कर्म शेष नही रहेगा और इसलिए कर्मोंके केवल त्यागमात्रसे एक स्थान पर बैठ कर विशेष आसन पर बैठ कर संसारिक कर्म त्यागकर हठ योग से सिद्धि प्राप्त नहीं होती है।
Man does not attain freedom from action (culmination of the discipline of Action) without entering upon action; nor does he reach perfection (culmination of the discipline of Knowledge) merely by ceasing to act. (4)
अध्याय 3 का श्लोक 5
न, हि, कश्चित्, क्षणम्, अपि, जातु, तिष्ठति, अकर्मकृत्,
कार्यते, हि, अवशः, कर्म, सर्वः, प्रकृतिजैः, गुणैः।।5।।
हिन्दी: निःसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी कालमें क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति अर्थात् दुर्गा जनित रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी गुणोंद्वारा परवश हुआ कर्म करनेके लिये बाध्य किया जाता है।
(इसी का प्रमाण अध्याय 14 श्लोक 3 से 5 में भी है।)
Surely none can ever remain inactive even for a moment; for everyone helplessly driven to action by nature-born qualities. (5)
अध्याय 3 का श्लोक 6
कर्मेन्द्रियाणि, संयम्य, यः, आस्ते, मनसा, स्मरन्,
इन्द्रियार्थान्, विमूढात्मा, मिथ्याचारः, सः, उच्यते।।6।।
हिन्दी: जो महामूर्ख मनुष्य समस्त कर्म इन्द्रियोंको हठपूर्वक ऊपरसे रोककर मनसे उन ज्ञान इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है
He who outwardly restraining the organs of sense and action, sits mentally dwelling on the objects of senses, that man of deluded intellect is called a hypocrite. (6)
अध्याय 3 का श्लोक 7
यः, तु, इन्द्रियाणि, मनसा, नियम्य, आरभते, अर्जुन,
कर्मेन्द्रियैः, कर्मयोगम्, असक्तः, सः, विशिष्यते।।7।।
हिन्दी: किंतु हे अर्जुन! जो पुरुष मनसे गहरी नजर गीता में इन्द्रियोंको नियन्त्रिात अर्थात् वशमें करके अनासक्त हुआ समस्त कर्म इन्द्रियोंद्वारा शास्त्र विधि अनुसार संसारी कार्य करते-करते भक्ति कर्म अर्थात् कर्मयोगका आचरण करता है वही श्रेष्ठ है।
On the other hand, he who controlling the organs of sense and action by the power of his will, and remaining unattached, undertakes the Yoga of Action through those organs, Arjuna, he excels. (7)
विशेष:- उपरोक्त न करने वाले हठयोग को गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में करने को कहा है। इसलिए अर्जुन इसी अध्याय 3 के श्लोक 2 में कह रहा है कि आप की दोगली बातें मुझे भ्रम में डाल रही हैं।
अध्याय 3 का श्लोक 8
नियतम्, कुरु, कर्म, त्वम्, कर्म, ज्यायः, हि, अकर्मणः,
शरीरयात्र, अपि, च, ते, न, प्रसिद्धयेत्, अकर्मणः।।8।।
हिन्दी: तू शास्त्रविहित कर्म कर क्योंकि कर्म न करनेकी अपेक्षा अर्थात् एक स्थान पर एकान्त स्थान पर विशेष कुश के आसन पर बैठ कर भक्ति कर्म हठपूर्वक करने की अपेक्षा संसारिक कर्म करते-करते भक्ति कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करनेसे अर्थात् हठयोग करके एकान्त स्थान पर बैठा रहेगा तो तेरा शरीर-निर्वाह अर्थात् तेरा परिवार पोषण भी नहीं सिद्ध होगा।
Therefore, do you perform your allotted duty; for action is superior to inaction. Desisting from action, you cannot even maintain your body. (8)
अध्याय 3 का श्लोक 9
यज्ञार्थात्, कर्मणः, अन्यत्र, लोकः, अयम्, कर्मबन्धनः,
तदर्थम्, कर्म, कौन्तेय, मुक्तसंगः, समाचर।।9।।
हिन्दी: यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान के निमित किये जानेवाले शास्त्र विधि अनुसार कर्मोंसे अतिरिक्त शास्त्र विधि त्याग कर दूसरे कर्मोंमें लगा हुआ ही इस संसार में कर्मोंसे बँधता है अर्थात् चैरासी लाख योनियों में यातनाऐं सहन करता है।। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्तिसे रहित होकर उस शास्त्रनुकूल यज्ञके निमित ही भलीभाँति भक्ति के शास्त्र विधि अनुसार करने योग्य कर्म अर्थात् कर्तव्यकर्म संसारिक कर्म करता हुआ शास्त्र अनुकूल अर्थात् विधिवत् साधना कर।
Man is bound by his own action except when it is performed for the sake of sacrifice. Therefore, Arjuna, do you efficiently perform your duty, free from attachment; for the sake of sacrifice alone. (9)
विशेष:- उपरोक्त गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 9 तक एक स्थान पर एकान्त में विशेष आसन पर बैठ कर कान-आंखें आदि बन्द करके हठ करने की मनाही की है तथा शास्त्रों में वर्णित भक्ति विधि अनुसार साधना करना श्रेयकर बताया है।
प्रत्येक सद्ग्रन्थों में संसारिक कार्य करते-करते नाम जाप व यज्ञादि करने का भक्ति विद्यान बताया है।
प्रमाण:- पवित्र गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में कहा है कि मुझ ब्रह्म का उच्चारण करके सुमरण करने का केवल एक मात्र ओ3म् अक्षर है जो इसका जाप अन्तिम स्वांस तक कर्म करते-करते भी करता है वह मेरे वाली परमगति को प्राप्त होता है।
फिर अध्याय 8 श्लोक 7 में कहा है कि हर समय मेरा सुमरण भी कर तथा युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरे आदेश का पालन करते हुए अर्थात् संसारिक कर्म करते-करते साधना करता हुआ मुझे ही प्राप्त होगा। भले ही अपनी परमगति को गीता अध्याय 7 मंत्र 18 में अति अश्रेष्ठ अर्थात् अति व्यर्थ बताया है। फिर भी भक्ति विधि यही है।
फिर अध्याय 8 श्लोक 8 से 10 तक विवरण दिया है कि चाहे उस परमात्मा अर्थात् पूर्णब्रह्म की भक्ति करो, जिसका विवरण गीता अध्याय 17 श्लोक 23 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 व अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में दिया है। उसका भी यही विद्यान है कि जो साधक पूर्ण परमात्मा की साधना तत्वदर्शी संत से उपदेश प्राप्त करके नाम जाप करता हुआ तथा संसारिक कार्य करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है वह उस परम दिव्य पुरुष अर्थात् पूर्ण परमात्मा को ही प्राप्त होता है। तत्वदर्शी संत का संकेत गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में दिया है।
यही प्रमाण पवित्र यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 तथा 15 में दिया है।
यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 का भावार्थ:- पवित्र वेदों को बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा के विषय में कोई तो कहता है कि वह अवतार रूप में उत्पन्न होता है अर्थात् आकार में कहा जाता है, कोई उसे कभी अवतार रूप में आकार में न आने वाला अर्थात् निराकार कहता है। उस पूर्ण परमात्मा का तत्वज्ञान तो कोई धीराणाम् अर्थात् तत्वदर्शी संत ही बताऐंगे कि वास्तव में पूर्ण परमात्मा का शरीर कैसा है? वह कैसे प्रकट होता है? पूर्ण परमात्मा की पूरी जानकारी उसी धीराणाम् अर्थात् तत्वदर्शी संत से सुनों। मैं वेद ज्ञान देने वाला ब्रह्म भी नहीं जानता।
फिर भी अपनी भक्ति विधि को बताते हुए अध्याय 40 मंत्र 15 में कहा है कि मेरी साधना ओ3म् नाम का जाप कर्म करते-करते कर, विशेष आस्था के साथ सुमरण कर तथा मनुष्य जीवन का मुख्य कत्र्तव्य जान कर सुमरण कर इससे मृत्यु उपरान्त अर्थात् शरीर छूटने पर मेरे वाला अमरत्व अर्थात् मेरी परमगति को प्राप्त हो जाएगा। जैसे सूक्ष्म शरीर में कुछ शक्ति आ जाती है कुछ समय तक अमर हो जाता है। जिस कारण स्वर्ग में चला जाता है। फिर जन्म-मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
अध्याय 3का श्लोक 10
सहयज्ञाः, प्रजाः, सृष्टा , पुरा, उवाच, प्रजापतिः,
अनेन, प्रसविष्यध्वम्, एषः, वः, अस्तु, इष्टकामधुक्।।10।।
Having created mankind along with the spirit of sacrifice at the beginning of Creation the Creator, Brahma, said to them, “You shall prosper by this; may this yield the enjoyment you seek. (10)
हिन्दी: प्रजापति ने कल्पके आदिमें यज्ञसहित प्रजाओंको रचकर उनसे कहा कि अन्न द्वारा होने वाला धार्मिक कर्म जिसे धर्म यज्ञ कहते हैं, जिसमें भण्डारे करना आदि है, इस यज्ञके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होओ और तुम को यह पूर्ण परमात्मा यज्ञ में प्रतिष्ठित इष्ट ही इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो।
अध्याय 3 का श्लोक 11
देवान्, भावयत, अनेन, ते, देवाः, भावयन्तु, वः,
परस्परम् भावयन्तः, श्रेयः, परम्, अवाप्स्यथ।।11।।
विशेष:- गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में वर्णित उल्टा लटका हुआ संसार रूपी वृक्ष है, उस की जड़ (मूल) तो पूर्ण परमात्मा है तथा तना परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष है तथा डार क्षर पुरुष (ब्रह्म) है व तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी रूपी शाखायें हैं। वृृक्ष को मूल(जड़) से ही खुराक अर्थात् आहार प्राप्त होता है। जैसे हम आम का पौधा लगायेंगे तो मूल को सीचेंगे, जड़ से खुराक तना में जायेगी, तना से मोटी डार में, डार से शाखाओं में जायेगी, फिर उन शाखाओं को फल लगेंगे, फिर वह टहनियां अपने आप फल देंगी। इसी प्रकार पूर्णब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म रूपी मूल की पूजा अर्थात् सिंचाई करने से अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म रूपी तना में संस्कार अर्थात् खुराक जायेगी, फिर अक्षर पुरुष से क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म रूपी डार में संस्कार अर्थात् खुराक जायेगी। फिर ब्रह्म से तीनों गुण अर्थात् श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी रूपी तीनों शाखाओं में संस्कार अर्थात् खुराक जायेगी। फिर इन तीनों देवताओं रूपी टहनियों को फल लगेंगे अर्थात् फिर तीनों प्रभु श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी हमें संस्कार आधार पर ही कर्म फल देते हैं। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 16 व 17 में भी है कि दो प्रभु इस पृथ्वी लोक में है, एक क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म, दूसरा अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म। ये दोनों प्रभु तथा इनके लोक में सर्व प्राणी तो नाशवान हैं, वास्तव में अविनाशी तथा तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण-पोषण करने वाला परमेश्वर परमात्मा तो उपरोक्त दोनों भगवानों से भिन्न है।
हिन्दी: इस यज्ञके द्वारा देवताओं अर्थात् शाखाओं को उन्नत करो और वे देवता अर्थात् शाखायें तुमलोगोंको उन्नत करें अर्थात् संस्कार वश फल प्रदान करें। इस प्रकार निःस्वार्थभावसे एक-दूसरेको उन्नतकरते हुए परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।
Foster the gods through this (sacrifice), and let the gods be gracious to you. Each fostering other disinterestedly, you will attain the highest good. (11)
अध्याय 3 का श्लोक 12
इष्टान् भोगान्, हि, वः, देवाः, दास्यन्ते, यज्ञभाविताः,
तैः दत्तान्, अप्रदाय, एभ्यः, यः, भुङ्क्ते, स्तेनः, एव, सः।।12।।
हिन्दी: क्योंकि उस यज्ञों में प्रतिष्ठित इष्ट देव अर्थात् पूर्ण परमात्मा को भोग लगाने से मिलने वाले प्रतिफल रूप भोगों को तुमको यज्ञों के द्वारा फले देवता इसका प्रतिफल देते रहेगें। उनके द्वारा दिये हुए भौतिक सुख को जो इनको बिना दिये अर्थात् यज्ञ दान आदि नहीं करते स्वयं ही खा जाते हैं, वह वास्तव में चोर है।
Fostered by sacrifice, the gods will surely bestow on you unasked all the desired enjoyments. He who enjoys the gifts bestowed by them, without giving them in return, is undoubtedly a thief. (12)
अध्याय 3 का श्लोक 13
यज्ञशिष्टाशिनः, सन्तः, मुच्यन्ते, सर्वकिल्बिषैः,
भुजते, ते, तु, अघम्, पापाः, ये, पचन्ति, आत्मकारणात्।। 13।।
हिन्दी: यज्ञ में प्रतिष्ठित इष्ट अर्थात् पूर्ण परमात्मा को भोग लगाने के बाद बने प्रसाद को खाने वाले साधु यज्ञादि न करने से होने वाले सब पापोंसे बच जाते हैं और जो पापीलोग अपना शरीर पोषण करनेके लिये ही अन्न पकाते हैं वे तो पापको ही खाते हैं।
The virtuous who partake of what is left over after sacrifice are absolved of all sins. Those sinful ones who cook for th^ sake of nourishing their body alone eat oni sin. (13)
अध्याय 3 का श्लोक 14-15
अन्नात्, भवन्ति, भूतानि, पर्जन्यात्, अन्नसम्भवः,
यज्ञात्, भवति, पर्जन्यः, यज्ञः, कर्मसमुद्भवः।।14।।
कर्म, ब्रह्मोद्भवम्, विद्धि, ब्रह्म, अक्षरसमुद्भवम्,
तस्मात्, सर्वगतम्, ब्रह्म, नित्यम्, यज्ञे, प्रतिष्ठितम्।।15।।
हिन्दी: प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं , अन्नकी उत्पत्ति वृ ष्टिसे होती है वृृष्टि यज्ञसे होती है और यज्ञ विहित कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाला है। कर्मको तू ब्रह्मसे उत्पन्न और ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष को अविनाशी परमात्मासे उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परमात्मा सदा ही यज्ञमें प्रतिष्ठित है अर्थात् यज्ञों का भोग लगा कर फल दाता भी वही पूर्णब्रह्म है।
All beings are evolved from food; production of food is dependent on rain; rain ensues from sacrifice, and sacrifice is rooted in prescribed action. Know that prescribed action has its origin in the Vedas, and the Vedas proceed from the Indestructible (God); hence the all-pervading Infinite is always present in sacrifice. (14,15)
अध्याय 3 का श्लोक 16
एवम्, प्रवर्तितम्, चक्रम्, न, अनुवर्तयति, इह, यः,
अघायुः, इन्द्रियारामः, मोघम्, पार्थ, सः, जीवति।।16।।
हिन्दी: हे पार्थ! जो पुरुष इस लोकमें इस प्रकार परम्परासे प्रचलित सृष्टिचक्रके अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कत्र्तव्यका पालन नहीं करता वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला पापी पुरुष व्यर्थ ही जीवित है।
Arjuna, he who does not follow the wheel of creation thus set going in this world (i.e., does not perform his duties), sinful and sensual, he lives in vain. (16)
अध्याय 3 का श्लोक 17
यः, तु, आत्मरतिः, एव, स्यात्, आत्मतृप्तः, च, मानवः,
आत्मनि, एव, च, सन्तुष्टः, तस्य, कार्यम्, न, विद्यते।।17।।
हिन्दी: परंतु जो मनुष्य वास्तव में आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा में लीन रहने वाला ही रमण और परमात्मा में ही तृप्त तथा परमात्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिये कोई कत्र्तव्य नहीं जान पड़ता।
He, however, who takes delight in the self alone and is gratified with the Self, and is contented in the self, has no duty. (17)
अध्याय 3 के श्लोक 18
न, एव, तस्य, कृृतेन, अर्थः, न, अकृृतेन, इह, कश्चन,
न, च, अस्य, सर्वभूतेषु, कश्चित्, अर्थव्यपाश्रयः।।18।।
हिन्दी: उस महापुरुषका इस विश्वमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मोंके न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें भी इसका किंचितमात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। क्योंकि वह स्वार्थ रहित होने से किसी को शास्त्र विधि रहित भक्ति कर्म नहीं करवाता, न ही स्वयं करता है। वह धन उपार्जन के उद्देश्य से साधना नहीं करता या करवाता।
In this world that great soul has no use whatsoever for things done nor for things not done; nor has he selfish dependence of any kind on any creature. (18)
अध्याय 3 का श्लोक 19
तस्मात्, असक्तः, सततम्, कार्यम्, कर्म, समाचर,
असक्तः, हि, आचरन्, कर्म, परम्, आप्नोति, पूरुषः।।19।।
हिन्दी: इसलिये तू निरन्तर आसक्तिसे रहित होकर सदा शास्त्र विधि अनुसार कर्तव्यकर्मको भलीभाँति करता रह। क्योंकि इच्छासे रहित होकर भक्ति कर्म करता हुआ पूर्ण परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
Therefore, go on efficiently doing your duty without attachment. Doing work without attachment man attains the Supreme. (19)
अध्याय 3 का श्लोक 20
कर्मणा, एव, हि, संसिद्धिम्, आस्थिताः, जनकादयः,
लोकसंग्रहम्, एव, अपि, सम्पश्यन्, कर्तुम्, अर्हसि।।20।।
हिन्दी: जनकादि भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही सिद्धिको प्राप्त हुए थे। इसलिये लोकसंग्रहको देखते हुए भी तू सांसारिक कार्य करते हुए भी शास्त्र विधि अनुसार कर्म करनेको ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है।
It is through action (without attachment) alone that J anaka and other wise men reached perfection. Having an eye to maintenance of the world order too you should take to action.
अध्याय 3 का श्लोक 21
यत्, यत् आचरति, श्रेष्ठः, तत्, तत्, एव, इतरः, जनः,
सः, यत्, प्रमाणम्, कुरुते, लोकः, तत्, अनुवर्तते।।21।।
हिन्दी: श्रेष्ठ पुरुष अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार साधना करने वाले साधक जो-जो आचरण करता है अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं वह जो कुछ प्रमाण कर देता है समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है।
For whatever a great man does, that very thing other men also do; whatever standard he sets up; the generality of men follow the same. (21)
अध्याय 3 का श्लोक 22
न, मे, पार्थ, अस्ति, कर्तव्यम्, त्रिषु, लोकेषु, कि×चन,
न, अनवाप्तम्, अवाप्तव्यम्, वर्ते, एव, च, कर्मणि।।22।।
हिन्दी: हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकोंमे न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ।
Arjuna, there is nothing in all the three worlds for Me to do, nor is there anything worth attaining unattained by Me. Yet I continue to work. (22)
अध्याय 3 का श्लोक 23
यदि, हि, अहम्, न, वर्तेयम्, जातु, कर्मणि, अतन्द्रितः,
मम, वत्र्म, अनुवर्तन्ते, मनुष्याः, पार्थ, सर्वशः।।23।।
हिन्दी: क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मोंमें न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाऐ क्योंकि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं।
Should I not engage in action, scrupulously at any time, great harm will come to the world; for, Arjuna, men follow My way in all matters. (23)
अध्याय 3 का श्लोक 24
उत्सीदेयुः, इमे, लोकाः, न, कुर्याम्, कर्म, चेत्, अहम्,
संकरस्य, च, कर्ता, स्याम्, उपहन्याम्, इमाः, प्रजाः।।24।।
हिन्दी: यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरताका करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजाको नष्ट करनेवाला बनूँ।
If I cease to act, these worlds will perish; nay, I should prove to be the cause of confusion, and of the destruction of these people. (24)
अध्याय 3का श्लोक 25
सक्ताः, कर्मणि, अविद्वांसः, यथा, कुर्वन्ति, भारत,
कुर्यात्, विद्वान्, तथा, असक्तः, चिकीर्षुः, लोकसङ्ग्रहम्।।25।।
हिन्दी: हे भारत! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार शास्त्रअनुकूल कर्म करते हैं आसक्तिरहित विद्वान् भी शिष्य बनाने की इच्छा से जनता इक्कठी करना चाहता हुआ उपरोक्त शास्त्र विधि अनुसार कर्म करे।
भावार्थ:- भगवान कह रहे है कि यदि अशिक्षित व्यक्ति शास्त्रविधि अनुसार साधना करते हैं तो शिक्षित व्यक्ति को भी उसका अनुसरण करना चाहिए। इसी में विश्व कल्याण है।
Arjuna, as the unwise act with attachment, so should the wise man, seeking maintenance of the world order, act without attachment. (25)
अध्याय 3का श्लोक 26
न, बुद्धिभेदम्, जनयेत्, अज्ञानाम्, कर्मसंगिनाम्,
जोषयेत्, सर्वकर्माणि, विद्वान्, युक्तः, समाचरन्।।26।।
हिन्दी: शास्त्र अनुकूल साधकों द्वारा दिए ज्ञान से शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्मों पर अडिग अशिक्षितों अर्थात् अज्ञानियोंकी साधनाओं शास्त्र विरुद्ध साधना से हानि तथा शास्त्र विधि अनुसार साधना से लाभ होता है, इसे प्रत्यक्ष देखकर उनकी बुद्धि में अन्तर उत्पन्न न करे अर्थात् उनको विचलित न करें कि तुम अशिक्षित हो तुम क्या जानों सत्य साधना। अपने मान वश उनको भ्रमित न करके अन्य शास्त्र विरूद्ध साधना में लीन ज्ञानी पुरुषको चाहिए कि वह भक्ति कर्मों को सुचारू रूप से करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे अर्थात् उनको भ्रमित न करके प्रोत्साहन करे।
A wise man established in the Self, should not unsettle the mind of the ignorant attached to action, but should get them to perform all their duties, duly performing his own duties. (26)
अध्याय 3 का श्लोक 27
प्रकृतेः, क्रियमाणानि, गुणैः, कर्माणि, सर्वशः,
अहंकारविमूढात्मा, कर्ता, अहम्, इति, मन्यते।।27।।
हिन्दी: सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृति दुर्गा से उत्पन्न रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी अर्थात् तीनों गुणोंद्वारा संस्कार वश किये जाते हैं तो भी अहंकार युक्त शिक्षित होते हुए तत्वज्ञान हीन अज्ञानी ‘मैं कत्र्ता हूँ‘ ऐसा मानता है।
All actions are being performed by the modes of Prakrti (Primordial Matter). The fool, whose mind is deluded by egoism, thinks: “I am the doer.” (27)
अध्याय 3 का श्लोक 28
तत्त्ववित्, तु, महाबाहो, गुणकर्मविभागयोः,
गुणाः, गुणेषु, वर्तन्ते, इति, मत्वा, न, सज्जते।।28।।
हिन्दी: परंतु हे महाबाहो! गुणविभाग और कर्मविभागके तत्वको जाननेवाला ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् जितनी शक्ति तीनों गुणों रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तमगुण शिव जी में है, उससे पूर्ण परिचित व्यक्ति की आस्था इन में इतनी रह जाती है। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 45-46 में भी है ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता अर्थात् अहंकार त्यागकर तुरन्त शास्त्रअनुकूल साधना करने लग जाता है।
He, however, who has true insight into the respective spheres of Gunas (Modes of Prakrti) and their actions, holding that it is the Gunas (in the shape of the senses, mind, etc.,) that move among the Gunas (objects of perception), does not get attached to them, Arjuna. (28)
अध्याय 3 का श्लोक 29
प्रकृतेः, गुणसम्मूढाः, सज्जन्ते, गुणकर्मसु,
तान्, अकृत्स्न्नविदः, मन्दान्, कृत्स्न्नवित्, न, विचालयेत्।।29।।
हिन्दी: प्रकृति से उत्पन्न प्रकृति के पुत्र तीनों गुणों अर्थात् रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी से अत्यन्त मोहित हुए मुर्ख मनुष्य गुणों अर्थात् तीनों प्रभुओं की साधना के कर्मोंमें आसक्त रहते हैं उन पूर्णतया न समझनेवाले अर्थात् शास्त्र विधि त्याग कर साधना करने वाले जो स्वभाव वश चल रहे हैं उन मन्दबुद्धि अशिक्षितों को सत्यभक्ति जाननेवाला ज्ञानी अर्थात् शास्त्र अनुसार साधना करने वाले मन्द बुद्धि अज्ञानियों को जो स्वभाववश तीनों गुणों अर्थात् श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी तक की साधना पर अडिग हैं, उनकी गलत साधना से विचलित नहीं कर सकते अर्थात् बहुत कठिन है, वे तो नष्ट ही हैं। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तक में भी है।
Those who are completely deluded by the Gunas (modes) of Prakrti remain attached to those Gunas and actions; the man of perfect Knowledge should not unsettle the mind of those insufficiently knowing fools. (29)
अध्याय 3का श्लोक 30
मयि, सर्वाणि, कर्माणि, सóयस्य, अध्यात्मचेतसा,
निराशीः, निर्ममः, भूत्वा, युध्यस्व, विगतज्वरः।।30।।
हिन्दी: पूर्ण परमात्मामें लगे हुए चितद्वारा सम्पूर्ण कर्मोंको मुझमें त्याग करके आशारहित ममतारहित और संतापरहित होकर युद्ध कर। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में है कि मेरी सर्व धार्मिक पूजाओं को मुझमें छोड़ कर सर्व शक्तिमान परमेश्वर की शरण में जा।
Therefore, dedicating all actions to Me with your mind fixed on Me, the Self of all freed from hope and the feeling of meum and cured of mental fever, fight. (30)
अध्याय 3 का श्लोक 31
ये, मे, मतम्, इदम्, नित्यम्, अनुतिष्ठन्ति, मानवाः,
श्रद्धावन्तः, अनसूयन्तः, मुच्यन्ते, ते, अपि, कर्मभिः।।31।।
हिन्दी: जो कोई मनुष्य दोषदृष्टिसे रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत अर्थात् सिद्धांत का सदा अनुसरण करते हैं वे भी शास्त्र विधि त्याग कर अर्थात् सिद्धान्त छोड़ कर किए जाने वाले दोष युक्त कर्मोंसे बच जाते हैं।
Even those men who, with an uncavilling and devout mind, always follow this teaching of Mine are released from the bondage of all actions. ( 31 )
अध्याय 3 का श्लोक 32
ये, तु, एतत्, अभ्यसूयन्तः, न, अनुतिष्ठन्ति, मे, मतम्,
सर्वज्ञानविमूढान्, तान्, विद्धि, नष्टान्, अचेतसः।।32।।
हिन्दी: परंतु जो दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत अर्थात् सिद्धान्त के अनुसार नहीं चलते हैं उन मूर्खोंको तू सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और नष्ट हुए ही जान।
They, however, who, finding fault with this teaching of Mine, do not follow it, take those fools to be deluded in the matter of all knowledge, and lost. (32)
विशेष:- गीता अध्याय 3 श्लोक 25 से 29 में अपने द्वारा बतायें गए मत अर्थात् सिद्धान्त का विस्तृृत वर्णन किया है। 3 श्लोक 25 से 29 में विचार व्यक्त किए हैं कि शिक्षित व्यक्ति यदि शास्त्र विधि त्याग कर साधना कर रहे हैं और उन्हें कोई अशिक्षित शास्त्र अनुसार साधना करता हुआ मिले तो उसे विचलित न करें अपितु स्वयं भी उनकी साधना को स्वीकार करे। पूर्ण सन्त से उपदेश प्राप्त करके अपना कल्याण कराऐं। यही प्रमाण गीता अध्याय 13 श्लोक 11 में भी है।
अध्याय 3 का श्लोक 33
सदृशम्, चेष्टते, स्वस्याः, प्रकृतेः, ज्ञानवान्, अपि,
प्रकृतिम्, यान्ति, भूतानि, निग्रहः, किम्, करिष्यति।।33।।
हिन्दी: सभी प्राणी प्रकृति अर्थात् स्वभाव को प्राप्त होते हैं ज्ञानवान् भी अपने निष्कर्ष द्वारा निकाले भक्ति मार्ग के आधार से स्वभावके अनुसार चेष्टा करता है हठ क्या करेगा?
All living creatures follow their tendencies; even the wise man acts according to the tendecies of his own nature. What use is any external restraint? (33)
विशेष:- स्वभाव वश सर्व प्राणी धार्मिक कर्म करते हैं। कहने से भी नहीं मानते। वे राक्षस स्वभाव के व्यक्ति शास्त्र विधि रहित अर्थात् मेरे मत के विपरीत मनमाना आचरण करते हैं:- प्रमाण गीता अध्याय 16 व 17 में।
विचार करें:-- अध्याय 3 के श्लोक 33, 34, 35 का भाव है कि सर्व प्राणी प्रकृति(माया) के वश ही हैं। स्वभाववश कर्म करते हैं। ऐसे ही ज्ञानी भी अपनी आदत वश कर्म करते हैं फिर हठ क्या करेगा।
सार: -- शिक्षित व्यक्ति जो तत्वज्ञान हीन हैं अपनी गलत पूजा को नहीं त्यागते चाहे कितना आग्रह करें, चाहे सद्ग्रन्थों के प्रमाण भी दिखा दिए जाऐं वे नहीं मानते। कुछ ज्ञानी-विद्वान पुरुष मान वश पैसा प्राप्ति व अधिक शिष्य बनाने की इच्छा से सच्चाई का अनुसरण नहीं करते। उन तत्वज्ञान हीन सन्तों के अशिक्षित शिष्य व शिक्षित शिष्य प्रमाण देखकर भी उन अज्ञानी सन्तों को नहीं त्यागते सत्य साधना ग्रहण नहीं करते वे मूढ़ हैं। दोनों (ज्ञानी व अज्ञानी) स्वभाव वश चल रहे हैं। इसलिए भक्ति मार्ग गलत दिशा पकड़ चुका है तथा इन दोनों को समझाना व्यर्थ है।
गरीब, चातुर प्राणी चोर हैं, मूढ मुग्ध हैं ठोठ। संतों के नहीं काम के, इनकूं दे गल जोट।।
अध्याय 3 का श्लोक 34
इन्द्रियस्य, इन्द्रियस्य, अर्थे, रागद्वेषौ, व्यवस्थितौ,
तयोः, न, वशम्, आगच्छेत्, तौ, हि, अस्य, परिपन्थिनौ।।34।।
हिन्दी: इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये क्योंकि वे दोनों ही इसके विघ्न करनेवाले महान् शत्रु हैं।
Attraction and repulsion are rooted in all sense-objects. Man should never allow himself to be swayed by them, because they are the two principal enemies standing in the way of his redemption. (34)
अध्याय 3 का श्लोक 35
श्रेयान्, स्वधर्मः, विगुणः, परधर्मात्, स्वनुष्ठितात्,
स्वधर्मे, निधनम्, श्रेयः, परधर्मः, भयावहः।।35।।
हिन्दी: गुणरहित अर्थात् शास्त्र विधि त्याग कर स्वयं मनमाना अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए दूसरोंकी धार्मिक पूजासे अपनी शास्त्र विधि अनुसार पूजा अति उत्तम है जो शास्त्रनुकूल है अपनी पूजा में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेकी पूजा भयको देनेवाली है।
One’s own duty, though devoid of merit, is preferable to the duty of another well performed. Even death in the performance of one’s own duty brings blessedness; another’s duty is fraught with fear. (35)
यही प्रमाण श्री विष्णु पुराण तृतीश अंश, अध्याय 18 श्लोक 1 से 12 पृष्ठ 215 से 220 तक है।
अध्याय 3 का श्लोक 36
(अर्जुन उवाच)
अथ, केन, प्रयुक्तः, अयम्, पापम्, चरति, पूरुषः,
अनिच्छन्, अपि, वाष्र्णेय, बलात्, इव, नियोजितः।।36।।
हिन्दी: हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयम् न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुएकी भाँति किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?
Arjuna said : Now impelled by what, Krsna, does this man commit sin even involuntarily, as though driven by force? (36)
अध्याय 3 का श्लोक 37
(भगवान उवाच)
कामः, एषः, क्रोधः, एषः, रजोगुणसमुद्भवः,
महाशनः, महापाप्मा, विद्धि, एनम्, इह, वैरिणम्।।37।।
हिन्दी: रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह विषय वासना अर्थात् सैक्स और यह क्रोध जीव को अत्यधिक खाने वाला अर्थात् नष्ट करने वाला बड़ा पापी है इस उपरोक्त पाप को ही तू इस विषयमें वैरी जान।
Sri Bhagavan said : It is desire begotten of the element of Rajas, which appears as wrath; nay, it is insatiable and grossly wicked. Know this to be the enemy in this case. (37)
अध्याय 3 का श्लोक 38
धूमेन, आव्रियते, वह्निः, यथा, आदर्शः, मलेन, च,
यथा, उल्बेन, आवृतः, गर्भः, तथा, तेन, इदम्, आवृतम्।।38।।
हिन्दी: जिस प्रकार धुएँसे अग्नि और मैलसे दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेरसे गर्भ ढका रहता है वैसे ही उपरोक्त विकारों द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है।
As a flame is covered by smoke, mirror by dirt, and embryo by the amnion, so is Knowledge coverd by it (desire) (38)
अध्याय 3 का श्लोक 39
आवृतम्, ज्ञानम्, एतेन, ज्ञानिनः, नित्यवैरिणा,
कामरूपेण, कौन्तेय, दुष्पूरेण, अनलेन, च।।39।।
हिन्दी: और हे कुन्ति पुत्र अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होनेवाले कामरूप विषय वासना अर्थात् सैक्स रूपी ज्ञानियोंके नित्य वैरीके द्वारा मनुष्यका ज्ञान ढका हुआ है।
And, Arjuna, Knowledge stand covered by this eternal enemy of the wise, known as desire, which is insatiable like fire. (39)
अध्याय 3 का श्लोक 40
इन्द्रियाणि, मनः, बुद्धिः, अस्य, अधिष्ठानम्, उच्यते,
एतैः, विमोहयति, एषः, ज्ञानम्, आवृत्य, देहिनम्।।40।।
हिन्दी: इन्द्रियाँ मन और बुद्धि ये सब इस कामदेव अर्थात् सैक्स का वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम विषय वासना की इच्छा इन मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके द्वारा ही ज्ञानको आच्छादित करके जीवात्माको मोहित करता है।
The senses, the mind and the intellect are declared to be its seat; screening the light of Truth through these; it (desire) deludes the embodied soul. (40)
अध्याय 3 का श्लोक 41
तस्मात्, त्वम्, इन्द्रियाणि, आदौ, नियम्य, भरतर्षभ,
पाप्मानम्, प्रजहि, हि, एनम्, ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।41।।
हिन्दी: इसलिए भरतर्षभ अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान को नष्ट करने वाले महापापी काम को अवश्य ही मार।
The senses are said to be greater than the body; but greater than the senses is the mind. Greater than the mind is the intellect; and what is greater than the intellect is he (the Self). (42)
अध्याय 3 का श्लोक 42
इन्द्रियाणि, पराणि, आहुः, इन्द्रियेभ्यः, परम्, मनः,
मनसः, तु, परा, बुद्धिः, यः, बुद्धेः, परतः, तु, सः।।42।।
हिन्दी: इन्द्रियोंको स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं, इन इन्द्रियोंसे अधिक मन है, मनसे तो उत्तम बुद्धि है और जो बुद्धिसे भी अत्यन्त शक्तिशाली है, वह परमात्मा सहित आत्मा है।
The senses are said to be greater than the body; but greater than the senses is the mind. Greater than the mind is the intellect; and what is greater than the intellect is he (the Self). (42)
अध्याय 3 का श्लोक 43
एवम्, बुद्धेः, परम्, बुद्ध्वा, संस्तभ्य, आत्मानम्, आत्मना,
जहि, शत्रुम्, महाबाहो, कामरूपम्, दुरासदम्।।43।।
हिन्दी: इस प्रकार बुद्धिसे अत्यन्त श्रेष्ठ परमात्मा को जानकर और अपने आप को स्वअभ्यास द्वारा संयमी हे महाबाहो! अर्जुन तू इस कामरूप अर्थात् भोग विलास रूप दुर्जय शत्रु को मार डाल।
Thus, Arjuna, knowing that which is higher than the intellect and subduing the mind by reason, kill this enemy in the form of Desire that is hard to overcome. (43)
Chapter 3 Of Bhagwat Geeta