Chapter 4 of the Bhagavad Gita is titled "Gyan Karm Sanyas Yog" or the "Yoga of Knowledge." In this chapter, Lord Krishna continues to impart spiritual teachings to Arjuna, focusing on the importance of knowledge, the concept of the eternal soul (Atman), and the significance of devotion to God. Here's a brief summary of Chapter 4:
1. **Transmission of Knowledge**: Krishna reveals that the knowledge He is imparting to Arjuna is not new but ancient. He explains that He has passed this knowledge down through the ages to enlightened beings known as the "rajarsis" (saintly kings). Arjuna, however, had forgotten this knowledge due to the passage of time.
2. **The Nature of Action and Inaction**: Krishna explains the concept of action and inaction, emphasizing that true inaction is not possible as everyone is bound by their nature to perform actions. Even if one refrains from physical actions, their thoughts and desires still lead to action.
3. **Importance of Detachment**: Krishna elaborates on the importance of performing actions without attachment to the results. He emphasizes that those who act with detachment attain inner peace and are unaffected by success or failure.
4. **The Eternal Soul (Atman)**: Krishna teaches Arjuna about the eternal nature of the soul (Atman). The body is perishable, but the soul is immortal and indestructible. It transcends birth and death, and it is beyond the physical realm.
5. **Concept of Reincarnation**: Krishna explains the concept of reincarnation (samsara) and how the soul transmigrates from one body to another after death, driven by its karma. Understanding this cycle helps one to detach from worldly attachments.
6. **The Role of Divine Incarnations**: Krishna discusses how He incarnates whenever there is a decline in righteousness (dharma) to restore order and guide humanity back to the right path.
7. **Path of Devotion (Bhakti Yoga)**: Krishna emphasizes the importance of devotion to God as a means to attain liberation. He explains that through unwavering devotion and surrender to the divine, one can transcend the cycle of birth and death.
8. **Benefits of Knowing the Truth**: Krishna assures Arjuna that those who understand the truth about the eternal soul and the transient nature of the physical world are freed from the cycle of birth and death. They attain ultimate liberation (moksha) and merge with the divine.
In summary, Chapter 4 of the Bhagavad Gita delves into the concepts of knowledge, action, detachment, the eternal soul, and the path of devotion. It emphasizes the importance of understanding the true nature of the self and the universe to attain liberation from worldly bondage.
अध्याय 4 का श्लोक 1
(भगवान उवाच)
इमम्, विवस्वते, योगम्, प्रोक्तवान्, अहम्, अव्ययम्,
विवस्वान्, मनवे, प्राह, मनुः, इक्ष्वाकवे, अब्रवीत्।।1।।
हिन्दी: मैंने इस अविनाशी भक्ति मार्ग को सूर्यसे कहा था सूर्यने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनुने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकुसे कहा।
Sri Bhagavan said : I taught this immortal Yoga to Vivasvan (Sun-god); Vivasvan conveyed it to Manu (his son); and Manu imparted it to (his son) Iksvaku. (1)
अध्याय 4 का श्लोक 2
एवम्, परम्पराप्राप्तम्, इमम्, राजर्षयः, विदुः,
सः, कालेन, इह, महता, योगः, नष्टः, परन्तप।।2।।
हिन्दी: हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परासे प्राप्त इस भक्ति मार्ग को राजर्षियोंने जाना किंतु उसके बाद वह योग अर्थात् भक्ति मार्ग बहुत समय से इस पृथ्वीलोकमें समाप्त हो गया।
Thus transmitted in succession from father to son, Arjuna, this Yoga remained known to the Rajarsis (royal sages). It has, however, long since disappeared from this earth. (2)
अध्याय 4 का श्लोक 3
सः, एव, अयम्, मया, ते, अद्य, योगः, प्रोक्तः, पुरातनः,
भक्तः, असि, मे, सखा, च, इति, रहस्यम्, हि, एतत्, उत्तमम्।।3।।
हिन्दी: तू मेरा भक्त और सखा है इसलिये वही यह पुरातन वास्तविक भक्ति मार्ग पुराना मैंने तुझको कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य वाला है अर्थात् गुप्त रखने योग्य विषय है।
The same ancient Yoga has this day been imparted to you by Me, because you are My devotee and friend; and also because this is a supreme secret. (3)
अध्याय 4 का श्लोक 4
(अर्जुन उवाच)
अपरम्, भवतः, जन्म, परम्, जन्म, विवस्वतः,
कथम्, एतत्, विजानीयाम्, त्वम्, आदौ, प्रोक्तवान् इति।।4।।
हिन्दी: आपका जन्म तो अधिक समय का नहीं है अर्थात् अभी हाल का है और सूर्यका जन्म अधिक पहले का है इस बातको कैसे समझूँ कि आपहीने कल्पके आदिमें सूर्यसे यह योग कहा था?।
Arjuna said : You are of recent origin, while the birth of Vivasvan dates back to remote antiquity. How, then, am I to believe that You taught this Yoga at the beginning of creations? (4)
अध्याय 4 का श्लोक 5
(भगवान उवाच)
बहूनि, मे, व्यतीतानि, जन्मानि, तव, च, अर्जुन,
तानि, अहम्, वेद, सर्वाणि, न, त्वम्, वेत्थ, परन्तप।।5।।
हिन्दी: हे परन्तप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता किंतु मैं जानता हूँ।
Sri Bhagavan said : Arjuna, you and I have passed through many births, I remember them all; you do not remember, O chastiser of foes. (5)
अध्याय 4 का श्लोक 6
अजः, अपि, सन्, अव्ययात्मा, भूतानाम्, ईश्वरः, अपि, सन्,
प्रकृतिम्, स्वाम्, अधिष्ठाय, सम्भवामि, आत्ममायया।।6।।
हिन्दी: मनुष्यों की तरह मैं जन्म न लेने वाला और अविनाशीआत्मा होते हुए भी तथा मेरे इक्कीस ब्रह्मण्डों के प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृृति अर्थात् दुर्गा को अधीन करके अर्थात् पत्नी रूप में रखकर अपने अंश अर्थात् पुत्र श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, व शिव जी उत्पन्न करता हूँ, फिर उन्हें श्री कृष्ण, श्री राम, श्री परसुराम आदि अंश अवतार प्रकट करता हूँ।
Though birthless and deathless, and the Lord of all beings, I manifest Myself through My own Yogamaya (divine potency), keeping My Nature (Prakrti) under control. (6)
अध्याय 4 का श्लोक 7
यदा, यदा, हि, धर्मस्य, ग्लानिः, भवति, भारत,
अभ्युत्थानम्, अधर्मस्य, तदा, आत्मानम्, सृजामि, अहम्।।7।।
हिन्दी: हे भारत! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है तब-तब ही मैं अपना अंश अवतार रचता हूँ अर्थात् उत्पन्न करता हूँ।
Arjuna, whenever righteousness is on the decline, and unrighteousness is in the ascendant, then I body Myself forth. (7)
अध्याय 4 का श्लोक 8
परित्रणाय, साधूनाम्, विनाशाय, च, दुष्कृृताम्,
धर्मसंस्थापनार्थाय, सम्भवामि, युगे, युगे।।8।।
हिन्दी: साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये बुरेकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और भक्ति मार्ग को शास्त्र अनुकूल दिशा देने के लिए युग-युगमें अपने अंश प्रकट करता हूँ तथा उनमें गुप्त रूप से मैं प्रवेश करके अपनी लीला करता हूँ।
For the protection of the virtuous, for the extirpation of evil-doers, and for establishing Dharma (righteousness) on a firm footting, I born from age to age. (8)
अध्याय 4 का श्लोक 9
जन्म, कर्म, च, मे, दिव्यम्, एवम्, यः, वेत्ति, तत्त्वतः,
त्यक्त्वा, देहम्, पुनः, जन्म, न, एति, माम्, एति, सः, अर्जुन।।9।।
हिन्दी: हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् अलौकिक हैं इस प्रकार जो मनुष्य तत्वसे जान लेता है वह शरीरको त्यागकर फिर जन्मको प्राप्त नहीं होता किंतु जो मुझ काल को तत्व से नहीं जानते मुझे ही प्राप्त होता है।
विशेष:- काल (ब्रह्म) के अलौकिक जन्मों को जानने के लिए देखें अध्याय 8 में प्रलय की जानकारी।
Arjuna, My birth and activities are divine, he who knows this in reality is not reborn on leaving his body, but comes to Me. (9)
अध्याय 4 का श्लोक 10
वीतरागभयक्रोधाः, मन्मयाः, माम्, उपाश्रिताः,
बहवः, ज्ञानतपसा, पूताः, मद्भावम्, आगताः।।10।।
हिन्दी: जिनके राग भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गये और जो मुझमें अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते हैं ऐसे मेरे आश्रित रहनेवाले बहुत-से भक्त उपर्युक्त ज्ञानरूप तपसे पवित्र होकर मतावलम्बी अर्थात् शास्त्र अनुकूल साधना करने वाले स्वभाव के हो चुके हैं।
Completely rid of passion, fear and anger, wholly absorbed in Me,, depending on Me, and purified by the penance of wisdom; many have become one with Me even in the past. (10)
अध्याय 4 का श्लोक 11
ये, यथा, माम्, प्रपद्यन्ते, तान्, तथा, एव, भजामि, अहम्,
मम्, वत्र्म, अनुवर्तन्ते, मनुष्याः, पार्थ, सर्वशः।।11।।
हिन्दी: हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ अर्थात् उनका पूरा ध्यान रखता हूँ वास्तव में सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही व्यवहारका अनुसरण करते हैं।
Arjuna, howsoever men seek Me; even so do I approach them; for all men follow My path in every way. (11)
अध्याय 4 का श्लोक 12
काङ्क्षन्तः, कर्मणाम्, सिद्धिम्, यजन्ते, इह, देवताः,
क्षिप्रम्, हि, मानुषे, लोके, सिद्धिः, भवति, कर्मजा।।12।।
हिन्दी: इस मनुष्य लोकमें कर्मोंके फलको चाहनेवाले लोग देवताओं अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, शिव का पूजन किया करते हैं क्योंकि उनको कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली अर्थात् कर्माधार से सिद्धि शीघ्र मिल जाती है।
In this world of human beings; men seeking the fruition of their activities worship the gods; for success born of actions follow quickly. (12)
अध्याय 4 का श्लोक 13
चातुर्वण्र्यम्, मया, सृष्टम्, गुणकर्मविभागशः,
तस्य, कर्तारम्, अपि, माम्, विद्धि, अकर्तारम्, अव्ययम्।।13।।
हिन्दी: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों का समूह गुण और कर्मोंके विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है इस प्रकार उस कर्म का कत्र्ता भी मुझ काल को ही जान तथा वह अविनाशी परमेश्वर अकत्र्ता है।
The four orders of society (the Brahmana, the Ksatriya, the Vaisya and the Sudra) were created by Me classifying them according to the mode of Prakrti predominant in each and apportioning corresponding duties to them;though the author of this creation, know Me, the immortal Lord, to be a non-doer. (13)
भावार्थः- गीता अध्याय 3 श्लोक 14-15 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि कर्मों को ब्रह्मोद्धवम अर्थात् ब्रह्म से उत्पन्न जान। यही प्रमाण इस अध्याय 4 श्लोक 13 में है। गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म कह रहा है कि चार वर्णों की व्यवस्था मैंने की है। इनके कर्मों का विभाजन भी मैंने किया है। वह अविनाशी पूर्ण परमात्मा इन कर्मों का अकर्ता है, ब्रह्मा रजगुण, विष्णु सतगुण तथा शिव तमगुण के विभाग भी काल ब्रह्म ने बनाए हैं सृृष्टि, स्थिती, संहार। इनका करने वाला अविनाशी परमात्मा नहीं है। (13)
अध्याय 4 का श्लोक 14
न, माम्, कर्माणि, लिम्पन्ति, न, मे, कर्मफले, स्पृृहा,
इति, माम्, यः, अभिजानाति, कर्मभिः, न, सः, बध्यते।।14।।
हिन्दी: कर्मोंके फलमें मेरी स्पृृहा नहीं है इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते इस प्रकार जो मुझ काल-ब्रह्म को तत्वसे जान लेता है वह भी कर्मोंसे नहीं बंधता अर्थात् गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहे तत्वदर्शी संत की खोज करके गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहे उस परमात्मा की शरण में जाकर पूर्ण परमात्मा की भक्ति करके कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता है।
Since I have no craving for the fruit of acions; actions do not contaminate Me, Even he who thus knows Me in reality is not bound by actions. (14)
अध्याय 4 का श्लोक 15
एवम्, ज्ञात्वा, कृृतम्, कर्म, पूर्वैः, अपि, मुमुक्षुभिः,
कुरु, कर्म, एव, तस्मात्, त्वम्, पूर्वैः, पूर्वतरम्, कृृतम्।।15।।
हिन्दी: पूर्वकालके मुमुक्षुओंने भी इस प्रकार जानकर ही शास्त्र विधि अनुसार साधना रूपी कर्म विशेष कसक के साथ किये हैं इसलिये तू भी पूर्वजोंद्वारा सदासे किये जानेवाले शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्मोंको ही कर।
Having known thus, action was performed even by the ancient seekers for liberation;therefore, you also perform such action as have been performed by the ancients from the beginning of time. (15)
अध्याय 4 का श्लोक 16
किम्, कर्म, किम्, अकर्म, इति, कवयः, अपि, अत्र, मोहिताः,
तत्, ते, कर्म, प्रवक्ष्यामि, यत्, ज्ञात्वा, मोक्ष्यसे, अशुभात्।।16।।
हिन्दी: कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसप्रकार यहाँ निर्णय करनेमें बुद्धिमान् साधक भी मोहित हो जाते हैं इसलिये वह कर्म-तत्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा जिसे जानकर तू शास्त्र विरुद्ध किए जाने वाले दुष्कर्मों से मुक्त हो जायगा।
What is action and what is inaction? Even men of intelligence are puzzled over this question. Therefore, I shall expound to you the truth about action, knowing which you will be freed from its evil effect (binding nature). (16)
अध्याय 4 का श्लोक 17
कर्मणः, हि, अपि, बोद्धव्यम्, बोद्धव्यम्, च, विकर्मणः,
अकर्मणः, च, बोद्धव्यम्, गहना, कर्मणः, गतिः।।17।।
हिन्दी: शास्त्र विधि अनुसार कर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये और शास्त्र विधि रहित अर्थात् अकर्मका स्वरूप भी जानना चाहिए तथा मास-मदिरा तम्बाखु सेवन तथा चोरी - दुराचार आदि विकर्मका स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्मकी गति गहन है। भावार्थ:- तत्वज्ञान को जान कर शास्त्र अनुकूल भक्ति कर्म से होने वाले लाभ से तथा शास्त्र विधि रहित भक्ति कर्म से तथा मांस, मदिरा, तम्बाखु सेवन व चोरी, दुराचार करना झूठ बोलना आदि बुरे कर्म से होने वाली हानि का ज्ञान होना अनिवार्य है। उसके लिए इस अध्याय के मंत्र 34 में विवरण है।
The truth about action must be known and the ruth of inaction also must be known; even so the truth about prohibited action must be known. For mysterious are the ways of action. (17)
अध्याय 4 का श्लोक 18
कर्मणि, अकर्म, यः, पश्येत्, अकर्मणि, च, कर्म, यः,
सः, बुद्धिमान्, मनुष्येषु, सः, युक्तः, कृृत्स्न्नकर्मकृृत्।।18।।
हिन्दी: जो मनुष्य कर्म अर्थात् शास्त्र अनुकूल साधना रूपी करने योग्य कर्म तथा अकर्म अर्थात् शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण न करने योग्य कर्म को देखता है अर्थात् जान लेता है और जो अकर्म अर्थात् वह शास्त्र विरुद्ध साधना न करने योग्य कर्म को नहीं करता कर्म अर्थात् करने योग्य कर्म को करता है वह मनुष्योंमें बुद्धिमान है और वह योगी समस्त शास्त्र विधि अनुसार ही कर्मोंको करनेवाला है।
He who sees inaction in action, and action in inaction, is wise among men; he is a yogi, who has performed all action. (18)
अध्याय 4 का श्लोक 19
यस्य, सर्वे, समारम्भाः, कामसंकल्पवर्जिताः,
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्, तम्, आहुः, पण्डितम्, बुधाः।।19।।
हिन्दी: जिसके सम्पूर्ण शास्त्र अनुकूल कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं तथा बुरे कर्म अर्थात् शास्त्र विधि रहित कार्य तत्व ज्ञानरूप अग्निके द्वारा भस्म हो गये हैं अर्थात् पूर्ण ज्ञान होने पर साधक पूर्ण संत तलाश करके वास्तविक मंत्र प्राप्त कर लेता है, जिससे सर्व पाप विनाश हो जाते हैं उसको शास्त्र विधि अनुसार साधना करने वाले बुद्धिमान लोग पण्डित कहते हैं।
Even the wise call him a sage, whose undertaking are all free from desire and thoughts of the world, and whose actions are burnt up by the fire of wisdom. (19)
अध्याय 4 का श्लोक 20
त्यक्त्वा, कर्मफलासंगम्, नित्यतृप्तः, निराश्रयः,
कर्मणि, अभिप्रवृत्तः, अपि, न, एव, किंचित्, करोति, सः।।20।।
हिन्दी: तत्वज्ञान के आधार से शास्त्र विधि रहित कर्मोंमं और उनके फलमें आसक्ति का सर्वथा त्याग करके शास्त्र विधि रहित भक्ति के कर्म से रहित हो गया है और शास्त्र अनुकूल साधना के कर्मों से नित्य तृप्त है वह संसारिक व शास्त्र अनुकूल भक्ति कर्मोंमें भलीभाँति बरतता हुआ भी वास्तवमें कुछ भी शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् मनमानी पूजा तथा दोषयुक्त कर्म नहीं करता।
He who, having totally given up attachment to actions and their fruit, no longer depends on the world, and is ever satisfied, does nothing at all, though fully engaged in action. (20)
अध्याय 4 का श्लोक 21
निराशीः, यतचित्तात्मा, त्यक्तसर्वपरिग्रहः,
शारीरम्, केवलम्, कर्म, कुर्वन्, न, आप्नोति, किल्बिषम्।।21।।
हिन्दी: शास्त्र विधि अनुसार भक्ति प्राप्त आत्मा जिसने समस्त शास्त्र विरुद्ध संग्रह की हुई साधनाओं का परित्याग कर दिया है ऐसा अविधिवत् साधना को फैंका हुआ अर्थात् शास्त्र विधि रहित साधना त्यागा हुआ भक्त केवल हठ योग न करके शरीर से जो आसानी से होने वाली सहज साधना तथा शरीर सम्बन्धी संसारिक कर्म तथा शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्म करता हुआ क्योंकि शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् पूजा करने वालों को गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म अर्थात् शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने वाले, मूर्ख मेरी भक्ति भी नहीं करते, वे केलव तीनों गुणों अर्थात् रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी की भक्ति करके उनसे मिलने वाली क्षणिक राहत पर आश्रित रहते हैं। इन्हीं तीनों गुणों अर्थात् श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी की साधना शास्त्र विधि रहित कही है इस शास्त्र विधि रहित साधना को त्याग कर शास्त्रविधि अनुसार भक्ति करता है। वह पापको नहीं प्राप्त होता। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 47-48 में भी है।
Having subdued his mind and body, and given up all objects of enjoyment, and free from craving; he who performs sheer bodily actions, does not incur sin. (21)
अध्याय 4 का श्लोक 22
यदृच्छालाभसन्तुष्टः, द्वन्द्वातीतः, विमत्सरः,
समः, सिद्धौ, असिद्धौ, च, कृत्वा, अपि, न, निबध्यते।।22।।
हिन्दी: जो बिना इच्छाके अपने आप प्राप्त हुए पदार्थमें सदा संतुष्ट रहता है जिसमें ईष्र्याका सर्वथा अभाव हो गया है जो हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा अतीत हो गया है ऐसा कार्य की सिद्धि और असिद्धिमें समान रहने वाला अर्थात् अविचलित कार्य करते-करते शास्त्र अनुकूल भक्ति करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता। क्योंकि पूर्ण संत से पूर्ण मंत्र जाप प्राप्त करने के उपरान्त निष्काम शास्त्र अनुकूल साधना के शुभ कर्म भक्ति में सहयोगी होते हैं तथा पाप विनाश हो जाते हैं। जिससे कर्म बन्धन मुक्त हो जाता है।
The Karmayogi, who is contented with whatever is got unsought, is free from jealousy and has transcended all pairs of opposites (like joy and grief), and is balanced in success and failure, is not bound by his action. (22)
अध्याय 4 का श्लोक 23
गतसंगस्य, मुक्तस्य, ज्ञानावस्थितचेतसः,
यज्ञाय, आचरतः, कर्म, समग्रम्, प्रविलीयते।।23।।
हिन्दी: शास्त्र विरुद्ध साधना से आस्था हटने के कारण उस मुक्त हुए साधक का चित्त निरन्तर परमात्मा के तत्वज्ञानमें स्थित रहता है ऐसे केवल शास्त्र अनुकूल भक्ति के लिये कर्म आचरण करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म प्रभु साधना के प्रति विलीन हो जाते हैं।
All his actions melt away, who is free from attachment, who has no identification with the body and does not claim it as his own, whose mind is established in the Knowledge of Self and who works merely for the sake of sacrifice. ( 23 )
अध्याय 4 का श्लोक 24
ब्रह्म, अर्पणम्, ब्रह्म, हविः, ब्रह्माग्नौ, ब्रह्मणा, हुतम्,
ब्रह्म, एव, तेन, गन्तव्यम्, ब्रह्मकर्मसमाधिना।।24।।
हिन्दी: ऐसे शास्त्र अनुकूल साधक का समर्पण भी ब्रह्म अर्थात् परमात्मा को है और हवन किये जाने योग्य द्रव्य भी प्रभु ही है तथा पूर्ण परमात्मा के निमित्त ब्रह्मरूप अग्निमें अर्थात् प्रभु स्तुति से पापांे की आहूति हो जाती है अर्थात् पाप विनाश हो जाते हैं वास्तव में सांसारिक कार्य करते हुए भी जिसका ध्यान परमात्मा में ही लीन रहता है और जो आसानी से शरीर से होने वाले कर्म करता है अर्थात् सहज समाधी में रह कर साधना करता है उसके लिए परमात्मा प्राप्त किये जाने योग्य है अर्थात् वही परमात्मा प्राप्त कर सकता है जो सहज समाधि में रहता है।
आदरणीय गरीबदास जी महाराज भी कहते हैं:-
जैसे हाली बीज धुन, पंथी से बतलावै। वा में खण्ड पड़े नहीं ऐसे ध्यान(समाधी) लगावै।।
In the practice of seeing Brahma everywhere as a form of sacrifice Brahma is the ladle (with which the oblation is poured into the fire, etc.,); Brahma, again, is the oblation; Brahma is the fire, Brahma Himself the sacrificer, and so Brahma itself constitutes the act of pouring the oblation into the fire. And finally Brahma is the goal to be reached by him who is absorbed in Brahma as the act of such sacrifice. (24)
भावार्थ:- जैसे किसान खेत में गेहूं या अन्य फसल बीज रहा हो और कोई यात्री आ जाए तो रस्ता पूछने पर वह किसान हल चलाते-चलाते बीज बीजते हुए यात्री को रस्ता भी बताता है, परन्तु उसकी समाधि (ध्यान) अपने मूल कार्य में ही रहता है। इसे सहज समाधि (कर्मसमाधी) कहा जाता है। इसी का प्रमाण पवित्र गीता जी कह रही है कि जो कर्मयोगी अपना कार्य करता हुआ भी प्रभु में ध्यान रखता है, वही प्रभु को प्राप्त करने योग्य भक्त है।
गरीब, नाम उठत नाम बैठत नाम सोवत जाग वे। नाम खाते नाम पीते नाम सेती लाग वे।।
अध्याय 4 का श्लोक 25
दैवम्, एव, अपरे, यज्ञम्, योगिनः, पर्युपासते,
ब्रह्माग्नौ, अपरे, यज्ञम्, यज्ञेन, एव, उपजुह्नति।।25।।
हिन्दी: इसके विपरित दूसरे योगीजन देवताओंके पूजनरूप यज्ञका ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परमात्मा प्राप्ति की विरह रूपी अग्नि अपने ही विचार से धार्मिक कर्मों के द्वारा ही धार्मिक कर्मों का अनुष्ठान किया करते हैं।
Other yogis duly offer sacrifice only in the shape of worship to gods. Others pour into the fire of Brahma the very sacrifice in the shape of the self through the sacrifice known as the perception of identity. (25)
अध्याय 4 का श्लोक 26
श्रोत्रदीनि, इन्द्रियाणि, अन्ये, संयमाग्निषु, जुह्नति,
शब्दादीन्, विषयान्, अन्ये, इन्द्रियाग्निषु, जुह्नति।।26।।
हिन्दी: अन्य योगीजन कान नाक आदि बन्द करके अर्थात् हठ योग से समस्त इन्द्रियोंको संयमरूप अग्नियोंमें हवन की तरह पाप जलाने का प्रयत्न किया करते हैं और दूसरे साधक शब्द-स्र्पस आदि समस्त विषयोंको इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन की तरह पाप जलाने का प्रयत्न किया करते हैं अर्थात् हठ करके साधना करने को मोक्ष मार्ग मानते हैं।
Others offer as sacrifice their senses of hearing etc., into the fires of self-discipline. Other yogis, again, offer sound and other objects of perception into the fires of the senses. ( 26 )
अध्याय 4 का श्लोक 27
सर्वाणि, इन्द्रियकर्माणि, प्राणकर्माणि, च, अपरे,
आत्मसंयमयोगाग्नौ, जुह्नति, ज्ञानदीपिते।।27।।
हिन्दी: दूसरे योगीजन इन्द्रियोंकी सम्पूर्ण क्रियाओंको और प्राणोंकी अर्थात् स्वांसों की समस्त क्रियाओंको ज्ञानसे प्रकाशित अपने आप को संयमयोगरूप अग्निमें हवन किया करते हैं अर्थात् ज्ञान से संयम करके साधना करते हैं, इसी को मोक्ष मार्ग मानते हैं।
Others sacrifice all the functions of their senses and the functions of the vital airs into the fire of Yoga in the shape of selfcontrol, kindled by wisdom. ( 27 )
अध्याय 4 का श्लोक 28
द्रव्ययज्ञाः, तपोयज्ञाः, योगयज्ञाः, तथा, अपरे,
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः, च, यतयः, संशितव्रताः।।28।।
हिन्दी: कई साधक द्रव्य-सम्बन्धी धार्मिक कर्म केवल दान करनेवाले हैं कितने ही तपस्यारूप धार्मिक कर्म करनेवाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगासन रूप धार्मिक कर्म करनेवाले हैं और कितने ही घोर व्रतोंसे युक्त यत्नशील हैं और कुछ स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ अर्थात् केवल सद्ग्रन्थों का नित्य पाठ करनेवाले हैं अर्थात् इसी को मोक्ष मार्ग मानते हैं।
Some perform sacrifice with material possessions; some offer sacrifice in the shape of austerities; others sacrifice through the practice of Yoga; while some striving souls, observing austere vows, perform sacrifice in the shape of wisdom through the study of sacred texts. (28)
अध्याय 4 का श्लोक 29-30
अपाने, जुह्नति, प्राणम्, प्राणे, अपानम्, तथा, अपरे,
प्राणापानगती, रुद्ध्वा, प्राणायामपरायणाः।।29।।
अपरे, नियताहाराः, प्राणान्, प्राणेषु, जुह्नति,
सर्वे, अपि, एते, यज्ञविदः, यज्ञक्षपितकल्मषाः।।30।।
हिन्दी: दूसरे अपानवायुमें प्राणवायुको हवन की तरह पाप जलाने का प्रयत्न करते हैं। वैसे ही प्राणवायुमें अपानवायुको करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणायामपरायण प्राण और अपानकी गतिको रोककर प्राणोंको अर्थात् स्वांसों को सूक्ष्म करके प्राणोंमें ही हवन की तरह जलाने का प्रयत्न किया करते हैं अर्थात् प्राणायाम करके ही प्रभु प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं। ये सभी साधक उपरोक्त धार्मिक कर्मों अर्थात् साधनाओं द्वारा पापोंका नाश कर देनेवाले भक्ति साधन समझते हैं अर्थात् इसी साधना को मोक्ष मार्ग मानते हैं।
Other yogis offer the act of exhalation into that of inhalation even; so others, the act of inhalation into that of exhalation. There are still others given to the practice of Pranayama (breath-control), who having regulated their diet and controlled the processes of exhalation and inhalation both pour their vital airs into the vital airs themselves. All these have their sins consumed away by sacrifice and understand the meaning of sacrificial worship. (29,30)
अध्याय 4 का श्लोक 31
यज्ञशिष्टामृृतभुजः, यान्ति, ब्रह्म, सनातनम्,
न, अयम्, लोकः, अस्ति, अयज्ञस्य, कुतः, अन्यः, कुरुसत्तम।।31।।
हिन्दी: हे कुरुक्षेष्ठ अर्जुन! उपरोक्त शास्त्रविधि रहित साधनाओं से बचे हुए बुद्धिमान साधक शास्त्र अनुकूल साधना से बचे हुए लाभ को उपभोग करके आदि पुरुष परमेश्वर अर्थात्-पूर्णब्रह्मको प्राप्त होते हैं और शास्त्र विधि अनुसार पूर्ण प्रभु की भक्ति न करनेवाले पुरुषके लिये तो यह मनुष्य-लोक भी सुखदायक नहीं है फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?
Arjuna, Yogis who enjoy the nectar that has been left over after the perfornance of a scrifice attain the eternal Brahma. To the man who does not offer sacrifice, even this world is not happy; how, then, can the other world be happy? (31)
भावार्थ:- यज्ञ से बचे हुए अमृृत का भोग करने का अभिप्रायः है कि ‘‘पूर्ण परमात्मा की साधना करने वाले साधक अपने शरीर के कमलों को खोलने वाले मन्त्र का जाप करते हैं। वे मन्त्र श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्ण जी तथा श्री शिव जी व श्री दुर्गा जी के जाप भी हैं जो संसारिक सुख प्राप्त कराते हैं। इन के मन्त्र जाप से उपरोक्त देवी व देवताओं के ऋण से मुक्ति मिलती है जो मन्त्र जाप की ऋण उतरने के पश्चात् शेष कमाई है उस शेष जाप की कमाई से पूर्ण परमात्मा के साधक को अत्यधिक संसारिक लाभ प्राप्त होता है। इस श्लोक 31 में यही कहा है कि पूर्ण परमात्मा का साधक यज्ञ अर्थात् साधना (अनुष्ठान) से बची शेष भक्ति कमाई का उपयोग करके पूर्ण परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। भावार्थ है कि पूर्ण परमात्मा के विधिवत् साधक को संसारिक सुख भी अधिक प्राप्त होता है तथा पूर्ण मोक्ष भी प्राप्त होता है।
विशेष - यही प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 3 श्लोक 13 में वर्णन है तथा अध्याय 16 श्लोक 23-24 में भी है कि हे भारत जो साधक शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् मनमुखी पूजा करते हैं उनको न तो कोई सुख प्राप्त होता है, न सिद्धि तथा न ही कोई गति प्राप्त होती है अर्थात् व्यर्थ है। इसलिए शास्त्रों में अर्थात् वेदों में जो भक्ति साधना के कर्म करने का आदेश है तथा जो न करने का आदेश है वही मानना श्रेयकर है।
अध्याय 4 का श्लोक 32
एवम्, बहुविधाः, यज्ञाः, वितताः, ब्रह्मणः, मुखे,
कर्मजान्, विद्धि, तान्, सर्वान्, एवम्, ज्ञात्वा, विमोक्ष्यसे।।32।।
हिन्दी: इस प्रकार और भी बहुत तरहके शास्त्रअनुसार धार्मिक क्रियाऐं हैं उन सबको तू कर्मों के द्वारा होने वाली यज्ञों को जान इस प्रकार पूर्ण परमात्माके मुख कमल से पाँचवे वेद अर्थात् स्वसम वेद में विस्तारसे कहे गये हैं। जानकर पूर्ण मुक्त हो जायगा।
Many such forms of sacrifice have been set forth in detail through the mouth of the Vedas; know them all as involving the action of mind, senses and body. Thus knowing the truth about them you shall be freed from the bondage of action (through their performance). (32)
अध्याय 4 का श्लोक 33
श्रेयान्, द्रव्यमयात्, यज्ञात्, ज्ञानयज्ञः, परन्तप,
सर्वम्, कर्म, अखिलम्, पार्थ, ज्ञाने, परिसमाप्यते।।33।।
हिन्दी: हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय अर्थात् धन के द्वारा किये जाने वाले दान, भण्डारे आदि यज्ञ अर्थात् धार्मिक कर्मों की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा सम्पूर्ण शास्त्र अनुकूल कर्म सम्पूर्ण ज्ञान अर्थात् तत्वज्ञानमें समाप्त हो जाते हैं।
Arjuna, sacrifice through Knwoledge is superior to sacrifice performed with material things. For all actions without exception culminate in Knowledge, O son of Kunti. (33)
अध्याय 4 का श्लोक 34
तत्, विद्धि, प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन, सेवया,
उपदेक्ष्यन्ति, ते, ज्ञानम्, ज्ञानिनः, तत्त्वदर्शिनः।।34।।
हिन्दी: पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि उपरोक्त नाना प्रकार की साधना तो मनमाना आचरण है। मेरे तक की साधना की अटकल लगाया ज्ञान है, परन्तु पूर्ण परमात्मा के पूर्ण मोक्ष मार्ग का मुझे भी ज्ञान नहीं है। उसके लिए इस मंत्र 34 में कहा है कि उस तत्वज्ञान को समझ उन पूर्ण परमात्मा के वास्तविक ज्ञान व समाधान को जानने वाले संतों को भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे पूर्ण ब्रह्म को तत्व से जानने वाले अर्थात् तत्वदर्शी ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञानका उपदेश करेंगे। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 15-16 में भी है।
Understand the true nature of that Knowledge by approaching illumined soul. If you prostrate at their feet, render them service, and question them with an open and guileless heart, those wise seers of Truth will instruct you in that Knowledge. (34)
अध्याय 4 का श्लोक 35
यत्, ज्ञात्वा, न, पुनः, मोहम्, एवम्, यास्यसि, पाण्डव,
येन, भूतानि, अशेषेण, द्रक्ष्यसि, आत्मनि, अथो, मयि।।35।।
हिन्दी: जिस तत्व ज्ञान को जानकर फिर तू इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञानके द्वारा तू प्राणियोंको पूर्ण रूपसे पूर्ण परमात्मा जो आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है उस पूर्ण परमात्मा में और पीछे मुझे देखेगा कि मैं काल हूँ यह जान जाएगा।
Arjuna, when you have reached enlightenment, ignorance will delude you no more. In the light of that Knowledge you will see the entire creation first within your own self, and then in Me (the Oversoul). (35)
अध्याय 4 का श्लोक 36
अपि, चेत्, असि, पापेभ्यः, सर्वेभ्यः, पापकृत्तमः,
सर्वम्, ज्ञानप्लवेन, एव, वृजिनम्, सन्तरिष्यसि।।36।।
हिन्दी: यदि तू अन्य सब पापियोंसे भी अधिक पाप करनेवाला है तो भी तू तत्वज्ञान के आधार पर वास्तविक नाम रूपी नौकाद्वारा सर्वस जानकर अज्ञान से पार जाकर निःसन्देह पूर्ण तरह तर जायेगा अर्थात् पाप रहित होकर पूर्ण मुक्त हो जायेगा।
Even though you were the foulest of all sinners, this Knowledge alone would carry you, like a raft, across all your sin. (36)
अध्याय 4 का श्लोक 37
यथा, एधांसि, समिद्धः, अग्निः, भस्मसात्, कुरुते, अर्जुन,
ज्ञानाग्निः, सर्वकर्माणि, भस्मसात्, कुरुते, तथा।।37।।
हिन्दी: हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको भस्ममय कर देता है वैसे ही तत्वज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण अविधिवत् कर्मोंको भस्ममय कर देता है।
For as the blazing fire turns the fuel to ashes, Arjuna, even so the fire of Knwoledge turns all actions to ashes. (37)
अध्याय 4 का श्लोक 38
न, हि, ज्ञानेन, सदृृशम्, पवित्रम्, इह, विद्यते,
तत् स्वयम्, योगसंसिद्धः, कालेन, आत्मनि, विन्दति।।38।।
हिन्दी: इस संसारमें तत्व ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह कुछ भी नहीं जान पड़ता उस तत्वदर्शी संत के द्वारा दिए सत भक्ति मार्ग के द्वारा जिसकी भक्ति कमाई पूर्ण हो चुकी है समय अनुसार आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले उस पूर्ण परमात्मा को गीता अध्याय 8 श्लोक 8 से 10 में वर्णित उल्लेख के आधार से अपने आप ही प्राप्त कर लेता है।
On earth there is no purifier as great as Knowledge, he who has attained purity of heart through a prolonged practice of Karmayoga automatically sees the light of Truth in the self in course of time. (38)
अध्याय 4 का श्लोक 39
श्रद्धावान्, लभते, ज्ञानम्, तत्परः, संयतेन्द्रियः,
ज्ञानम्, लब्ध्वा, पराम्, शान्तिम्, अचिरेण, अधिगच्छति।।39।।
हिन्दी: जितेन्द्रिय उस तत्वदर्शी संत द्वार प्राप्त साधन के साधनपरायण श्रद्धावान् मनुष्य भक्ति की उपलब्धि होने पर पूर्ण परमेश्वर के तत्वज्ञानको प्राप्त होता है तथा तत्वज्ञानको प्राप्त होकर वह बिना विलम्बके तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।
He who has mastered his senses, is exclusively devoted to his practice and is full of faith, attains Knowledge; having had the revelation to Truth, he immediately attains supreme peace (in the form of GodRealization). (39)
अध्याय 4 का श्लोक 40
अज्ञः, च, अश्रद्दधानः, च, संशयात्मा, विनश्यति,
न, अयम् लोकः, अस्ति, न, परः, न, सुखम्, संशयात्मनः।।40।।
हिन्दी: जो साधक उस तत्वदर्शी संत के ज्ञान व साधना पर अविश्वास करता है वह विवेकहीन और श्रद्धारहित तथा संश्ययुक्त मनुष्य भक्ति मार्ग से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है ऐसे संश्ययुक्त मनुष्यके लिये न यह लोक में न परलोक में सुख नहीं है।
इसी का प्रमाण गीता अध्याय 6 श्लोक 40 में भी है।
He who lacks discrimination, is devoid of faith, and is at the same time possessed by doubt is lost to the spiritual path. For the doubting soul there is neither this world nor the world beyond, nor even happiness. (40)
अध्याय 4 का श्लोक 41
योगसन्नयस्तकर्माणम्, ज्ञानसछिन्नसंशयम्,
आत्मवन्तम्, न, कर्माणि, निबध्नन्ति, धनंजय।। 41।।
हिन्दी: हे धनंजय! जिसने तत्वज्ञान के आधार से शास्त्र विधि रहित भक्ति के सर्व कर्मों को त्याग कर दिया और जिसने तत्वज्ञान द्वारा समस्त संश्योंका नाश कर दिया है ऐसे पूर्ण परमात्मा के शास्त्र अनुकूल ज्ञान पर अडिग साधक को शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने से पाप कर्म होते हैं वे शास्त्र विधि अनुसार साधना करने वाले को नहीं होते इसलिए पाप कर्म नहीं बाँधते अर्थात् वे पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं।
Arjuna, actions do not bind him who has
dedicated all his actions to God according to the spirit of Karmayoga, whose doubts have
* been torn to shreds by wisdom, and who is
self-possessed. (41)
अध्याय 4 का श्लोक 42
तस्मात्, अज्ञानसम्भूतम्, हृत्स्थम्, ज्ञानासिना, आत्मनः,
छित्त्वा, एनम्, संशयम्, योगम्, आतिष्ठ, उत्तिष्ठ, भारत।।42।।
हिन्दी: इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदयमें स्थित अज्ञानजनित शास्त्र विधि रहित संश्य रूपी पाप को तत्वज्ञानरूप तलवारद्वारा छेदन करके अर्थात् दूध पानी छान कर उठ अर्थात् सावधान होकर अन्तरात्मा से पूर्ण परमात्मा के शास्त्र अनुकूल भक्ति में अडिग हो जा।
Therefore, Arjuna, slashing to pieces, with the sword of wisdom, this doubt in your heart, born of ignorance, establish yourself in karmayoga in the shape of even-temperedness, and stand up for the fight. (42)
Chapter 4 Of Bhagwat Geeta