Chapter 2 of the Bhagavad Gita is titled "Sankhya Yoga" or "The Yoga of Knowledge." In this chapter, Lord Krishna imparts spiritual wisdom to Arjuna, who is in a state of moral dilemma on the battlefield of Kurukshetra. Here are the key details and teachings from Chapter 2 of the Bhagavad Gita:
1. **Setting the Scene**: Arjuna is deeply troubled by the moral implications of the impending battle in which he must fight against his own kin, teachers, and friends. He is confused about his duty and the consequences of war.
2. **The Concept of Dharma**: Lord Krishna emphasizes the importance of performing one's duty, or dharma, without attachment to the outcomes. He tells Arjuna that it is better to die in the performance of one's duty than to live avoiding it.
3. **Eternal Soul (Atman)**: Krishna explains the nature of the eternal soul (Atman) and its relationship with the body. He asserts that the soul is indestructible and transcends the physical body, which undergoes birth and death.
4. **Concept of Sankhya Yoga**: Sankhya, in this context, refers to the analysis of the self and the understanding of reality. Krishna encourages Arjuna to cultivate detachment and equanimity through knowledge and discrimination.
5. **Detachment and Equanimity**: Krishna teaches Arjuna the importance of detachment from the fruits of actions and maintaining equanimity in success and failure, pleasure and pain. This detachment is essential for spiritual growth and liberation.
6. **Path of Selfless Action (Karma Yoga)**: Krishna introduces the concept of Karma Yoga, the path of selfless action performed without attachment to the results. He advises Arjuna to perform his duty as a warrior without being swayed by desires or aversions.
7. **The Illusion of Death**: Krishna assures Arjuna that the soul is eternal and cannot be destroyed by weapons or any physical means. Death is merely a transition of the soul from one body to another, like changing clothes.
8. **Renunciation of Fruits of Actions**: Krishna emphasizes the importance of renouncing attachment to the fruits of actions. He encourages Arjuna to perform his duty as a Kshatriya (warrior) but remain detached from the results, offering them to the divine.
Chapter 2 lays the foundation for the teachings of the Bhagavad Gita, introducing key philosophical concepts such as dharma, karma, and the eternal nature of the soul, while also prescribing practical methods for spiritual growth and self-realization.
Chapter 1 : Contain 72 verse
अध्याय 2 का श्लोक 1
(संजय उवाच)
तम्, तथा, कृपया, आविष्टम्, अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्,
विषीदन्तम्, इदम्, वाक्यम्, उवाच, मधुसूदनः।।1।।
हिन्दी: और उस प्रकार करुणासे व्याप्त और आँसुओंसे पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त मोह रूपी अंधकार में डूबे उस अर्जुनके प्रति भगवान् मधुसूदनने यह वचन कहा।
Sanjaya said : Sri Krsna then addressed the following words to Arjuna, who was as mentioned before overwhelmed with pity, whose eyes were filled with tears and agitated, and who was full of sorrow. (1)
अध्याय 2 का श्लोक 2
(भगवान उवाच)
कुतः, त्वा, कश्मलम्, इदम्, विषमे, समुपस्थितम्,
अनार्यजुष्टम्, अस्वग्र्यम्, अकीर्तिकरम्, अर्जुन।।2।।
हिन्दी: हे अर्जुन! तुझे इस दुःखदाई असमयमें यह मोह किस हेतुसे प्राप्त हुआ? क्योंकि यह अश्रेष्ठ पुरुषोंका चरित है न स्वर्गको देनेवाला है और अपकीर्तिको करनेवाला ही है।
Sri Bhagavan said : Arjuna, how has this infatuation overtaken you at this odd hour? It is shunned by noble souls; neither will it bring heaven, nor fame, to you. (2)
अध्याय 2 का श्लोक 3
क्लैब्यम्, मा, स्म, गमः, पार्थ, न, एतत्, त्वयि, उपपद्यते,
क्षुद्रम् हृदयदौर्बल्यम्, त्यक्त्वा, उत्तिष्ठ, परन्तप।।3।।
हिन्दी: हे अर्जुन! नपुंसकताको मत प्राप्त हो तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको त्यागकर युद्धके लिये खड़ा हो जा।
Yield not to unmanliness, Arjuna ; ill does it become you. Shaking off this paltry faint-heartedness stand up, O scorcher of enemies. (3)
अध्याय 2 का श्लोक 4
(अर्जुन उवाच)
कथम्, भीष्मम्, अहम्, सङ्ख्ये, द्रोणम्, च, मधुसूदन,
इषुभिः, प्रति, योत्स्यामि, पूजार्हौ, अरिसूदन।।4।।
हिन्दी: हे मधुसूदन! मैं रणभूमिमें किस प्रकार बाणोंसे भीष्मपितामह और द्रोणाचार्यके विरुद्ध लडूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं।
Arjuna said : How, Krsna, shall I fight Bhisma and Drona with arrows on the battlefield? They are worthy of deepest reverence, O destroyer of foes. (4)
अध्याय 2 का श्लोक 5
गुरून्, अहत्वा, हि, महानुभावान्, श्रेयः, भोक्तुम्,
भैक्ष्यम्, अपि, इह, लोके, हत्वा, अर्थकामान्, तु,
गुरून्, इह, एव, भुजीय, भोगान्, रुधिरप्रदिग्धान्,।। 5।।
हिन्दी: महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर मैं इस लोकमें भिक्षाका अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनोंको मारकर भी इस लोकमें रुधिरसे सने हुए अर्थ और कामरूप भोगोंको ही तो भोगूँगा।
It is better to live on alms in this world without slaying these noble elders, because even after killing them we shall after all enjoy only blood-stained pleasures in the form of wealth and sense-enjoyments. (5)
अध्याय 2 का श्लोक 6
न, च, एतत्, विध्मः, कतरत्, नः, गरीयः, यत्, वा,
जयेम, यदि, वा, नः, जयेयुः, यान् एव, हत्वा, न,
जिजीविषामः, ते, अवस्थिताः, प्रमुखे, धार्तराष्ट्राः।।6।।
हिन्दी: तथा यह नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना इन दोनोंमेंसे कौन-सा श्रेष्ठ है अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वे ही धृतराष्ट्रके पुत्र मुकाबलेमें खड़े हैं।
Wo do not even know which is preferable for us — to fight or not to fight; nor do we know whether we shall win or whether they will conquer us. Those very sons of Dhrtarastra, killing whom we do not even wish to live, stand in the enemy ranks. (6)
अध्याय 2 का श्लोक 7
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः, पृच्छामि, त्वाम्,
धर्मसम्मूढचेताः, यत्, श्रेयः, स्यात्, निश्चितम्, ब्रूहि,
तत्, मे, शिष्यः, ते, अहम्, शाधि, माम्, त्वाम्, प्रपन्नम्।।7।।
हिन्दी: कायरतारूप दोषसे उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्मके विषयमें मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो वह मेरे लिए कहिये क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये।
With my very being tainted by the vice of faint-heartedness and my mind puzzled with regard to duty, I am asking you. Tell me that which is decidedly good; I am Your disciple. Pray instruct me, who have put myself into Your hands. (7)
अध्याय 2 का श्लोक 8
न, हि, प्रपश्यामि, मम, अपनुद्यात्, यत्, शोकम्, उच्छोषणम्, इन्द्रियाणाम्,
अवाप्य, भूमौ, असपत्नम्, ऋद्धम्, राज्यम्, सुराणाम्, अपि,च,आधिपत्यम्।।8।।
हिन्दी: क्योंकि भूमिमें निष्कण्टक धनधान्य-सम्पन्न राज्यको और देवताओंके स्वामीपनेको प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ जो मेरी इन्द्रियोंके सूखानेवाले शोकको समाप्त कर सकें।
For even on obtaining undisputed sovereignty and an affluent kingdom on this earth and lordship over the gods, I do not see any means that can drive away the grief which is drying up my senses. (8)
भावार्थ:- अर्जुन कह रहा है कि भगवन यदि मुझे सारी पृथ्वी का राज्य प्राप्त हो चाहे देवताओं का भी स्वामी अर्थात् इन्द्र पद प्राप्त हो, मैं नहीं देखता हूं कि कोई मुझे युद्ध के लिए तैयार कर सकता है अर्थात् मैं युद्ध नहीं करूंगा, ऐसे कह कर चुप हो गया।
अध्याय 2 का श्लोक 9
एवम्, उक्त्वा, हृषीकेशम्, गुडाकेशः, परन्तप,
न, योत्स्ये, इति, गोविन्दम्, उक्त्वा, तूष्णीम्, बभूव, ह।।9।।
हिन्दी: हे राजन्! निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराजके प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्द भगवान्से युद्ध नहीं करूँगा यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये।
Sanjaya said : O king, having thus spoken to Sri Krsna, Arjuna again said to Him, “I will not fight,” and became silent. (9)
अध्याय 2 का श्लोक 10
तम्, उवाच, हृषीकेशः, प्रहसन्, इव, भारत,
सेनयोः, उभयोः, मध्ये, विषीदन्तम्, इदम्, वचः।।10।।
हिन्दी: हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओंके बीचमें शोक करते हुए उस अर्जुनको हँसते हुए से यह वचन बोले।
Then, O Dhrtarastra, Sri Krishna, as if smiling, addressed the following words to sorrowing Arjuna, in the midst of the two armies. (10)
अध्याय 2 का श्लोक 11
(भगवान उवाच)
अशोच्यान्, अन्वशोचः, त्वम्, प्रज्ञावादान्, च, भाषसे,
गतासून्, अगतासून्, च, न, अनुशोचन्ति, पण्डिताः।।11।।
हिन्दी: तू न शोक करने योग्य मनुष्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके से वचनोंको कहता है परंतु जिनके प्राण चले गये हैं उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते।
Sri Bhagavan said : Arjuna, you grieve over those who should not be grieved for, and yet speak like the learned; wise men do not sorrow over the dead or the living. (11)
अध्याय 2 का श्लोक 12
न, तु, एव, अहम्, जातु, न, आसम्, न, त्वम्, न, इमे, जनाधिपाः,
न, च, एव, न, भविष्यामः, सर्वे, वयम्, अतः, परम्।।12।।
हिन्दी: न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमें नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।
In fact, there was never a time when I was not, or when you or these kings were not. Nor is it a fact that hereafter we shall all cease to be. (12)
अध्याय 2 का श्लोक 13
देहिनः, अस्मिन्, यथा, देहे, कौमारम्, यौवनम्, जरा,
तथा, देहान्तरप्राप्तिः, धीरः, तत्र, न, मुह्यति।।13।।
हिन्दी: जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन जवानी और वृद्धावस्था होती है वैसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता।
Just as boyhood, youth and old age are attributed to the soul through this body, even so it attains another body. The wise man does not get deluded about this. (13)
अध्याय 2 का श्लोक 14
मात्रस्पर्शाः, तु, कौन्तेय, शीतोष्णसुखदुःखदाः,
आगमापायिनः, अनित्याः, तान्, तितिक्षस्व, भारत।।14।।
हिन्दी: हे कुन्तीपुत्र! सर्दी गर्मी और सुख-दुःखको देनेवाले इन्द्रिय और विषयोंके संयोग तो उत्पत्ति विनाशशील और अनित्य हैं इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर।
O son of Kunti, the contacts between the senses and their objects, which give rise to the feeling of heat and cold, pleasure and pain etc., are transitory and fleeting; therefore, Arjuna, ignore them. (14)
अध्याय 2 का श्लोक 15
यम्, हि, न, व्यथयन्ति, एते, पुरुषम्, पुरुषर्षभ,
समदुःखसुखम्, धीरम्, सः, अमृतत्वाय, कल्पते।।15।।
हिन्दी: क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुखको समान समझनेवाले जिस धीर अर्थात् तत्वदर्शी पुरुषको ये व्याकुल नहीं करते वह पूर्ण परमात्मा के आनन्द के योग्य होता है।
Arjuna, the wise man to whom pain and pleasure are alike, and who is not tormented by these contacts, becomes eligible for immortality. (15)
अध्याय 2 का श्लोक 16
न, असतः, विद्यते, भावः, न, अभावः, विद्यते, सतः,
उभयोः, अपि, दृष्टः, अन्तः, तु, अनयोः, तत्त्वदर्शिभिः।।16।।
हिन्दी: असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं जानी जाती और सत्का अभाव नहीं जाना जाता इस प्रकार इन दोनों की भी तत्व, वास्तविकता को तत्वज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी संतों द्वारा देखा गया है ।
The unreal has no existence, and the real never ceases to be, the reality of both has thus been perceived by the seers of truth. (16)
अध्याय 2 का श्लोक 17
अविनाशि, तु, तत्, विद्धि, येन्, सर्वम्, इदम्, ततम्,
विनाशम्, अव्ययस्य, अस्य, न, कश्चित्, कर्तुम्, अर्हति।।17।।
हिन्दी: नाशरहित तो तू उसको जान जिससे यह सम्पूर्ण जगत् दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है।।
Know that alone to be imperishable, which pervades this universe; for no one has power to destroy this indestructible substance. (17)
अध्याय 2 का श्लोक 18
अन्तवन्तः, इमे, देहाः, नित्यस्य, उक्ताः, शरीरिणः,
अनाशिनः, अप्रमेयस्य, तस्मात्, युध्यस्व, भारत।।18।।
हिन्दी: ये पंच भौतिक शरीर नाशवान् है अविनाशी परमात्मा जो आत्मा सहित शरीर में नित्य रहता है। साधारण साधक पूर्ण परमात्मा व आत्मा के अभेद सम्बन्ध से अपरिचित है इसलिए प्रमाण रहित को आत्मा के साथ नित्य रहने वाला अविनाशी कहा गया हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! युद्ध कर।
All these bodies pertaining to the imperishable, indefinable and eternal soul are spoken of as perishable; therefore, Arjuna, fight. (18)
भावार्थ:- परमात्मा की निराकार शक्ति आत्मा के साथ ऐसे जानों जैसे मोबाइल फोन रेंज से ही कार्य करता है। टौवर एक स्थान पर होते हुए भी अपनी रेंज से अपने क्षेत्र वाले मोबाईल फोन के साथ अभेद है। इसको वही समझ सकता है जो मोबाईल फोन रखता है। इसी प्रकार परमात्मा अपने निज स्थान सत्यलोक में रहता है या जहाँ भी आता जाता है अपनी निराकार शक्ति की रेंज को उसी तरह प्रत्येक ब्रह्मण्ड के प्रत्येक प्राणी व स्थान अर्थात् जड़ व चेतन पर फैलाए रहता है। जैसे सूर्य दूर स्थान पर रहते हुए भी अपना प्रकाश व अदृश्य उष्णता (गर्मी) को अपने क्षमता क्षेत्र सर्व ब्रह्मण्ड़ों पर कण-कण में फैलाए रहता है। इसी प्रकार परमात्मा के शरीर से निकल रहा प्रकाश व अदृश्य शक्ति सर्व जड़ व चेतन को संभाले हुए है।
अध्याय 2 का श्लोक 19
यः, एनम्, वेत्ति, हन्तारम्, यः, च, एनम्, मन्यते, हतम्,
उभौ तौ, न, विजानीतः, न, अयम्, हन्ति, न, हन्यते।।19।।
हिन्दी: जो इसको मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि वह वास्तवमें न तो किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है।
They are both ignorant, he who knows the soul to be capable to killing and he who takes it as killed; for verily the soul neither kills, nor is killed. (19)
भावार्थ:- पूर्ण ब्रह्म का अभेद सम्बन्ध होने से आत्मा मरती नहीं तथा पूर्ण प्रभु दयालु है वह किसी को मारता नहीं। जो कहे कि आत्मा मरती है व पूर्ण परमात्मा किसी को मारता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं।
अध्याय 2 का श्लोक 20
न, जायते, म्रियते, वा, कदाचित्, न, अयम्, भूत्वा, भविता, वा, न,
भूयः, अजः, नित्यः, शाश्वतः, अयम्, पुराणः, न, हन्यते, हन्यमाने, शरीरे।।20।।
हिन्दी: यह किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है क्योंकि यह अजन्मा नित्य सनातन और पुरातन है शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।
The soul is never born nor dies; nor does it become only after being born. For it is unborn, eternal, everlasting and ancient; even though the body is slain, the soul is not. (20)
अध्याय 2 का श्लोक 21
वेद, अविनाशिनम्, नित्यम्, यः, एनम्, अजम्, अव्ययम्,
कथम्, सः, पुरुषः, पार्थ, कम्, घातयति, हन्ति, कम्।।21।।
हिन्दी: हे पृथापुत्र अर्जुन! जो व्यक्ति इस आत्म सहित परमात्मा को नाशरहित नित्य अजन्मा और अविनाशी जानता है वह व्यक्ति किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?
Arjuna, the man who knows this soul to be imperishable, eternal and free from birth and decay, — how and whom will he cause to be killed, how and whom will he kill? (21)
(अध्याय 2 श्लोक 22-23 में जीवात्मा की स्थिति बताई है।)(21)
अध्याय 2 का श्लोक 22
वासांसि, जीर्णानि, यथा, विहाय, नवानि, गृह्णतिः, नरः, अपराणि,
तथा, शरीराणि, विहाय, जीर्णानि, अन्यानि, संयाति, नवानि, देही।।22।।
हिन्दी: जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है।
As a man shedding worn-out garments, takes other new ones, likewise the embodied soul, casting off worn-out bodies, enters into others which are new. (22)
अध्याय 2 का श्लोक 23
न, एनम्, छिन्दन्ति, शस्त्राणि, न, एनम्, दहति, पावकः,
न, च, एनम्, क्लेदयन्ति, आपः, न, शोषयति, मारुतः।।23।।
हिन्दी: इसे शस्त्र नहीं काट सकते इसको आग नहीं जला सकती इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सूखा सकती।
Weapons cannot cut it, nor can fire burn it;, water cannot wet it nor can wind dry it.
अध्याय 2 का श्लोक 24
अच्छेद्यः, अयम्, अदाह्यः, अयम्, अक्लेद्यः, अशोष्यः, एव, च,
नित्यः, सर्वगतः, स्थाणुः, अचलः, अयम्, सनातनः।।24।।
हिन्दी: यह अच्छेद्य है यह परमात्मा अदाह्य अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह परमात्मा नित्य सर्वव्यापी अचल स्थिर रहनेवाला और सनातन है।
For this soul is incapable of being cut; it is proof against fire, impervious to water and undriable as well. This soul is eternal, amnipresent, immovable, constant and everlasting. (24)अध्याय 2 का श्लोक 25
अव्यक्तः, अयम्, अचिन्त्यः, अयम्, अविकार्यः, अयम्, उच्यते,
तस्मात्, एवम्, विदित्वा, एनम्, न, अनुशोचितुम्, अर्हसि।।25।।
हिन्दी: यह परमात्मा इस आत्मा के साथ गुप्त रहता है यह अचिन्त्य है और यह विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस परमात्मा को इस प्रकारसे जानकर तू शोक करनेके योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है। भावार्थ है कि जब परमात्मा जीव के साथ है तो जीव का अहित नहीं होता।
This soul is unmanifest; it is unthinkable; and it is spoken of as immutable. Therefore, knowing this as such, you should not grieve. (25)
अध्याय 2 का श्लोक 26
अथ, च, एनम्, नित्यजातम्, नित्यम्, वा, मन्यसे, मृतम्,
तथापि त्वम्, महाबाहो, न, एवम्, शोचितुम्, अर्हसि।।26।।
हिन्दी: और यदि इसके बाद तू इन्हें सदा जन्मनेवाला या सदा मरनेवाला मानता है तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करनेको योग्य नहीं है।
And, Arjuna, if you should suppose this soul to be subject to constant birth and death, even than you should not grieve like this. (26)
अध्याय 2 का श्लोक 27
जातस्य, हि, ध्रुवः, मृत्युः, ध्रुवम्, जन्म, मृतस्य, च,
तस्मात्, अपरिहार्ये, अर्थे, न, त्वम्, शोचितुम्, अर्हसि।।27।।
हिन्दी: क्योंकि जन्मे हुएकी मृत्यु निश्चित है और मरे हुएका जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपायवाले विषयमें तू शोक करनेके योग्य नहीं है
For in that case death is certain for the born, and rebirth is inevitable for the dead. You should not, therefore, grieve over the inevitable. (27)
अध्याय 2 का श्लोक 28
अव्यक्तादीनि, भूतानि, व्यक्तमध्यानि, भारत,
अव्यक्तनिधनानि, एव, तत्र, का, परिदेवना।।28।।
हिन्दी: हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं केवल बीच में ही प्रकट हैं फिर ऐसी स्थितिमें क्या शोक करना है?
Arjuna, before birth beings are not manifest to our human senses; at death they return to the unmanifest again. They are manifest only in the interin between birth and death. What occasion, then, for lamentation? (28)
अध्याय 2 का श्लोक 29
आश्चर्यवत्, पश्यति, कश्चित्, एनम्, आश्चर्यवत्,
वदति, तथा, एव, च, अन्यः, आश्चर्यवत्, च, एनम्, अन्यः,
श्रृणोति, श्रुत्वा, अपि, एनम्, वेद, न, च, एव, कश्चित्।।29।।
हिन्दी: कोई एक ही इस परमात्मा सहित आत्माको आश्चर्यकी भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही आश्र्चयकी भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा इसे आश्र्चयकी भाँति सुनता है और कोई सुनकर भी इसको नहीं जानता।
Hardly anyone perceives this soul as marvellous, scarce another likewise speaks thereof as marvellous, and scarce another hears of it as marvellous; while there are some who know it not even on hearing of it. (29)
अध्याय 2 का श्लोक 30
देही, नित्यम्, अवध्यः, अयम्, देहे, सर्वस्य, भारत,
तस्मात्, सर्वाणि, भूतानि, न, त्वम्, शोचितुम्, अर्हसि।।30।।
हिन्दी: हे अर्जुन! यह जीवाआत्मा परमात्मा के साथ सबके शरीरोंमें सदा ही अविनाशी है इस कारण सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये तू शोक करनेको योग्य नहीं है।
Arjuna, this soul dwelling in the bodies of all can never be slain; therefore, you should not mourn for anyone. (30)
अध्याय 2 का श्लोक 31
स्वधर्मम्, अपि, च, अवेक्ष्य, न, विकम्पितुम्, अर्हसि,
धम्र्यात्, हि, युद्धात्, श्रेयः, अन्यत्, क्षत्रियस्य, न, विद्यते।।31।।
हिन्दी: तथा अपनी शास्त्र अनुकूल धार्मिक पूजाओं को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्मयुक्त युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं जाना जाता है।
Besides: considering your own duty too you should not waver; for there is nothing more welcome for a man of the warrior class than a righteous war. (31)
विशेष:- गीताप्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता अध्याय 10 श्लोक 17 में विद्याम का अर्थ जानना अर्थात् जानूँ किया है।
अध्याय 2 का श्लोक 32
यदृच्छया, च, उपपन्नम्, स्वर्गद्वारम्, अपावृतम्,
सुखिनः, क्षत्रियाः, पार्थ, लभन्ते, युद्धम्, ईदृशम्।।32।।
हिन्दी: हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्गके द्वाररूप इस प्रकारके युद्धको भाग्यवान् क्षत्रियलोग ही पाते हैं।
Arjuna, happy are the Ksatriyas who get such an unsolicited opportunity for war; which opens the door to heaven. (32)
अध्याय 2 का श्लोक 33
अथ, चेत्, त्वम्, इमम्, धम्र्यम्, सङ्ग्रामम्, न, करिष्यसि,
ततः, स्वधर्मम्, कीर्तिम्, च, हित्वा, पापम्, अवाप्स्यसि।।33।।
हिन्दी: किंतु तू इस धार्मिकता युक्त ज्ञान के आधार से युद्धको नहीं करेगा वही स्वधर्म और कीर्तिको खोकर पापको प्राप्त होगा।
Now, if you refuse to fight this righteous war, then, shirking your duty and losing your reputation, you will incur sin. (33)
अध्याय 2का श्लोक 34
अकीर्तिम्, च, अपि, भूतानि, कथयिष्यन्ति, ते, अव्ययाम्,
सम्भावितस्य, च, अकीर्तिः, मरणात्, अतिरिच्यते।।34।।
हिन्दी: तथा सब लोग तेरी बहुत कालतक रहनेवाली अपकीर्तिका भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरणसे भी बढ़कर है।
Nay, people will also pour undying infamy on you; and infamy brought on a man enjoying popular esteem is worse than death. (34)
अध्याय 2 का श्लोक 35
भयात्, रणात्, उपरतम्, मंस्यन्ते, त्वाम्, महारथाः,
येषाम्, च, त्वम्, बहुमतः, भूत्वा, यास्यसि, लाघवम्।।35।।
हिन्दी: और जिनकी दृष्टिमें तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुताको प्राप्त होगा वे महारथी लोग तुझे भयके कारण युद्धसे हटा हुआ मानेंगे।
And the warrior-chiefs who thought highly of you, will now despise you, thinking that it was fear which drove you from battle. (35)
अध्याय 2का श्लोक 36
अवाच्यवादान्, च, बहून्, वदिष्यन्ति, तव, अहिताः,
निन्दन्तः, तव, सामथ्र्यम्, ततः, दुःखतरम्, नु, किम्।।36।।
हिन्दी: तेरे वैरी लोग तेरे सामथ्र्यकी निन्दा करते हुए तुझे बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे उससे अधिक दुःख और क्या होगा?।
And your enemies, disparaging your might, will speak many unbecoming words; what can be more distressing than this? (36)
अध्याय 2 का श्लोक 37
हतः, वा, प्राप्स्यसि, स्वर्गम्, जित्वा, वा, भोक्ष्यसे, महीम्,
तस्मात्, उत्तिष्ठ, कौन्तेय, युद्धाय, कृतनिश्चयः।।37।।
हिन्दी: या तो तू युद्धमें मारा जाकर स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।
Die, and you will win heaven; conquer, and you enjoy sovereignty of the earth; therefore, stand up, Arjuna, determined to fight. (37)
अध्याय 2 का श्लोक 38
सुखदुःखे, समे, कृत्वा, लाभालाभौ, जयाजयौ,
ततः, युद्धाय, युज्यस्व, न, एवम्, पापम्, अवाप्स्यसि।।38।।
हिन्दी: जय-पराजय लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर उसके बाद युद्धके लिये तैयार हो जा इस प्रकार पापको नहीं प्राप्त होगा।
Treating alike victory and defeat, gain and loss, pleasure and pain, get ready for the fight, then; fighting thus you will not incur sin. (38)
अध्याय 2 का श्लोक 39
एषा, ते, अभिहिता, साङ्ख्ये, बुद्धिः, योगे, तु, इमाम्, श्रृणु,
बुद्धया, युक्तः, यया, पार्थ, कर्मबन्धम्, प्रहास्यसि।।39।।
हिन्दी: हे पार्थ! यह ज्ञानवाणी तेरे लिये ज्ञानयोगके विषयमें कही गयी और अब तू इसको योगके विषयमें सुन जिस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मोंके बन्धनको भलीभाँति त्याग देगा यानी सर्वथा नष्ट कर डालेगा। गीता अध्याय 6 श्लोक 46 में कहा है कि ज्ञान योगियों और कर्मयोगियों से तत्वदर्शी सन्त अर्थात् योगी श्रेष्ठ है। इसी गीता अध्याय 5 श्लोक 2 में शास्त्रविरूद्ध ज्ञान योगी अर्थात् सन्यासी तथा कर्मयोगी दोनों को ही अश्रेष्ठ कहा है।
Arjuna, this attitude of mind has been presented to you from the point of view of Jnanayoga; now hear the same as presented from the standpoint of Karmayoga (the Yoga of selfless action). Equipped with this attitude of mind, you will be able to throw off completely the shackles of Karma. (39)
अध्याय 2 का श्लोक 40
न, इह, अभिक्रमनाशः, अस्ति, प्रत्यवायः, न, विद्यते,
स्वल्पम्, अपि, अस्य, धर्मस्य, त्रयते, महतः, भयात्।।40।।
हिन्दी: इस योगमें आरम्भका अर्थात् बीजका नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं जानते बल्कि इस योगरूप धर्मका थोड़ा-सा भक्ति धन भी महान् भयसे रक्षा कर लेता है।
In this path (of disinterested action) there is no loss of effort, nor is there fear of contrary result. Even a little practice of this discipline saves one from the terrible fear of birth and death. (40)
अध्याय 2 का श्लोक 41
व्यवसायात्मिका, बुद्धिः, एका, इह, कुरुनन्दन,
बहुशाखाः, हि, अनन्ताः, च, बुद्धयः, अव्यवसायिनाम्।।41।।
हिन्दी: हे अर्जुन! इस योगमें निश्चयात्मिका बुद्धि व ज्ञान वाणी एक ही होती है किंतु अस्थिर विचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्योंकी बुद्धियाँ अर्थात् ज्ञान विचार धाराऐं निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती है।
Arjuna, in this Yoga (of disinterested action) the intellect is determinate and directed singly towards one ideal; whereas the intellect of the undecided (ignorant men moved by desires) wandes in all directions, after innumerable aims. (41)
अध्याय 2 का श्लोक 42-43-44
याम्, इमाम्, पुष्पिताम्, वाचम्, प्रवदन्ति, अविपश्चितः,
वेदवादरताः, पार्थ, न, अन्यत्, अस्ति, इति, वादिनः।।42।।
कामात्मानः, स्वर्गपराः, जन्मकर्मफलप्रदाम्,
क्रियाविशेषबहुलाम्, भोगैश्वर्यगतिम्, प्रति।।43।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्, तया, अपहृतचेतसाम्,
व्यवसायात्मिका, बुद्धिः, समाधौ, न, विधीयते।।44।।
हिन्दी: हे अर्जुन्! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं वेद वाक्यों में ही प्रीति रखते हैं जिनकी बुद्धिमें स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है दूसरी नहीं है ऐसा कहनेवाले हैं वे अविवेकीजन इस प्रकारकी जिस पुष्पित यानी दिखाऊ शोभायुक्त वाणीको कहा करते हैं जन्मरूप कर्मफल देनेवाली भोग तथा ऐश्वर्यकी प्राप्ति के लिए बहुत-सी क्रियाओंको वर्णन करनेवाली है। उस वाणीद्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है। जो भोग और ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषोंकी परमात्मा के चिन्तन में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं जान पड़ती।
Arjuna, those who are full of worldly desir s and devoted to the letter of the Vedas, w o look upon heaven, as the supreme goal a d argue that there is nothing beyond heaven are unwise. They utter flowery speech recommending many ritual of various kinds for the attainment of pleasure and power with rebirth as their fruit. Those whose minds are carried away by such words, and who are deeply attached to pleasure and worldly power, cannot attain the determinate intellect concentrated on God. (42,43,44)
अध्याय 2 का श्लोक 45
त्रौगुण्यविषयाः, वेदाः, निस्त्रौगुण्यः, भव, अर्जुन,
निद्र्वन्द्वः, नित्यसत्त्वस्थः, निर्योगक्षेमः, आत्मवान्।।45।।
हिन्दी: हे अर्जुन! तीनों गुणों अर्थात् रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव के भोगों के ज्ञान से तीनों गुणों से ऊपर उठ कर हर्ष-शोकादि द्वन्द्वोंसे रहित नित्यवस्तु सत्यपुरूष अर्थात् पूर्ण परमात्मामें स्थित योग क्षेमको अर्थात् भक्ति के प्रतिफल में संसारिक सुख न चाहनेवाला आत्म विश्वासी हो।
Arjuna, the Vedas thus deal with evolutes of the three Gunas (modes of Prakriti); viz., worldly enjoyments and the means of attaining such enjoyments; be thou indifferent to these enjoyments and their means, rising above pairs of opposites like pleasur and pain etc., established in the Eternal Existence (God), absolutely unconcerned about the supply of wants and the preservation of what has been already attained, and self-controlled. (45)
अध्याय 2 का श्लोक 46
यावान्, अर्थः, उदपाने, सर्वतः, सम्प्लुतोदके,
तावान्, सर्वेषु, वेदेषु, ब्राह्मणस्य, विजानतः।।46।।
हिन्दी: सब ओरसे परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशयमें मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है पूर्ण परमात्माको तत्वसे जाननेवाले विद्वानका समस्त ज्ञानों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है।
A Brahmana, who has obtained enlightenment, has the same use for all the Vedas as one who stands at the brink of a sheet of water overflowing on all sides has for a small reservoir of water. (46)
भावार्थ:- जिस प्रकार बहुत बड़े जलास्य (जिस का जल दस वर्ष वर्षा न होने पर भी समाप्त न हो) के प्राप्त हो जाने के पश्चात् छोटे जलास्य (जिस का जल एक वर्षा न होने पर समाप्त हो जाए) में जैसी श्रद्धा रह जाती है(छोटा जलास्य बुरा नहीं लगता परन्तु उसकी क्षमता का ज्ञान हो जाता है) इसी प्रकार तत्वज्ञान की प्राप्ति पर अन्य ज्ञानों (चारों वेदों अठारह पुराणों व गीता जी आदि) मैं ऐसी श्रद्धा रह जाती है। क्योंकि उनमें पर्याप्त ज्ञान नहीं है। इसी प्रकार तत्वज्ञान के आधार से पूर्ण परमात्मा के गुणों का ज्ञान हो जाने पर अन्य परमात्माओं (परब्रह्म, ब्रह्म तथा श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव व दुर्गा) में ऐसी ही श्रद्धा रह जाती है। ये अन्य देवता बुरे नहीं लगते परन्तु इनसे मिलने वाला लाभ पर्याप्त नहीं है। (46)
अध्याय 2 का श्लोक 47
कर्मणि, एव, अधिकारः, ते, मा, फलेषु, कदाचन,
मा, कर्मफलहेतुः, भूः, मा, ते, संगः, अस्तु, अकर्मणि।।47।।
हिन्दी: तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिए तू कर्मोंके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो।
Your right is to work only, but never to the fruit thereof. Be not instrumental in making your actions bear fruit, nor let your attachment be to inaction. (47)
अध्याय 2 का श्लोक 48
योगस्थः, कुरु, कर्माणि, संगम्, त्यक्त्वा, धन×जय,
सिद्धयसिद्धयोः, समः, भूत्वा, समत्वम्, योगः, उच्यते।।48।।
हिन्दी: हे धनजय! तू आसक्तिको त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धिमें समान बुद्धिवाला होकर शास्त्रनुकूल भक्ति योगमें स्थित हुआ शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्तव्यकर्मोंको कर एक रूप ही योग अर्थात् वास्तविक भक्ति कहलाता है।
Arjuna, perform your duties established in Yoga, renouncing attachment, and eventempered in success and failure; envenness of temper is called Yoga. (48)
अध्याय 2 का श्लोक 49
दूरेण, हि, अवरम्, कर्म, बुद्धियोगात्, धनजय,
बुद्धौ, शरणम्, अन्विच्छ, कृपणाः, फलहेतवः।।49।।
हिन्दी: अपने आप निकाला भक्ति मार्ग का निष्कर्ष अर्थात् मनमाना आचरण अर्थात् अपनी बुद्धियोगसे भक्ति कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणीका है। इसलिये हे धन×जय! तू एक पूर्ण परमात्मा का ज्ञान देने वाले संत की शरण ढूँढ़ अर्थात् तत्वदर्शी संतों द्वारा बताया एक पूर्ण प्रभु की भक्ति साधन का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं।
Action (with a selfish motive) is far inferior to this Yoga in the form of equanimity. Do you seek refuge in this equipoise of mind, Arjuna; for poor and wretched are those who are instrumental in making their actions bear fruit. (49)
अध्याय 2 का श्लोक 50
बुद्धियुक्तः, जहाति, इह, उभे, सुकृतदुष्कृते,
तस्मात् योगाय, युज्यस्व, योगः, कर्मसु, कौशलम्।।50।।
हिन्दी: समबुद्धियुक्त अर्थात् तत्वदर्शी संत द्वारा बताया वास्तविक एक रूप शास्त्र अनुकूल भक्ति मार्ग पर लगा साधक पुरुष अच्छे कर्म जैसे मनमानी पूजाऐं जो सुकृत मान कर कर रहा था या मेरे बताए मार्ग अनुसार ओम् का जाप व यज्ञ आदि पुण्य करता था उस पुण्य को तथा बुरे कर्म जैसे मांस-मदिरा-तम्बाखु आदि नशीली वस्तुओं के सेवन रूपी दुष्कर्म पाप इन दोनोंको इसी लोक में अर्थात् काल लोक में त्याग देता है अर्थात् जैसे पूर्ण संत कहता है वैसे ही करता है इसलिए तू शास्त्र विधि अनुसार साधना अर्थात् समत्वरूप योगमें लग जा यह तत्वदर्शी संत द्वारा बताया भक्ति मार्ग ही भक्ति कर्मों में कुशलता है अर्थात् बुद्धिमत्ता है।
Endowed with equanimity, one sheds in this life both good and evil. Therefore, strive for the practice of this Yoga of equanimity. Skill in action lies in (the practice of this) Yoga. (50)
यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में है जिसमें कहा है कि मेरी सर्व धार्मिक पूजाओं को मेरे में त्याग कर उस पूर्ण परमात्मा की शरण में जा तब मैं तुझे सर्व पापों से मुक्त कर दूंगा।
अध्याय 2 का श्लोक 51
कर्मजम्, बुद्धियुक्ताः, हि, फलम्, त्यक्त्वा, मनीषिणः,
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः, पदम्, गच्छन्ति, अनामयम्।।51।।
हिन्दी: क्योंकि तत्वज्ञान के आधार से समबुद्धिसे युक्त ज्ञानीजन कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले फलको त्यागकर जन्म रूपबन्धनसे पूर्ण रूप से मुक्त हो अनामी अर्थात् जन्म-मरण रोग रहित परम पद अर्थात् सतलोक को चले जाते हैं अर्थात् पूर्ण मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् जन्म-मरण का रोग पूर्णरूप से समाप्त हो जाता है।
For wise men possessing an equiposied mind, renouncing the fruit of actions and freed from the shackles of birth, attain the blissful supreme state. (51)
अध्याय 2 का श्लोक 52
यदा, ते, मोहकलिलम्, बुद्धिः, व्यतितरिष्यति,
तदा, गन्तासि, निर्वेदम्, श्रोतव्यस्य, श्रुतस्य, च।।52।।
हिन्दी: जिस कालमें तेरी बुद्धि मोहरूप अर्थात् अज्ञान रूप दलदलको भलीभाँति पार कर जाएगी अर्थात् आपको तत्वज्ञान हो जायेगा उस समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले इस लोक और परलोक अर्थात् स्वर्ग-महास्वर्ग सम्बन्धी सभी भोगों का सुना सुनाया लोकवेद वेद विस्द्ध ज्ञान अर्थात् ज्ञानहीन वार्ता जैसा गया गुजरा महसूस होगा।
When your mind will have fully crossed the more of delusion, you will then grow indifferent to the enjoyments of this world and the next that have been heard of as well as to those that are yet to be heard of. (52)
अध्याय 2 का श्लोक 53
श्रुतिविप्रतिपन्ना, ते, यदा, स्थास्यति, निश्चला,
समाधौ, अचला, बुद्धिः, तदा, योगम्, अवाप्स्यसि।।53।।
हिन्दी: भाँति-भाँतिके वचनोंको सुननेसे विचलित हुई तेरी बुद्धि स्थिर होकर जब तत्वज्ञान के आधार से एक परमात्मा के चिन्तन में स्थाई रूप से ठहर जायगी तब तू योग अर्थात् भक्तिको प्राप्त हो जायगा। तब तेरी भक्ति प्रारम्भ हो जायेगी। अर्थात् तब तू योगी बनेगा। गीता अध्याय 6 श्लोक 46 में कहा है कि अर्जुन तू योगी बन।
When your intellect, confused by hearing conflicting statements, will rest, steady and undistracted (in meditation) on God, you will then attain Yoga (for lasting union with God). (53)
अध्याय 2 का श्लोक 54
(अर्जुन उवाच)
स्थितप्रज्ञस्य, का, भाषा, समाधिस्थस्य, केशव,
स्थितधीः, किम्, प्रभाषेत, किम्, आसीत, व्रजेत, किम्।।54।।
हिन्दी: हे केशव! सहज समाधिमें स्थित परमात्माको प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुषका क्या परिभाषा अर्थात् लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है कैसे बैठता है और कैसे चलता है।
Arjuna said : Krsna, what is the definition (mark) of a God-realized soul, stable to mind and established in Samadhi (perfect tranquillity of mind)? How does the man of stable mind speak, how does he sit, how does he walk? (54)
अध्याय 2 का श्लोक 55
(भगवान उवाच)
प्रजहाति, यदा, कामान्, सर्वान्, पार्थ, मनोगतान्
आत्मनि, एव, आत्मना, तुष्टः, स्थितप्रज्ञः, तदा, उच्यते।।55।।
हिन्दी: हे अर्जुन! जिस कालमें यह पुरुष मनमें स्थित सम्पूर्ण कामनाओंको भलीभाँति त्याग देता है और आत्मासे अर्थात् समर्पण भाव से आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ अर्थात् स्थाई बुद्धि वाला कहा जाता है अर्थात् फिर वह विचलित नहीं होता, केवल तत्वदर्शी संत के तत्वज्ञान पर पूर्ण रूप से आधारित रहता है। वह योगी है।
Sri Bhagavan said : Arjuna, when one thoroughly dismisses all cravings of the mind, and is satisfied in the self through (the joy of) the self, then he is called stable of mind. (55)
अध्याय 2 का श्लोक 56
दुःखेषु, अनुद्विग्नमनाः, सुखेषु, विगतस्पृहः,
वीतरागभयक्रोधः, स्थितधीः, मुनिः, उच्यते।।56।।
हिन्दी: दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमे उद्वेग नहीं होता सुखोंकी प्राप्तिमें जो सर्वथा इच्छा रहित है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं ऐसा मुनि अर्थात् साधक स्थिरबुद्धि कहा जाता है।
The sage, whose mind remains unperturbed amid sorrows, whose thirst for pleasure has altogether disappeared, and who is free from passion, fear and anger, is called stale of mind. (56)
अध्याय 2 का श्लोक 57
यः, सर्वत्र, अनभिस्नेहः, तत्, तत्, प्राप्य, शुभाशुभम्,
न, अभिनन्दति, न, द्वेष्टि, तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता।।57।।
हिन्दी: जो सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है। उसकी बुद्धि स्थिर है।
He who is unattached to everything, and meeting with good and evil, neither rejoices nor recoils, his mind is stable. (57)
अध्याय 2 का श्लोक 58
यदा, संहरते, च, अयम्, कूर्मः, अंगानि, इव, सर्वशः,
इन्द्रियाणि, इन्द्रियार्थेभ्यः, तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता।।58।।
हिन्दी: और जिस प्रकार कछुआ सब ओरसे अपने अंगोंको जैसे समेट लेता है वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे हटा लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर है ऐसा समझना चाहिए।
When like a tortoise, which draws in its limbs from all directions, he withdraws his senses from, the sense-objects, his mind is (should be considered as) stable. (58)
अध्याय 2 का श्लोक 59
विषयाः, विनिवर्तन्ते, निराहारस्य, देहिनः,
रसवर्जम्, रसः, अपि, अस्य, परम्, दृष्टवा, निवर्तते।।59।।
हिन्दी: इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके भी केवल विकार निवृत्त हो जाते हंै आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थिर बुद्धि वालेके उत्तम देखने अर्थात् विकारों से होने वाली हानि को जानने वाले के आसक्ति भी निवृत्त हो जाती है।
Sense-objects turn away from him, who does not enjoy them wuth his senses; but the taste for them persists. This relish also disappears in the case of the man of stable mind when he sees the Supreme. (59)
अध्याय 2 का श्लोक 60
यततः, हि, अपि, कौन्तेय, पुरुषस्य, विपिश्चितः,
इन्द्रियाणि, प्रमाथीनि, हरन्ति, प्रसभम्, मनः।।60।।
हिन्दी: हे अर्जुन! क्योंकि ये प्रमथन स्वभाववाली इन्द्रियाँ यतन करते हुए बुद्धिमान् पुरुषके मनको भी बलात् हर लेती हैं।
Turbulent by nature, the senses even of a wise man, who is practisingself-control, forcibly carry away his mind, Arjuna. (60)
अध्याय 2 का श्लोक 61
तानि, सर्वाणि, संयम्य, युक्तः, आसीत, मत्परः,
वशे, हि, यस्य, इन्द्रियाणि, तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता।।61।।
हिन्दी: उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके समाहित चित हुआ शास्त्रनुसार साधना में दृढता से लगे क्योंकि जिस पुरुषकी इन्द्रियाँ वशमें होती है उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है अर्थात् मन व इन्द्रियों के ऊपर बुद्धि की प्रभुत्ता रहती है।
Therefore, having controlled them all and collecting his mind one should sit for meditation, devoting oneself heart and soul to Me. For he, whose senses are mastered is known to have a stable mind. ( 61 )
अध्याय 2 का श्लोक 62
ध्यायतः, विषयान्, पुंसः, संग, तेषु, उपजायते, संगात्,
सजायते, कामः, कामात्, क्रोधः, अभिजायते।। 62।।
हिन्दी: विषयोंका चिन्तन करनेवाले पुरुषकी उन विषयोंमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
The man dwelling on sense-objects develops attachment for them; from attachment springs up desire, and from desire (unfulfilled) ensues anger. ( 62 )
अध्याय 2 का श्लोक 63
क्रोधात्, भवति, सम्मोहः, सम्मोहात्, स्मृतिविभ्रमः,
स्मृतिभ्रंशात्, बुद्धिनाशः, बुद्धिनाशात्, प्रणश्यति।।63।।
हिन्दी: क्रोधसे अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है मूढ़भावसे स्मृतिमें भ्रम हो जाता है स्मृतिमें भ्रम हो जानेसे बुद्धि अर्थात् ज्ञान-शक्तिका नाश हो जाता है। और बुद्धिका नाश हो जानेसे यह पुरुष अपनी स्थितिसे गिर जाता है।
From anger arises infatuation; from infatuation, confusion of memory; from confusion of memory, loss of reason; and from loss of reason one goes to complete ruin. (63)
अध्याय 2 का श्लोक 64
रागद्वेषवियुक्तैः, तु, विषयान्, इन्द्रियैः, चरन्,
आत्मवश्यैः, विधेयात्मा, प्रसादम्, अधिगच्छति।।64।।
हिन्दी: परंतु तत्वज्ञान से अधीन किये हुए अन्तःकरणवाला साधक अपने वशमें की हुई राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंद्वारा विषयोंमें विचरण करता हुआ भी उसमें लीन न होकर प्रसन्नताको प्राप्त होता है।
But the self-controlled practicant, while enjoying the various sense-objects through his senses, which are disciplined and free from likes and dislikes, attains placidity of mind. (64)
अध्याय 2 का श्लोक 65
प्रसादे, सर्वदुःखानाम्, हानिः, अस्य, उपजायते,
प्रसन्नचेतसः, हि, आशु, बुद्धिः, पर्यवतिष्ठते।।65।।
हिन्दी: अन्तःकरणकी प्रसन्नता होनेपर इसके सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न-चित्तवाले कर्मयोगीकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।
With the attainment of such placidity of ir ; nd, all his sorrows come to an end; and the effect of such a person of tranquil mind, soon withdrawing itself from all sides, becoip os firmly established in God. (65)
अध्याय 2 का श्लोक 66
न, अस्ति, बुद्धिः, अयुक्तस्य, न, च, अयुक्तस्य, भावना,
न, च, अभावयतः, शान्तिः, अशान्तस्य, कुतः, सुखम्।।66।।
हिन्दी: न जीते हुए मन और इन्द्रियोंवाले पुरुषमें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्यके अन्तःकरणमें भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्यको शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है?
He who has not controlled his mind and senses can have no reason; nor can such an undisciplined man think of God. the unthinking man can have no peace; and how can there be happiness for one lacking peace of mind.?
भावार्थ:- जिस साधक का संश्य निवार्ण नहीं हो जाता अर्थात् जिसे तत्वदर्शी संत नहीं मिलता जिससे उसकी बुद्धि एक परमात्मा की भक्ति के स्थान पर नाना प्रकार की साधना व कामना करता रहता है, उस साधक को कोई लाभ नहीं होता।
अध्याय 2 का श्लोक 67
इन्द्रियाणाम्, हि, चरताम्, यत्, मनः, अनु, विधीयते,
तत्, अस्य, हरति, प्रज्ञाम्, वायुः, नावम्, इव, अम्भसि।।67।।
हिन्दी: क्योंकि जैसे जलमें चलनेवाली नावको वायु हर लेती है वैसे ही विषयोंमें विचरती हुई इन्द्रियोंमेंसे मन जिस इन्द्रियके अधूरे ज्ञान पर आधारित हो जाता है जिस कारण से इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि हर ली जाती है।
As the wind carries away a boat upon the waters, even so of the senses moving among sense-objects, the one to which the mind is joined takes away his discrimination. (67)
अध्याय 2 का श्लोक 68
तस्मात् यस्य, महाबाहो, निगृहीतानि, सर्वशः,
इन्द्रियाणि, इन्द्रियार्थेभ्यः, तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता।।68।।
हिन्दी: इसलिये हे महाबाहो! जिस पुरुषकी इन्द्रियाँ तत्वज्ञान के आधार से इन्द्रियोंके विषयोंसे सब प्रकार निग्रह की हुई हैं उसीकी बुद्धि स्थिर है।
Therefore, Arjuna, he whose senses are completely restrained from their objects, is said to have a stable mind. (68)
अध्याय 2 का श्लोक 69
या, निशा, सर्वभूतानाम्, तस्याम्, जागर्ति, संयमी,
यस्याम्, जाग्रति, भूतानि, सा, निशा, पश्यतः, मुनेः।।69।।
हिन्दी: सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रिके समान है उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्दकी प्राप्तिमें स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान् सांसारिक सुखकी प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं परमात्माके तत्वको जाननेवाले मुनिके लिये वह रात्रिके समान है।
That which is night to all beings, in that state (of Divine Knowledge and supreme Bliss) the God-realized Yogi keeps awake. And that (the ever-changing, transient worldly happiness) in which all beings keep awake is night to the seer. (69)
अध्याय 2 का श्लोक 70
आपूर्यमाणम्, अचलप्रतिष्ठम्, समुद्रम्, आपः, प्रविशन्ति, यद्वत्,
तद्वत्, कामाः, यम्, प्रविशन्ति, सर्वे, सः, शान्तिम्, आप्नोति, न, कामकामी।।70।।
हिन्दी: जैसे नाना नदियोंके जल जब सब ओरसे परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुद्रमें उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुषमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं वही पुरुष परम शान्तिको प्राप्त होता है भोगोंको चाहनेवाला नहीं।
As the waters of different rivers enter the ocean, which though full on all sides remains undisturbed, likewise he is whom all enjoyments merge themselves attains peace; not he who hankers after such enjoyments. (70)
अध्याय 2 का श्लोक 71
विहाय, कामान्, यः, सर्वान्, पुमान्, चरति, निःस्पृहः,
निर्ममः, निरहंकारः, सः, शान्तिम्, अधिगच्छति।।71।।
हिन्दी: जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर ममता रहित अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है वही शान्तिको प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्तिको प्राप्त है।
He who has given up all desires, and moves free from attachment, egoism and thirst for ejoyment attains peace. (71)
अध्याय 2 का श्लोक 72
एषा, ब्राह्मी, स्थितिः, पार्थ, न, एनाम्, प्राप्य, विमुह्यति,
स्थित्वा, अस्याम्, अन्तकाले, अपि, ब्रह्मनिर्वाणम्, ऋच्छति।।72।।
हिन्दी: हे अर्जुन! यह इच्छाओं आदि का त्याग, अहंकार रहित उपरोक्त स्थिति परमात्मा को प्राप्त साधक की स्थिति है। इसको प्राप्त न होकर साधक विषयों में मोहित हो जाता है और अन्त समय में जिस साधक के विकार समाप्त नहीं हुए वह इस स्थितिमें स्थित होकर भी पूर्ण परमात्माको प्राप्त होने की क्षमता समाप्त हो जाती है अर्थात् पूर्ण परमात्मा प्राप्ति के लाभ से वंचित रह जाता है।
Arjuna, such is the state of the God-realized soul; having reached this state, he overcomes delusion. And established in this state, even at the last moment, he attains Brahmic Bliss. (72)
भावार्थ:- जो साधक पूर्ण संत से उपदेश प्राप्त करके साधना सम्पन्न नजर आता है, परंत विषय विकार त्याग नहीं करता, वह सर्व नाम प्राप्त करके भी पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति से वंचित रह जाता है। गीता अध्याय 2 श्लोक 70 में दोनों प्रकार के व्यक्तियों के विषय में कहा गया है। इसलिए श्लोक 71 में विकार रहित साधक के विषय में कहा है तथा श्लोक 72 में विकारों में मोहित साधक के विषय में कहा है।
Chapter 2 Of Bhagwat Geeta